शुक्रवार, दिसंबर 03, 2010

हिंदी की स्थिति भारत के राष्ट्रपति जैसी है और अंग्रेज़ी को प्रधानमंत्री की हैसियत प्राप्त

डॉ. नामवर सिंह ने 2007 में कहा था कि कभी-कभी लगता है कि भाषा के क्षेत्र में हिंदी की स्थिति भारत के राष्ट्रपति जैसी है और अंग्रेज़ी को प्रधानमंत्री की हैसियत प्राप्त है। हिंदी एक सम्मानजनक पद पर तो है, पर व्यवहार में दूसरे दर्ज़े पर है और सारे अधिकार अंग्रेजी के पास है। यह एक ऐसी हकीकत है जिसे बदलने का कोई तरीका फिलहाल दिखाई नहीं पड़ रहा। ऐसे में हमारा समूचा देश द्विभाषी होने के लिए अभिशप्त है। यह अभिशाप कब तक रहेगा, यह कोई नहीं बता सकता क्योंकि हिंदी को राजभाषा का वास्तविक दर्ज़ा जो दिला सकता है वही तो हिंदी की ख़िलाफ़त कर रहा है? हर विभाग के प्रमुख का यह दायित्व है कि वह हिंदी का प्रशिक्षण शीघ्रातिशीघ्र पूरा कराए और हिंदी का ज्ञान रखने वाले से हिंदी में काम कराए। चूंकि वह खुद हिंदी में काम नहीं करता है इसलिए किसी और से हिंदी में काम करने के लिए कहने का नैतिक साहस नहीं जुटा पाता है, न प्रधान मंत्री, न गृह मंत्री। ख़ुद मियां फ़ज़ीहत दीगरे नसीहत।    

गुरुवार, दिसंबर 02, 2010

एक शिक्षण संस्था की सच्ची दास्तान


मुझे पता है कि आपके पास समय नहीं है परंतु आपसे आग्रह है कि मेरी दास्तान पूरी पढ़ लें। यदि एक बार में समय न मिले तो दो बार में पढ़ें लेकिन अवश्य पढ़ें। मैं छह कमरों की एक इमारत हूं जो 1960 से वैसी ही हूं। बिना प्लास्टर, बिना सीमेंटेड फ़र्श, बिना लॉन, बिना वृक्ष, बिना पक्की सड़क। लोग मुझे स्कूल पुकारते हैं। स्कूल, जहां अध्यापक आते हैं, बैठते हैं, गपशप करते हैं, घर गृहस्ती की, अपनी तनख़ाह के बारे में बात-चीत करते हैं, स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की हाज़िरी लगाते हैं, बच्चों से फ़ीस जमा करने के निदेश देते हैं, प्रधानाचार्य के मिजाज़ के बारे में खोज खबर लेते हैं और चार बजते बजते घर चले जाते हैं। रामलौट कमरों के दरवाज़े बंद कर देते हैं और चाबी बड़े बाबू को देकर चले जाते हैं। अगले दिन सुबह आठ बजे आकर दरवाज़े खोल देते हैं और कल की ही भांति दिनचर्या शुरू होती है एवं समाप्त होती है।

