गुरुवार, अक्तूबर 04, 2012

वोट के लिए हिंदी ही काम आएगी

जब आंदोलन की बात आती है और करोड़ों लोगों से समर्थन माँगने की बात आती है तो हिंदी ही माध्यम बनती है। उसके बाद जब संसद में पहुँच जाते हैं तो हिंदी पर आँसू बहाने के सिवाय कुछ नहीं करते हैं हमारे नेता गण। नवीनतम उदाहरण है दिल्ली में ममता की रैली में बात करने के लिए जब ममता ने कहा कि मुझे हिंदी अच्छी तरह नहीं आती है तो कुछ उदारमना लोगों ने सुझाव दिया कि अपनी भाषा में बोलें। बड़ी अच्छी बात है कि किसी ने अंग्रेज़ी में बोलने की सलाह नहीं दी।
आज़ादी से पहले आंदोलन का माध्यम हिंदी हुआ करता था और लोग पूछते नहीं थे कि किस भाषा में बोलूँ। उस समय रवींद्रनाथ टैगोर गाँधी जी के पास गुजरात गए थे तो उनके सामने यह प्रश्न आया कि बंगला में बोलूंगा तो लोग मेरी बात पूरी तरह नहीं समझ पाएंगे और अंग्रेज़ी भाषा में बोलने से तो अच्छा है कि मैं बोलँ ही न। अतः मैं हिंदी में बोलूँगा और आप लोग मुझे समझेंगे। ममता जी ने भी ऐसा ही किया। एक और उदाहरण देना चाहूँगा। आनंदमठ उपन्यास में एक प्रसंग आता है कि बंगाल के एक क्रांतिकारी को पुणे के यरवड़ा जेल में भेजा गया। वहाँ पर पहले से ही तमाम क्रांतिकारी रखे गए थे। अतः वे लोग उससे बंगाल में आँदोलन के बारे में जानने को उत्सुक थे। परंतु उसकी समस्या थी भाषा। लेकिन लोगों ने कहा कि भले ही टूटीफूटी बोलो पर हिंदी में बोलो ताकि हम विभिन्न क्षेत्रों के लोग तुम्हारी बात समझ पाएँ। उस व्यक्ति ने हिंदी में सबको जानकारी दी। ममता ने भी एक मिसाल दी कि भारत में जनभाषा हिंदी ही है और उसी के माध्यम से जन संपर्क भी संभव है। ब्यूरोक्रैट, लंदन में पढ़ाई करके नेतागीरी करने वालों को फ़ाइलों पर लिखने के लिए अंग्रेज़ी की ज़रूरत भले ही पड़े परंतु जनता तो हिंदी ही चाहती है।
    

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