रविवार, अगस्त 14, 2011

जाति सूचक सरनेम - जातिवादी मानसिकता और जातिगत राजनीति

क्या जाति सूचक सरनेम समाप्त हो जाने से कोई ब्राह्मण अपना सर्वश्रेष्ठ होने का दंभ नहीं भरेगा? क्या कोई राजपूत अपनी हेकड़ी नहीं दिखाएगा? क्या कोई यादव अपने आपको क्षत्रियों से होड़ छोड़ देगा? कोई जाटव ब्राह्मणों की पाँत में बैठकर खाना खा लेगा? मेरा विचार है कि बिलकुल भी नहीं। बीमारी सरनेम में नहीं बल्कि मानसिकता में है। कुछ लोग खुद जातिवाद करेंगे परंतु दूसरों पर उँगली उठाएँगे। एक मंच पर पाँच ब्राह्मण होंगे तो किसी का ध्यान नहीं जाएगा लेकिन किसी अन्य जाति के पाँच लोग एकत्र हो जाएँगे तो लोगों का ध्यान तुरंत इस ओर जाएगा कि यह तो जातिविशेष का सम्मेलन है। कोई जाट नेतृत्व करता है तो उसे जाट नेता कहा जाता है। सुशील कुमार शिंदे अनुसूचित जाति के नेता हैं परंतु ममता बनर्जी बंगाली नेता होते हुए भी राष्ट्रीय नेता हैं। राहुल गांधी तो पैदायशी राष्ट्रीय नेता है। मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, मायावती, अजित सिंह, चौटाला कभी राष्ट्रीय नेता नहीं बन पाएँगे। कोई मुसलमान नेता होगा तो उस पर कौमी नेता का लेबल चस्पा हो हो जाएगा। क्यों? जाति सूचक सरनेम के कारण या जातिवादी मानसिकता और जातिगत राजनीति के कारण।
यह मानसिकता कुछ लोगों को उत्तर प्रदेश और बिहार में ज्यादा दिखती है। परंतु यह समस्या तो महाराष्ट्र में इससे भी ज़्यादा है। वहाँ पर तो जाति सूचक सरनेम नहीं लगाया जाता है। वहाँ पर भी सरनेम कोई हो परंतु दूसरों को यह पता लग ही जाता है कि यह कुनबी (कुर्मी) जाति का है, वह तेली समाज का है, वह अकोलकर है तो ब्राह्मण होगा, शिंदे लिखता है परंतु अनुसूचित जाति का है। महाराष्ट्र में 1,25,000 से भी अधिक सरनेम हैं जिनका जाति से कोई संबंध नहीं है फिर भी चुनाव के समय सभी को पता चल जाता है कि वह किस जाति का है और उसे उसी ढंग से वोट मिलते हैं। अतः खामी सरनेम में नहीं बल्कि मानसिकता में है और वह बदलना असंभव नहीं तो दुष्कर ज़रूर है।
मैं उत्तर प्रदेश का हूँ और एम.ए. तक की पढ़ाई तक का समय वहीं बीता। बाद में केंद्र सरकार की सेवा में आया और पहली पोस्टिंग करनाल (हरियाणा) में हुई। जाट बहुल क्षेत्र। वहाँ पर कॉमन टाइटिल सिंह होती है। क्षेत्रों के आधार पर कोई बेनीवाल, अहलावत, कोई महिवाल, सोनवाल, बागड़ी आदि लिखता है। फिर भी लोगों को पता चल ही जाता है कि जाट है और वह अनुसूचित जाति का है। मेरे कई परिचित हरियाणे से हैं जो अच्छे पढ़े लिखे, बुद्धिमान, सुंदर, सुशील हैं और कोई कुमार लिखता है, कोई बागड़ी लिखता है। हम सब साथ खाना खाते हैं, काम करते हैं परंतु कभी सामाजिक रस्मो रिवाज़ की बात आती है तो लोग उन्हें अलगा ही देते हैं और तथा कथित ऊँची किनबड़ी धूम धाम से मनाते हैं परंतु धार्मिक अनुष्ठानों में स्वजातीय को ही शामिल करते हैं।
