बुधवार, मई 04, 2011

शब्द साहचर्य – सहप्रयोग की संकल्पना


जब हम वाक्य की रचना करते हैं तो उसमें शब्दों को एक नियत क्रम में रखकर ऐसी संरचना तैयार करते हैं ताकि हमारा संदेश हमारी इच्छा के अनुसार पाठक या स्रोता तक पहुंचे और वह अपने संचित भाषा ज्ञान, शब्दों के परंपरागत अर्थ के आधार पर उसकी व्याख्या करके वही भाव व अर्थ ग्रहण करे जो हम चाहते हैं। वाक्य में प्रयुक्त शब्द या तो अकेले ही अर्थ देने में सक्षम होते हैं अथवा अपने पूरक शब्दों के साथ प्रयुक्त होकर पूर्ण अर्थ की अभिव्यक्ति करते हैं। वे पूरक शब्द किसी संज्ञा के विशेषण अथवा क्रिया के विशेषण के रूप में प्रयुक्त होते हैं। कुछ शब्द किसी भी शब्द के साथ अधिक मुक्त रूप से पूरक बनकर प्रयोग में आ सकते हैं, जैसे, अच्छा, बुरा, सुंदर आदि तो कुछ शब्द कुछ विशेष शब्द के साथ ही सहगामी के रूप में ही प्रयुक्त होते हैं। ऐसे शब्दों के प्रयोग को सहप्रयोग की संज्ञा दी जा सकती है, जैसे, कँपकँपाती ठंड, चिलचिलाती धूप, चमड़ी उधेड़ देने वाली गरमी, प्रकांड विद्वान, बासी रोटी आदि। हम "कँपकँपाती धूप" या "चिलचिलाती ठंड" का प्रयोग नहीं कर सकते। इस प्रकार के प्रयोगगत शब्द भाषा में प्रायः एक दूसरे के सहगामी होते हैं और ऐसे प्रयोग पर एक विशेष प्रकार प्रतिबंध होता है। हालांकि इन प्रतिबंधों का संबंध किसी व्याकरणिक नियम के अधीन नहीं होता है फिर भी प्रवृत्ति से ऐसा प्रयोग स्वाभाविक और अच्छा माना गया है। शब्दकोशीय भाषा में इसे "शब्द का अर्थ-क्षेत्र" और "सहप्रयोग की संकल्पना" के नाम से जाना जाता है। (जे.आर. फ़र्थ (1957), ए सिनॉपसिस ऑफ़ लिंग्विस्टिक थियरी)।
ऐसे दो या अधिक शब्द जिनके अर्थों के कुछ लक्षण समान हों, अर्थ क्षेत्र का निर्माण करते हैं। इन्हें पर्याय के रूप में भी देखा जाता है परंतु कोई भी दो शब्द समानार्थी नहीं होते हैं बल्कि उनमें कुछ लक्षण समान होते हैं। इसीलिए इन्हें अलग-अलग तरह से भी प्रयोग में लाया जा सकता है। ऐसे शब्दों का ही दूसरा आयाम है "आर्थी आयाम" जिसे "सहप्रयोग" कहा जाता है। यह आर्थी आयाम विरुद्धार्थक संबंध (विलोम, जैसे,  दिन रात ), प्रतिलोम संबंध (गुरु शिष्य), जाति-सदस्य संबंध (भेड़ बकरी), अंगांगी संबंध (हाथ पांव), पर्याय/आंशिक पर्याय संबंध (छलकपट धोखा), योजक शब्द (चूंकि...इसलिए) आदि संबद्ध शब्द के रूप में होते हैं। अतः भाषा शिक्षा के समय ही इन शब्दों के प्रयोग तथा इनके आर्थी आयाम के बारे में सोदाहरण स्पष्ट करना चाहिए, जैसे, किसी वाक्य की शुरुआत "चूँकि" शब्द से की जाए तो उसे अगले वाक्यांश को "इसलिए" शब्द से ही जोड़ा जाए किसी और से नहीं। इसी प्रकार "हालाँकि-फिर भी", "यद्यपि-तथापि" आदि की प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर शब्दों का प्रयोग किया जाए तो न केवल वाक्य का सौष्ठव बढ़ेगा बल्कि वाक्य में प्रवाह के साथ भाषा का लालित्य भी बढ़ेगा।
हिंदी भाषा में इस प्रकार प्रयोगों के बारे में कोई अनुसंधान नहीं हुआ है। अंग्रेज़ी भाषा या अन्य भाषाओं के संबंध में ऐसे अध्ययन हुए हैं। हिंदी के शोधकर्ताओं को आगे आना चाहिए और इस बारे में अनुसंधान करके हिंदी भाषा को समृद्ध करना चाहिए।
 -डॉ. दलसिंगार यादव
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सोमवार, मई 02, 2011

