सोमवार, अगस्त 15, 2011

धर्मो रक्षति रक्षितः

मैं धर्म जैसे विवाद ग्रस्त बन गए विषय पर नहीं लिखना चाहता था क्योंकि धर्म बेहद निजी मामला है। हर व्यक्ति स्वतंत्र है कि वह धर्म माने या न माने या किस धर्म को माने? मेरा अपना विचार है। परंतु अपने ब्लॉगर साथी संदीप पँवार (जाट देवता) के सुझावानुसार विवादित विषय पर अपने विचार व्यक्त कर रहा हूँ।
मैं दर्शन शास्त्र का विद्यार्थी रहा हूँ। साथ ही साहित्य का भी। साहित्य और दर्शन का अटूट संबंध है, गिरा अर्थ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न (वागार्थाविव संपृक्तौ वंदे वाणी विनायकौ)। अर्थात्, जैसे वाणि का अर्थ के साथ और लहर का जल के साथ अभिन्न संबंध होता है। साहित्य सच्चा इतिहास बताता है, साहित्य समाज का सच्चा दर्पण है बशर्ते कि उसका ढंग से अध्ययन किया जाए। साहित्य में व्यक्त दर्शन जीवन दर्शन होता है। जीवन दर्शन जो धर्म सिखाता है वही सच्चा धर्म है। धर्म अनुष्ठान और पूजा स्थलों में जाकर प्रदर्शन धर्म नहीं है।
दर्शन शास्त्र में सदैव सुपर पावर, सुपर नेचुरल पावर, उसके अस्तित्व, उसकी व्यवस्था और उसके नैसर्गिक न्याय (नेचुरल जस्टिस) के बारे में तार्किक चर्चा की जाती है। वहाँ आस्था और श्रद्धा की बात नहीं की जाती है। वहाँ तर्क शास्त्र के सिद्धातों के आधार पर सत्य और असत्य की खोज की जाती है। उसी सत्य असत्य की खोज में ऋषि मुनि अपना जीवन अर्पण कर देते थे और पूरे जीवन के सत्व को कुछ सूत्रों और नियमों के रूप में हमें दे जाते थे। अतः उन नियमों को हमने अपने जीवन में उतारने के लिए कुछ संकल्प (रिज़ालूशन) पारित किए – सामाजिक संसद में और उन्हें मानना या उनका पालन करना अपना धर्म माना। इस प्रकार ऋषि मुनियों या निःस्वार्थ भाव से मानव की भलाई के लिए जीवन उत्सर्ग करने वाले लोगों द्वारा किए जाने वाले अनुसंधानों से नए संकल्प (रिज़ालूशन) पारित होते रहे और धर्म का दायरा बढ़ता गया। मनुस्मृति की रचना करने वाले मनु देव ने कहीं भी मंदिर की, टेस्टमेंट की रचना करने वाले ने किसी चर्च की, कुरान-ए-पाक में कहीं पर अंध सिद्धांत, गुरुवाणी के रचयिता ने सस्वर पाठ मात्र कर देने से कर्तव्य की इतिश्री नहीं मानी है। सभी ने उन सिद्धांतों को जीवन में उतारने का ही उपदेश दिया है। इसका मतलब है कि सत्य निष्ठा से लोक हित में सही कर्तव्य (राइट ड्यूटी) करना ही धर्म माना गया है। उसमें सामाजिक समरसता और सौहार्द्र के अलावा कहीं पर भी वैमनस्य की बात नहीं कही गई है। फिर धार्मिक (आजका) उन्माद, खून ख़राबा किस लिए?
दर्शन में सदैव व्यक्ति (इंडिविजुअल) के जीवन का विश्लेषण किया जाता है और उसी के उन्नयन की बात की जाती है क्योंकि व्यक्ति (इंडिविजुअल) के उन्नयन से ही समाज का उन्नयन होगा। व्यक्ति (इंडिविजुअल) के पतन से समाज का पतन होगा। यह बात भारतीय और पाश्चात्य दोनों दर्शनों में समान है। शायद यही कारण है कि पूरे विश्व में मानव की सोच एक जौसी है। फ़र्क सिर्फ़ देशकाल की परिस्थितियों, भाषा और संस्कारों के कारण है। इसीलिए धर्म के अंगों में – धृति, क्षमा, बुरी भावना का दमन, शुचिता, इंद्रियों का निग्रह, धैर्य, विद्या आदि को माना गया है और यह बात सार्वजनीन (यूनीवर्सल) है। इनकी प्राप्ति के लिए यम, नियम, योग, नमाज़, आसन आदि बनाए गए। इनके अपभ्रंश की वजह से अनेक संप्रदाय (सेक्ट, रिलिजन) अस्तित्व में आए और धर्म की सच्ची भावना व उद्देश्य से भटक कर कर्म कांड, मंदिर, मस्जिद, गुरद्वारा, चर्च और चैत्य गृहों के माया जाल में उलझ गए। ये पूजा स्थल प्रारंभ में सामूहिक रूप से इकत्रित होकर नियमों का श्रवण करने के लिए बनाए गए होंगे। ये अपना लक्ष्य खो चुके हैं। ये अब आमदनी और लोगों की भावनाओं को आधार बना कर धन का दोहन करने का ज़रिया बन गए हैं, यह बात जग जाहिर हो चुकी है। अब मूल भावना का वापस आना असंभव नहीं तो मुश्किल ज़रूर है। आज का व्यक्ति जितना अधिक शिक्षित हो रहा है उतना ही अधिक अंधविश्वासी होता जा रहा है। शायद असुरक्षित महसूस कर रहा है जिसकी वजह से अंधविश्वास के दलदल में धँसता जा रहा है और धर्म की भावना उसका सच्चा अर्थ भूल कर कर्मकांडों में फँसता जा रहा है। इसलिए धर्मो रक्षति रक्षितः की भावना का सच्चा अर्थ समझकर सामाजिक सौहार्द्र को कायम करने के लिए समाज अनुमोदित कर्म करना ही धर्म है।
**********