उत्तर भारत में आप अच्छे कपड़े पहने हों और सहयात्री आपसे नाम पूछे और आप अपना नाम सुरेंद्र कुमार बता दें तो पूछेगा कि पूरा नाम क्या है? यानी आपकी जाति क्या है? यदि आपने कहा कि मेरा पूरा नाम यही है तो उसे तसल्ली नहीं होगी। आपके पिता जी का नाम पूछ लेगा। मतलब यह कि आपकी जाति पूछ कर ही दम लेगा। उसे आपकी जाति से क्या लेना देना? परंतु यहाँ की मानसिकता ऐसी है कि आपकी जाति पूछने के बाद दलगत, जातिगत और धर्मगत उधेड़ बुन शुरू होगा। यदि आप उसके पक्ष के न हुए तो आपसे अपने जातिगत प्रछन्न विद्वेष के कारण आपकी जाति के नेता की बुराई करेगा, चाहे आप उस नेता के समर्थक हों या न हों।
एक बार मैं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय के कुलपति त्रिभुवन नारायण सिंह के पास प्रस्ताव लेकर गया था कि मैं राजभाषा विकास परिषद के तत्वावधान में, "हिंदी की सांविधिक स्थिति और सरकार की उदासीनता" विषय पर अखिल भारतीय संगोष्ठी करना चाहता हूं। इस काम में विश्व विद्यालय से कुछ सहायता करा दें क्योंकि परिषद के पास धन नहीं है। उन्होंने तुरंत कहा विश्व विद्यालय के पास निधि तो नहीं है कोई और मदद चाहें तो हम हाज़िर हैं, मतलब यह कि उद्घादटन के लिए या भाषण के लिए आ सकते हैं। बातचीत के दौरान मैंने कहा कि केंद्र सरकार की उदासीनता के कारण कार्यालयों में हिंदी की दुरवस्था के बारे में कुछ कहना शुरू किया तो उन्होंने तुरंत मुलायम सिंह का नाम लेकर सारा दोष उनके सिर पर मढ़ दिया और मुझे एहसास दिला दिया कि आप यादव हैं और आप भी बराबर के दोषी हैं। आई.ए.एस., आई.पी.एस. परीक्षाओं के माध्यम की दुहाई देने लगे। क्या उन्हें मालूम नहीं है कि यू.पी.एस. की सभी परीक्षाओं के लिए हिंदी माध्यम उपलब्ध है? विश्व विद्यालयों में भी उच्च शिक्षा हिंदी या क्षेत्रीय भाषओं में दी जाती है। परंतु अंग्रेज़ी मानसिकता के पोषक प्राध्यापकों को अंग्रेज़ी में लिखित ग्रंथों को पढ़कर पढ़ाना आसान लगता है। वे हिंदी में पुस्तकें नहीं लिखते हैं और न ही पढ़ने के लिए सिफ़ारिश करते हैं इसीलिए हिंदी में लिखी गई स्तरीय पुस्तकें नहीं मिलती हैं। अब अच्छी पुस्तकें नहीं मिलेंगी तो खरीदने वाले भी कम ही होंगे। क्या इसके लिए जातिवादी सरनेम दोषी है? अतः जातिवादी सरनेम समाप्त हो जाने पर भी जातिवाद समाप्त नहीं होगा जब तक कि मानसिकता और जातिगत राजनीति नहीं समाप्त होगी।
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2 टिप्‍पणियां:

  1. जाति के सच पर करारा वार करता हुआ लेख है।

    ऐसा ही लेख आपसे धर्म के बारे में भी अपेक्षित है।

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  2. जातिगत व्यवस्था पर सार्थक पोस्ट , मेरा नाम सुनील कुमार और केवल सुनील कुमार अपने को कुछ असहज अनुभव कर रहे हैं तो मेरे पिता का नाम काशी नाथ सहाय हम कायस्थ है :)

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