वाक्य संरचना के संदर्भ में काल और वृत्ति विचार

कार्य के घटित होने का समय प्रदर्शित करने के रूप को "काल" कहते हैं। "काल" का सामान्य अर्थ "समय" है। व्याकरण में "काल" क्रिया के उस रूपांतर या व्याकरणिक रूपांतर को कहते हैं जिससे क्रिया के घटित होने के समय का पता चलता है। कामता प्रसाद गुरु के अनुसार (हिंदी व्याकरण, 1946:221) "क्रिया के उस रूपांतरण को काल कहते हैं जिससे क्रिया के व्यापार का समय तथा उसकी पूर्ण अथवा अपूर्ण अवस्था का बोध होता है। डॉक्टर सूरजभान सिंह का विचार (हिंदी का वाक्यात्मक व्याकरण,  1985:349) है कि "काल (टेंस) और समय (टाइम) के बीच अंतर समझना होगा। "काल" व्याकरणिक कोटि है जिसकी सत्ता व्याकरण से बाहर नहीं है। "समय" लौकिक कोटि है जिसका संबंध जगत से है। समय अनादि और अनंत है जिसका खंड नहीं हो सकता है। तथापि वक्ता या लेखक की दृष्टि से "समय" के तीन भाग कल्पित किए जा सकते हैं जिसमें वक्ता या लेखक बोलता हो या लिखता हो उसे "वर्तमान काल" उसके पहले का समय "भूतकाल" और बाद का समय भविष्य कहलाता है। इन तीनों कालों का बोध क्रिया के रूप से होता है। इसलिए क्रिया के रूप भी काल कहलाते हैं, जैसे, "वह जा रहा है" से यह पता चल पाता है कि क्रिया वर्तमान काल में घटित हो रही है। "वह जाएगा" से क्रिया के भविष्य काल में घटित होने का पता चल रहा है और "वह गया" से क्रिया के वर्तमान से पूर्व घटित हो चुकने की सूचना मिलती है। "काल की इन अवस्थाओं को क्रमशः वर्तमान काल, भूत काल और भविष्य काल कहा जाता है।

वाक्य रचना के दृष्टिकोण से काल (वर्तमान काल, भूत काल और भविष्य काल) के और विभाजन संभव हैं। परंतु इन वाक्यों पर ध्यान दें –

 

अगर वह आता तो मैं उसके साथ ज़रूर जाता (शर्त)।

अगर आपने पहले कहा होता तो काम ज़रूर हो जाता (शर्त)।

काश! वे भी इस वक्त यहाँ होते (इच्छा)।

काश! मैं भी आपके साथ गया होता (इच्छा)।

मैं चाहता हूं कि आप भी मेरे साथ चलें (इच्छा)।

शायद, वह पास हो जाए (संभावना)।

भगवान आपको सफलता दे (कामना)।

कल अनुपस्थित न रहें (अप्रत्यक्ष आदेश)।

उससे कहिए जल्दी काम समाप्त करे (अप्रत्यक्ष आदेश)।

मैं कक्षा में आऊँ (अनुज्ञा याचना)।

शायद, वह यहीं रहता हो (नित्य संभावना)।

संभव है वह भी आ रहा हो (सातत्य संभावना)।

हो सकता है आपने भी खबर सुनी हो (पूर्ण संभावना)।

अगर बत्ती जल रही हो तो बंद कर देना (शर्त सातत्य)।

अगर का काम हो चुका हो तो बता देना (पूर्ण शर्त)।

मुझे ऐसा सहायक चाहिए जो काम से घबड़ाता न हो (शर्त नित्य)।

उसने ऐसा हड़कंप मचाया जैसे भूचाल आ गया हो (पूर्ण कल्पना)।

वह ऐसे बात करती है जैसे/मानो प्रभारी वही हो (कल्पना सातत्य)।

 

क्या इन वाक्यों से काल विभाजनों का पता नहीं चलता है। अतः भाषा में केवल "काल" के अनुसार वाक्य विन्यास या वाक्य रचना की शिक्षा दी जाती है तो मातृ भाषा से इतर भाषी व्यक्ति को भाषा सीखने में सफलता नहीं मिलेगी। इसी प्रकार हिंदी भाषा में भी केवल तीन काल बता देने से ही भाषा नहीं सिखाई जा सकती है बल्कि इसके लिए "वृत्ति" और "पक्ष" की भी शिक्षा दी जानी चाहिए। हिंदी भाषा की शिक्षा में आधुनिक शोध एवं प्रवृत्तियों को शामिल किया जाना चाहिए। इन वाक्यों को वृत्ति और पक्ष के अनुसार पढ़ाया जाना चाहिए। इन वाक्यों में प्रयुक्त क्रिया रूपों से क्रिया की प्रकृति का पता चलता है। क्रिया के जिस रूप से उसकी प्रकृति का पता चलता है उसे "वृत्ति" कहा जाता है। परंपरागत वैयाकरण "वृत्ति" को "अर्थ"  भी कहते थे जिससे किसी कार्य व्यापार या अवस्था के घटित या विद्यमान होने का बोध होता है। जिन वाक्यों से आज्ञा, इच्छा, संभावना आदि का बोध होता हो उन्हें "वृत्ति" या "प्रकार" कहा जाता है। इन्हें आज्ञार्थक वृत्ति (इंपरेटिव मूड), संकेतार्थक वृत्ति (इंडिकेटिव मूड) और संभावनार्थक वृत्ति ("सबजंक्टिव मूड) कहते हैं।  

-           डॉ. दलसिंगार यादव
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