बुधवार, सितंबर 15, 2010

पर उपदेश कुशल बहुतेरे

'कथनी मीठी खांड़ सी करनी विष की लोय, कथनी तज करनी करै तो विष अमृत सा होय।' 'चोर कुतिया जलेबी की रखवाल।' कबीर की यह उक्ति और यह देसी कहात, ये दोनों ही बातें हमारी केंद्र सरकार के आचरण को चरितार्थ करती हैं। हिंदी दिवस के अवसर पर, देश में राजभाषा हिंदी के प्रचलन को सुनिश्चत करने वाले मंत्रालय के प्रमुख, गृह मंत्री चिदंबरम जी का संदेश महज औपचारिकता और विरोधाभास के और कुछ भी नहीं है। लोगों से कहना,'विकास योजनाओं पर असरदार ढंग से अमल करने के लिए जनता को इनकी जानकारी उसकी भाषा में ही उपलब्ध कराई जानी चाहिए। हिंदी रोज़गार और व्यापार की भाषा के रूप में तेज़ी से विकसित हो रही है और कंप्यूटर में इसके इस्तेमाल से इसकी प्रगति को और बढ़ावा मिलेगा।' परंतु स्वयं अंग्रेज़ी में ही भाषण दिया। लगभग पिछले दो दशकों से भी ज़्यादा समय से केंद्र की सत्ता में भागीदार हैं और महत्वपूर्ण मंत्रालय के प्रमुख रहे हैं। परंतु हिंदी का एक भी शब्द बोलने से परहेज करते हैं। क्या बताएंगे कि जनता से कैसे मिलते हैं या बात करते हैं? क्या सारी जनता अंग्रेज़ी भाषा में ही अपनी तकलीफ़ बयान करती है? या जनता से मिलते ही नहीं हैं। क्या इतने वर्षों में मंत्री होने था दिल्ली में रहने बावज़ूद हिंदी में पांच मिनट का भाषण देना इतना मुश्किल है? यदि हिंदी में भाषण देना मुश्किल है तो तमिल में भाषण देना भी मुश्किल है? नहीं चिदंबरम जी, आप तमिल जनता के प्रति भी ईमानदार नहीं हैं। वरना अब तक संसद में तमिल में भी बयान दिए जाते और तमिल भाषी व्यक्तियों को उत्तर भारत में या कहीं भी जाकर काम करने या रोज़गार की तलाश करने में कोई कठनाई नहीं होती। क्या सारी तमिल जनता अंग्रज़ी में पारंगत है? कब तक देशप्रेम और क़ाबिलियत का ढोंग करते रहेंगे?

क्या रुपए का नया प्रतीक क्षेत्रीयता का परिचायक है?