शुक्रवार, अगस्त 05, 2011

उत्तर प्रदेश में अदालतों की नाजायज़ वसूली और खुला भ्रष्टाचार

आम आदमी न्याय के लिए अदालत में जाता है और अदालत न्याय प्रशासन के लिए अपनी प्रक्रिया शुरू करती है परंतु उसका अंत नज़र नहीं आता और मुवक्किल वकील तथा अदालत की पेशी तथा वकील के बीच पिसता रहता है, कम से कम बीस पचीस साल तक। उस दौरान गवाह तक भगवान को प्यारे हो जाते हैं। मुकदमा करमे वाला तो अपने आपको कोसने लगता है कि कहाँ से मुसीबत को दावत दे बैठा?
इतना सब तो झेलने के बाद हर पेशी पर, अदालत में न्याय की गद्दी पर बैठे न्यायाधीश के सामने सरे आम न्यायालय की पुकार डालने वाला चपरासी, हर पुकार का रु.10/- मेहनताना माँगता है। उसकी आवाज़ की कीमत तो फ़िल्मों में डबिंग करने वालों की आवाज़ की कीमत से भी ज़्यादा प्रतीत होती है। पहले यह कीमत रु.5/- होती थी। परंतु बढ़ती मँहगाई के कारण इसने अपना मेहनताना भी बढ़ा दिया है और सरकार का अनुमोदन भी मिल गया है।
उत्तर प्रदेश में अदालतों में एक दिन में पचास से सौ तक मुकदमे अदालत में लगे होते हैं। जब कि एक दिन में सुनवाई के लिए पंद्रह से बीस मुकदमों से अधिक नहीं रखे जाने चाहिए। इस स्थिति में आधे से अधिक मुकदमों में पेशी पर कोई कार्यवाही नहीं हो पाती है। अदालत पुराने मुकदमों में कार्यवाही करती है और नए मुकदमों में पेशी बदल देती है। वकील को तो मेहनताना देना ही पड़ता है, कचहरी जाने आने का खर्च उठाने के साथ अन्य कृषि कार्य आदि में भी बाधा होती है।
क्या यह वकीलों और अदालतों की ज़्यादती नहीं है? जब मुकदमें में 20-25 साल लगने ही हैं और उससे पहले निर्णय नहीं होना है तो मुवक्किल को नाहक परेशान क्यों किया जाता है बार-बार तारीख देकर? क्यों नहीं एक मुकदमा उठाया जाए और उसे निपटा कर ही अगला मुकदमा लिया जाए चाहे इसके लिए एक दिन एक दो तीन मुकदमे रखे जाएँ? क्या यह मजबूर व्यक्ति से धन वसूलने का नाजायज़ तरीका नहीं है? क्या यह खुले आम भ्रष्टाचार नहीं है? क्या सरकार और भ्रष्टाचार को समाप्त कराने में लगी संस्थाएँ इस बारे में अपनी आवाज़ बुलंद करेंगी? क्या विधि मंत्रालय, उच्च अदालतें निचली अदालतों पर नज़र नहीं रख सकती हैं? मैं नहीं समझता कि ये कोई नए मुद्दे हैं परंतु इन पर नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता है।
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रविवार, जुलाई 31, 2011

