रविवार, मार्च 13, 2011

राजभाषा हिंदी के बारे में मनोवृत्ति परिवर्तन की आवश्यकता


कार्यालयों में अंग्रेज़ी का प्रयोग आज भी उसी प्रकार व उतनी ही मात्रा में हो रहा है जितना कि 1965 से पहले हो रहा था। हिंदी प्रयोग के आंकड़े कितने सही और वास्‍तविक हैं यह तो राजभाषा कक्ष/अनुभाग/विभाग के प्रभारी ही जानते हैं। इससे भी ख़तरनाक बात यह है कि हिंदी के प्रश्‍न को संविधान में अनंत काल तक के लिए टाल दिया गया है। हिंदी के प्रयोग के बारे में आज तक जितनी भी समितियां, आयोग बने किसी ने भी हिंदी के प्रश्न को समय सीमा से परे रखने की सिफ़ारि‍श नहीं की थी। लेकिन हिंदी के विरोधी और नकारात्मक मनोवृत्ति तथा अंग्रेज़ी के आधार पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के हिमायतियों ने यह दलील दी कि हिंदी के कारण देश के टुकड़े हो जाएंगे। अतः अंग्रेज़ी को विकल्प के रूप में रखा जाना अपरिहार्य है। क्या सचमुच ऐसा है? इसका अखिल भारतीय स्तर पर अध्ययन किया जाना चाहिए और उस अध्ययन के आधार पर संविधान में संशोधन करके अनिश्चितता समाप्त की जानी चाहिए। हिंदी ब्लॉगर बंधुओं का आह्वान करता हूं कि राजभाषा के बारे में भी चिंतन करें और जनमत तैयार करें ताकि संविधान संशोधन का रास्ता प्रशस्त हो। संविधान में कर दिए गए अनिश्चतता के प्रावधान के प्रति अंग्रेज़ीदाँ की विगलित मानसिकता ही ज़िम्मेदार है। इस मानसिकता के निवारण हेतु सामाजिक स्तर पर कार्य किया जाना चाहिए। 

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