मेरा परिसर बड़ा है और स्कूल के परिसर के अलावा मेरे पास पौने दो बीघा ज़मीन भी है। वह ज़मीन ग्राम पंचायत की ओर से मिली है ताकि उसका उपयोग करके मैं अपना भरण पोषण कर सकूं तथा अपनी हालत ठीक रख सकूं। लेकिन जैसा कि सभी गांवों में होता है मेरी ज़मीन ग्राम प्रधान की ज़ागीर बन गई है और वह वहां पर ईंट बनाने का काम करता है और जहां से चाहे खोदाई करके मिट्टी निकाल लेता है। मैं क्या करूं? मेरी रखवाली करने की ज़िम्मेदारी स्कूल की प्रबंध समिति की है परंतु मुझे तो मालूम ही नहीं है कि वह समिति कहां है और उसका मुखिया कौन है? स्कूल के अध्यापकों को तो अपने सिलेबस की ही जानकारी नहीं होती है तो किसी और के बारे में क्या जानकारी रखेंगे। अतः ऐसे ही 43 साल से चल रहा है परंतु है सब सामान्य। किसी प्रकार की कोई कठिनाई कभी नहीं आई। जब निरीक्षण वगैरह की बात आती है तो प्रधानाचार्य के रसूक की वजह से सब निपट जाता है। बच्चे इतने होशियार हैं कि पास भर के नंबर तो ले ही लेते हैं। उन्हें आगे चलकर कौन सा डॉक्टर इंजीनियर या वैज्ञानिक बनना है। जिन्हें बनना है वे कहीं और जाकर बनें। यहां तो शादी होने तक की गारंटी है। उसके बाद की पढ़ाई का क्या फ़ायदा है? स्कूल छोड़ने के बाद तो रोज़गार गारंटी योजना में जॉब कार्ड बन ही जाएगा क्योंकि प्रधान जी तो खोजते ही रहते हैं कि कोई नया आदमी मिले जिससे कार्डों की संख्या बढ़े और आमदनी बढ़े। हमें क्या? कोई भी व्यक्ति यदि बिना काम किए केवल दस्तख़त बनाकर 20-30 रुपए रोज़ पा जाता है तो इससे अच्छा और क्या हो सकता है? सरकार भी कितनी समझदार है कि लोगों को गांव में ही रोक लेती है, जनसंख्या बढ़वाती रहती है और चुनाव के समय वोट तो लेती है जलसा मोर्चा निकालना होता है तो एक दो बस भर कार्यकर्ता भी इकट्ठा मिल जाते हैं। इसी बहाने शहर की सैर कर लेते हैं।

सन् 1959-60 से 1961-62 तक एक विद्यार्थी था। घर का तो बहुत अच्छा नहीं था परंतु पढ़ने में अच्छा था। स्मरणशक्ति अच्छी थी और हिंदी, संस्कृत, गणित तथा अंग्रेज़ी विषयों में अच्छा प्रदर्शन करता था। यहां से निकलकर आगे की पढ़ाई जारी रखी और गांव का पहला पोस्ट ग्रेजुएट और डॉक्टोरेट करने वाला व्यक्ति रहा। उसके बाद तो अब लगता है कोई पढ़ने के विचार से आता ही नहीं। वह कभी कभी स्कूल में आता रहता है स्कूल के ख़सता हाल पर दुःख भी व्यक्त करता है और चाहता है कि आठवीं से आगे की कक्षाएं भी खुलें और साइंस की पढ़ाई शुरू हो। परंतु अध्यापक और प्रबंध समिति इसे हाई स्कूल नहीं बनाना चाहते क्योंकि स्कूल स्तर बढ़ने के साथ ही स्कूल का प्रबंध उनके हाथ से तो निकल ही जाएगा साथ ही सरकारी सहायता मिलना बंद हो जाएगी और अध्यापकों की तनख़ाह अपने संसाधनों से ही जुटाना होगा जिसके लिए बहुत प्रयास और श्रम की ज़रूरत होगी। वर्तमान छात्रों से मिलने वाली फ़ीस से तो खर्चा निकलना असंभव है। अतः कौन ज़हमत उठाए? जैसा चल रहा है चलने दिया जाए। अपनी तनख़ाह तो मिल ही रही है। जब गांव के मानिंद लोगों और अपने बच्चों को पढ़ाने वालों को ही किसी प्रकार की चिंता नहीं है तो हमें क्या? जैसे 43 साल खड़ी हैं आगे भी कट ही जएगी। अजी, किस किस को कोसिए, किस किस को रोइए; आराम बड़ी चीज़ है मुंह ढंक कर सोइए।

क्या रुपए का नया प्रतीक क्षेत्रीयता का परिचायक है?