गुरुवार, जुलाई 01, 2010

हिंदी बनाम तमिल

यद्यपि दि टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने 29 जून 2010 के अंक में करुणा निधि के बयान को संकीर्णवाद बताकर उसे रोकने का आह्वान किया है परंतु अंग्रेज़ी की वकालत करके इसने भी वही संदेश दिया है जोकि करुणा निधि ने दिया है। करुणा निधि का कहना है कि तमिल को भारत की राजभाषा घोषित किया जाए, संकुचित तथा हिंदी के प्रति प्रच्छन्न विद्वेष प्रतीत होता है। करुणा निधि, बाल ठाकरे, राज ठाकरे का दायरा बहुत संकरा है। उनकी सोच बहुत संकुचित और अपने घरों की हदों तक ही सीमित रही है। परंतु उन्हीं के क्षेत्रों से आने वाले नेता जिनकी सोच व्यापक व सकारात्मक है वे भाषा को छुद्र राजनीति का ज़रिया नहीं बना रहे हैं। अतः करुणानिधि की सोच का जीवन अब बहुत कम बचा है। यह मसला अगली पीढ़ी के लोग सुलझा लेंगे।
2. जब तमिल भाषी व्यक्ति या बंगाली भाषी व्यक्ति तमिल अथवा बंगाली को भारत की राजभाषा घोषित करने की बात करता है और हिंदी का विरोध करता है तो यह न समझें कि वह तमिल/बंगाली या तमिल/ बंगाली भाषियों का हितैषी है। वह तो अपनी पुरानी और घटिया सोच सब पर लादना चाहता है क्योंकि पी. सुब्बारायन व सुनीति कुमार चटर्जी का विचार था कि "हिंदी को राजभाषा बनाए जाने का निर्णय करने से पहले विश्व विद्यालयों के विद्यार्थियों की राय ली जानी चाहिए थी।" (राजभाषा आयोग 1956 का प्रतिवेदन, पृष्ठ 263 (हिंदी संस्करण))। इस बारे में मैं पूछना चाहूंगा कि क्या अंग्रेज़ी को लादते वक्त किसी से पूछा गया था?
नई पीढ़ी और व्यापक सोच वाले लोग आगे आ रहे हैं। वे इसे नकार देंगे और संकुचित सोच वाले नेताओं की राह पर नहीं चलेंगे। वे देश की राजभाषा का सम्मान करेंगे और देश के हित में उसका उपयोग करना एवं कराना चाहेंगे। देश के तथा कथित देशप्रेमी नेताओं को सीख देना पत्थर सिर टकराने के बराबर है। चुनाव में वोट मांगने, दिल्ली में सत्ता की गद्दी पर बैठने लिए हिंदी का सहारा लेना अच्छा लगता है परंतु विघटन के लिए हिंदी भाषा का हथियार सही नहीं है।
करुणा निधि की सोच को नकारते हुए एस. रामकृष्णसाई (यद्यपि दि टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने 01 जुलाई 2010) ने लिखा है कि तमिल का व्यापक इस्तेमाल नहीं है और न ही लोग इसे तमिल नाडु से बाहर के लोग बोलते अथवा समझते हैं। अतः यह भारत की राजभाषा नहीं बन सकती है। देश की एकता के लिए हिंदी को मान्यता मिलनी चाहिए। एस. रामकृष्णसाई जैसे ही अनेक तमिल भाषी लोग सोचते हैं परंतु अपने विचार व्यक्त करने की ज़हमत नहीं उठाते हैं या फिर जानबूझकर करुणा निधि की संकुचित सोच पर समय देना व्यर्थ समझते होंगे।

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