इन्स्क्रिप्ट/हिंदी ट्रेडिशनल कीबोर्ड - ज़्यादा वैज्ञानिक और मान्य टाइपिंग ले आउट

इन्स्क्रिप्ट शब्द इंडियन + स्क्रिप्ट से बना है जिसका मतलब है मन्य, मानक भारतीय लिपियाँ। इन लिपियों में कंप्यूटर पर टाइपिंग करने या किसी इलेक्ट्रॉनिक युक्ति (डिवाइस) से लिखना (टाइप) करना। क्वेर्टी कीबोर्ड पर से भारतीय लिपियों में टाइप करने के लिए टाइप फ़ेस सेट किए गए थे। प्रारंभ में रेमिंगटन और गोदरेज कंपनियों ने टाइप राइटर बनाना शुरू किया इसलिए उन्होंने अपने नाम पर ही कीबोर्ड लेआउटों के नाम रखे, जैसे, रेमिंगटन और गोदरेज। आज भी इन्हीं नामों से लेआउट उपयोग में लाए जा रहे हैं परंतु जिस प्रकार क्वेर्टी कीबोर्ड के आविष्कारक, क्रिस्टोफ़र लोथम शोल्स (1868) ने लैटिन वर्णों को एक नियमबद्ध क्रम में नियत किया था भारतीय लिपियों में टाइप करने के लिए उस प्रकार की वैज्ञानिक रीति का अनुसरण न करके बेतरतीब कीबोर्ड बना दिया गया जिसे सीखने के लिए बहुत समय लगाना पड़ता था। इसके अलावा मेकैनिकल टाइप राइटर में 45 कुंजियों की सीमा होने के कारण शुद्धता से टाइप करना भी मुश्किल होता था।
कंप्यूटर के आगमन के बाद, विश्व की सभी भाषाओं, अंग्रेज़ी के सिवाय, के लिए अलग-अलग अनेक की बोर्ड बनाए गए जिनका आधार था क्वेर्टी कीबोर्ड। कंप्यूटर प्रौद्योगिकी में नित नए अनुसंधान तथा विकास के बाद जब कंप्यूटर का आगमन भारत में हुआ तो भारतीय भाषाओं में काम करने, पुस्तकें/पत्रिकाएँ प्रकाशित करने के लिए कंप्यूटर द्वारा उनके पाठ भारतीय भाषाओं में तैयार करने की आवश्यकता पड़ी। अतः पेजमेकर, वेचुरा, क्वार्क आदि प्रकाशन विशिष्ट सॉफ़्टवेयर उपयोग में लाए जाने लगे और उनमें एटीम फ़ॉन्टों का इस्तेमाल होने लगा जो पोस्ट स्क्रिप्ट फ़ॉन्ट होते थे। उसके बाद टीटीएफ़ फ़ॉन्टों का ज़माना आ गया और प्रकाशनों के लिए विभिन्न डिज़ाइन और आकार के फ़ॉन्ट बनाए गए। अंग्रेज़ी के लिए तो हर प्रकार के फ़ॉन्टों को मिलाकर कुल गिनती एक लाख तक पहुंच जाती है। फिर भी समस्या बनी रही क्योंकि वे फ़ॉन्ट गैर यूनीकोड फ़ॉर्मैट वाले थे जो अपने ही परिवेश में काम कर सकते थे। इसके बाद ज़माना आया यूनीकोड को। इसके बाद एक कंप्यूटर पर बना डॉक्यमेंट दूसरे कंप्यूटर पर पढ़ना संभव हो गया। लेकिन यूनीकोड आने के बाद लोगों की मानसिकता में परिवर्तन उस गति से नहीं आया जिस गति से आना चाहिए था। लोग अपनी ही शर्तों पर अंग्रेज़ी क्वेर्टी कीबोर्ड द्वारा ही भारतीय भाषाओं में टाइप करने की सहूलियत की माँग करने लगे और अपना माल बेचने की ग़रज़ू कंप्यूटर कंपनियों ने कीबोर्डों के अनेक लेआउट बना कर अराजकता की स्थिति पैदा कर दी। लोग नया सीखने के बजाय अपनी सहूलियत तथा शर्तों पर अड़े रहे जिसकी वजह से टाइपराइटर रेमिंगटन, टाइपराइटर गोदरेज, टाइपराइटर फ़ेसिट, टाइपराइटर (गेल), टाइपराइटर (सीबीआई), फ़ोनेटिक, ट्रांसलिटरेशन, ऐंग्लोनागरी, कृतिका देवनागरी, हिंदी वेबदुनिया, दैनिक जागरण आदि लेआउट बन गए। अतः अपनी डफ़ली अपना राग, एक विकराल समस्या जिसका समाधान आसान नहीं दिखता है।
इतने पर ही समस्या का सृजन स्थगित नहीं हुआ। सभी वेबसाइटों के निर्माताओं ने अपने उत्पाद को लोकप्रिय बनाने तथा प्रचलित करने के लिए अपने-अपने टाइपिंग टूल बना दिए और अपने एडिटर में जोड़ दिए। नतीज़ा यह हुआ कि यदि उनके सिस्टम में कोई खराबी आ जाए तो उसका उपयोग करना संभव नहीं होता है जैसा कि अभी गूगल के ब्लॉगर के साथ हुआ और जो लोग उसके आदती थे उनके लिए हिंदी टाइपिंग असंभव हो गया। इसके विपरीत जो लोग आईएमई का प्रयोग करते थे या इन्स्क्रिप्ट में टाइपिंग करते थे उनके लिए कोई कठिनाई नहीं हुई। अतः भारतीय भाषाओं में यूनीकोड में टाइपिंग के लिए सबसे अच्छा और स्वयंपूर्ण लेआउट हिंदी ट्रेडिशनल या इन्स्क्रिप्ट है।
इन्स्क्रिप्ट लेआउट 1986 में सीडैक द्वारा भारत सरकार के निदेशानुसार मानकीकृत किया गया था और 2008 में, सभी भारतीय भाषाओं के लिए समान और विस्तारित लेआउट बना दिया गया है जिसमें काम करना बहुत आसान और याद करना भी उतना ही आसान है क्योंकि यह एक निश्चित नियम पर आधारित है। यद्यपि इसे और सरल और वैज्ञानिक बनाया जा सकता है जो हिंदी की वर्णमाला के अनुरूप हो तथा प्रमुख विराम चिह्न एवं स्पेशल चिह्न, जैसे, !@#$%^* ?/। और संख्याएँ 1234567890 अंग्रेज़ी मोड में गए बिना ही टाइप किए जा सकें। ऐसा प्रयास राजभाषा विकास परिषद द्वारा किया गया है परंतु इसे भारत सरकार का समर्थन मिलना और इन्स्क्रिप्ट में इसके अनुसार संशोधन करना राजभाषा विभाग की सोच तथा कार्रवाई पर निर्भर करता है। फिर भी आज की तारीख में सबसे ज़्यादा वैज्ञानिक और मान्य टाइपिंग ले आउट इन्स्क्रिप्ट/हिंदी ट्रेडिशनल है और इसे अपनाने की ज़रूरत है।
इसके लिए टाइपिंग की मदद हेतु ऑन स्क्रीन कीबोर्ड की व्यवस्था है जिसका उपयोग किया जा सकता है – Start>All Programs>Accessaries>Accesbility>on-screen keyboard ।
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क्या रुपए का नया प्रतीक क्षेत्रीयता का परिचायक है?