रविवार, अगस्त 14, 2011

जाति सूचक सरनेम - जातिवादी मानसिकता और जातिगत राजनीति

क्या जाति सूचक सरनेम समाप्त हो जाने से कोई ब्राह्मण अपना सर्वश्रेष्ठ होने का दंभ नहीं भरेगा? क्या कोई राजपूत अपनी हेकड़ी नहीं दिखाएगा? क्या कोई यादव अपने आपको क्षत्रियों से होड़ छोड़ देगा? कोई जाटव ब्राह्मणों की पाँत में बैठकर खाना खा लेगा? मेरा विचार है कि बिलकुल भी नहीं। बीमारी सरनेम में नहीं बल्कि मानसिकता में है। कुछ लोग खुद जातिवाद करेंगे परंतु दूसरों पर उँगली उठाएँगे। एक मंच पर पाँच ब्राह्मण होंगे तो किसी का ध्यान नहीं जाएगा लेकिन किसी अन्य जाति के पाँच लोग एकत्र हो जाएँगे तो लोगों का ध्यान तुरंत इस ओर जाएगा कि यह तो जातिविशेष का सम्मेलन है। कोई जाट नेतृत्व करता है तो उसे जाट नेता कहा जाता है। सुशील कुमार शिंदे अनुसूचित जाति के नेता हैं परंतु ममता बनर्जी बंगाली नेता होते हुए भी राष्ट्रीय नेता हैं। राहुल गांधी तो पैदायशी राष्ट्रीय नेता है। मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, मायावती, अजित सिंह, चौटाला कभी राष्ट्रीय नेता नहीं बन पाएँगे। कोई मुसलमान नेता होगा तो उस पर कौमी नेता का लेबल चस्पा हो हो जाएगा। क्यों? जाति सूचक सरनेम के कारण या जातिवादी मानसिकता और जातिगत राजनीति के कारण।
यह मानसिकता कुछ लोगों को उत्तर प्रदेश और बिहार में ज्यादा दिखती है। परंतु यह समस्या तो महाराष्ट्र में इससे भी ज़्यादा है। वहाँ पर तो जाति सूचक सरनेम नहीं लगाया जाता है। वहाँ पर भी सरनेम कोई हो परंतु दूसरों को यह पता लग ही जाता है कि यह कुनबी (कुर्मी) जाति का है, वह तेली समाज का है, वह अकोलकर है तो ब्राह्मण होगा, शिंदे लिखता है परंतु अनुसूचित जाति का है। महाराष्ट्र में 1,25,000 से भी अधिक सरनेम हैं जिनका जाति से कोई संबंध नहीं है फिर भी चुनाव के समय सभी को पता चल जाता है कि वह किस जाति का है और उसे उसी ढंग से वोट मिलते हैं। अतः खामी सरनेम में नहीं बल्कि मानसिकता में है और वह बदलना असंभव नहीं तो दुष्कर ज़रूर है।
मैं उत्तर प्रदेश का हूँ और एम.ए. तक की पढ़ाई तक का समय वहीं बीता। बाद में केंद्र सरकार की सेवा में आया और पहली पोस्टिंग करनाल (हरियाणा) में हुई। जाट बहुल क्षेत्र। वहाँ पर कॉमन टाइटिल सिंह होती है। क्षेत्रों के आधार पर कोई बेनीवाल, अहलावत, कोई महिवाल, सोनवाल, बागड़ी आदि लिखता है। फिर भी लोगों को पता चल ही जाता है कि जाट है और वह अनुसूचित जाति का है। मेरे कई परिचित हरियाणे से हैं जो अच्छे पढ़े लिखे, बुद्धिमान, सुंदर, सुशील हैं और कोई कुमार लिखता है, कोई बागड़ी लिखता है। हम सब साथ खाना खाते हैं, काम करते हैं परंतु कभी सामाजिक रस्मो रिवाज़ की बात आती है तो लोग उन्हें अलगा ही देते हैं और तथा कथित ऊँची किनबड़ी धूम धाम से मनाते हैं परंतु धार्मिक अनुष्ठानों में स्वजातीय को ही शामिल करते हैं।
