गुरुवार, दिसंबर 30, 2010

इसका हिंदी से संबंध नहीं है परंतु सामज से है और हिंदी समाज की वाहिका-लायबिलिटी अर्थात् ज़िम्मेदारी


सुप्रीम कोर्ट की महिला जज ने अपनी ज़िम्मेदारी को अंग्रेज़ी में लायबिलिटी क्या कह दिया कि बवाल मच गया। अंग्रेज़ी के दुष्प्रभाव का एक और उदाहरण। क्या सुप्रीम कोर्ट की महिला जज को समाज की सच्चाई व्यक्त करना ग़लत है। कानून प्रशासन ही ऐसा व्यवसाय है जिसमें समाज के हर प्रकार के व्यक्तियों से साबका पड़ता है जिसकी वजह से कानून के व्यवसाय से जुड़े वकील और जज को समाज की ज़्यादा समझ होती है। जज को मालूम है कि अपनी किसी भी लड़की की शादी में 20-25 लाख से कम नहीं खर्च करना होगा। अतः उस खर्चे का प्रावधान करना होगा। प्रावधान करना है तो लायबिलिटी ही लिखना होगा। यही किया है महिला जज ने और समाज को आईना दिखा दिया है। अपना असली चेहरा देखकर समाज तिलमिला गया है। दहेज़ और मान प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए धन तो खर्च करना ही होगा वरना जज की क्या प्रतिष्ठा रहेगी और अच्छा रिश्ता कैसे मिलेगा। पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों की स्थिति  तो यही दर्शाता है कि लड़की दायित्व ही है, ताउम्र।

बुधवार, दिसंबर 29, 2010

'विश्व हिंदी दिवस' मनाने की प्रथा की शुरुआत


हर वर्ष कार्यालयों में हिंदी दिवस मनाया जाता है। यह सिलसिला 11 नवंबर 1953 में नागपुर में किए गए निर्णय के अनुसरण में 14 सितंबर 1954 से शुरू हुआ है और अनंत काल तक चलता रहेगा क्योंकि संविधान ने हिंदी को अंग्रेज़ी का स्थान लेने पर रोक लगा दी है और किसी भी एक राज्य को वीटो पावर दे दी है जब तक वह नहीं चाहेगा हिंदी अंग्रेज़ी का स्थान नहीं ले पाएगी। लेकिन हिंदी सेवी तो अपने कार्य में निरंतर लगे हुए हैं। इसी प्रकार नागपुर में ही 14 जनवरी 1975 को संकल्प पारित हुआ कि हर वर्ष 10 जनवरी को अंतरराष्ट्रीय हिंदी दिवस मनाया जाए। तब से हर साल विदेशों में, अपने दूतावासों में तथा अन्यत्र भी 'विश्व हिंदी दिवस'  मनाया जाता है। 37 देशों में हिंदी का प्रचलन हो चुका है और 110 विश्व विद्यालयों में हिंदी भाषा की शिक्षा दी जा रही है। परंतु हमारे देश के अनेक कार्यालयों में 'विश्व हिंदी दिवस' मनाने की प्रथा की शुरुआत अभी नहीं हुई है। इस पोस्ट द्वारा मैं सभी ब्लॉगर बंधुओं से अनुरोध करना चाहता हूं कि इस संदेश को यथा संभव प्रसारित किया जाए और आगामी 10 जनवरी को देश में तथा कार्यालयों में 'विश्व हिंदी दिवस' मनाने की प्रथा की शुरुआत हो।

हिंदुस्तानी की हिपॉक्रेसी


मेरे एक मित्र का मेल आया कि "आज लगभग सारी जनता अंग्रेज़ी का Happy New Year मनाने में अपनी शान समझ रही रही है और बड़े उत्साह से मना रही है परंतु वही जनता सन् की जगह संवत् में अपना भारतीय नव वर्ष नहीं मनाती है।" मैंने उन्हें जवाब में लिखा कि विचार बहुत अच्छे हैं और सराहनीय भी। परंतु यह हिंदुस्तानी की मुहिम चलाने वालों की हिपॉक्रेसी है। केवल इतना ही कर देने से हम अपनी संस्कृति छोड़ देंगे या इसका अनुसरण करते रहने से हम अभारतीय नहीं हो जाएंगे। क्या अब गार्गियन कैलेंडर को छोड़ा जा सकता है? भारतीयता तो हमारे जीवन में रची-बसी है। अंग्रेज़ बहुत कुछ छोड़ गए हैं, क्या हमने उन सब का त्याग कर दिया है? क्या हमने उन समस्त बातों और उत्पादों को त्याग दिया है जिसे अंग्रेजों ने विरासत में हमें दी थी? मैं क्या उदाहरण दूं आप स्वयं इस पर ग़ौर करें और सोचें कि मात्र नव वर्ष न मनाने से हमारे परिवार में खुशी की लहर दौड़ जाएगी? मेरा विचार तो है कि जहाँ तक हो सके उन बुराइयों को छोड़ने की कोशिश करें जोकि हमें अंग्रेज़ों ने दी है। सार-सार को गहि रखैं, थोथा देंय उड़ाय। हमारा समाज अंग्रेज़ों की सबसे बड़ी खामी अंग्रेज़ी भाषा ही नहीं छोड़ रहा है जिसकी वजह से समाज में खांई बन गई है। पढ़ा लिखा इंसान गांव वालों को कमतर आंकता है और पढ़ लिखकर गांव से निकलता है तो फिर वापस गांव जाता ही नहीं। आप और मैं गांव के हैं। हमारा मन तो आज भी गांव में बसता है। अपनी बचत का तीन चौथाई गांव में खर्च कर रहे हैं। अतः न संस्कृति भूलेगी न छूटेगी। अब तो ऐसा दौर आ गया है कि गांव के लोग भी अपने बच्चे को गांव में नहीं रहने देना चाहते हैं और अपनी भाषा के बजाय अंगेरज़ी के मोहजाल में उलझा हुआ है।

क्या रुपए का नया प्रतीक क्षेत्रीयता का परिचायक है?