उत्तर भारत में आप अच्छे कपड़े पहने हों और सहयात्री आपसे नाम पूछे और आप अपना नाम सुरेंद्र कुमार बता दें तो पूछेगा कि पूरा नाम क्या है? यानी आपकी जाति क्या है? यदि आपने कहा कि मेरा पूरा नाम यही है तो उसे तसल्ली नहीं होगी। आपके पिता जी का नाम पूछ लेगा। मतलब यह कि आपकी जाति पूछ कर ही दम लेगा। उसे आपकी जाति से क्या लेना देना? परंतु यहाँ की मानसिकता ऐसी है कि आपकी जाति पूछने के बाद दलगत, जातिगत और धर्मगत उधेड़ बुन शुरू होगा। यदि आप उसके पक्ष के न हुए तो आपसे अपने जातिगत प्रछन्न विद्वेष के कारण आपकी जाति के नेता की बुराई करेगा, चाहे आप उस नेता के समर्थक हों या न हों।
एक बार मैं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय के कुलपति त्रिभुवन नारायण सिंह के पास प्रस्ताव लेकर गया था कि मैं राजभाषा विकास परिषद के तत्वावधान में, "हिंदी की सांविधिक स्थिति और सरकार की उदासीनता" विषय पर अखिल भारतीय संगोष्ठी करना चाहता हूं। इस काम में विश्व विद्यालय से कुछ सहायता करा दें क्योंकि परिषद के पास धन नहीं है। उन्होंने तुरंत कहा विश्व विद्यालय के पास निधि तो नहीं है कोई और मदद चाहें तो हम हाज़िर हैं, मतलब यह कि उद्घादटन के लिए या भाषण के लिए आ सकते हैं। बातचीत के दौरान मैंने कहा कि केंद्र सरकार की उदासीनता के कारण कार्यालयों में हिंदी की दुरवस्था के बारे में कुछ कहना शुरू किया तो उन्होंने तुरंत मुलायम सिंह का नाम लेकर सारा दोष उनके सिर पर मढ़ दिया और मुझे एहसास दिला दिया कि आप यादव हैं और आप भी बराबर के दोषी हैं। आई.ए.एस., आई.पी.एस. परीक्षाओं के माध्यम की दुहाई देने लगे। क्या उन्हें मालूम नहीं है कि यू.पी.एस. की सभी परीक्षाओं के लिए हिंदी माध्यम उपलब्ध है? विश्व विद्यालयों में भी उच्च शिक्षा हिंदी या क्षेत्रीय भाषओं में दी जाती है। परंतु अंग्रेज़ी मानसिकता के पोषक प्राध्यापकों को अंग्रेज़ी में लिखित ग्रंथों को पढ़कर पढ़ाना आसान लगता है। वे हिंदी में पुस्तकें नहीं लिखते हैं और न ही पढ़ने के लिए सिफ़ारिश करते हैं इसीलिए हिंदी में लिखी गई स्तरीय पुस्तकें नहीं मिलती हैं। अब अच्छी पुस्तकें नहीं मिलेंगी तो खरीदने वाले भी कम ही होंगे। क्या इसके लिए जातिवादी सरनेम दोषी है? अतः जातिवादी सरनेम समाप्त हो जाने पर भी जातिवाद समाप्त नहीं होगा जब तक कि मानसिकता और जातिगत राजनीति नहीं समाप्त होगी।
*******

क्या रुपए का नया प्रतीक क्षेत्रीयता का परिचायक है?