शनिवार, अप्रैल 23, 2011

दूरदर्शन व आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारणों की हिंदी भाषा- कठिनता और समझ में आने के आरोप और परख की कसौटी



समस्या का निरूपण

दूरदर्शन व आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण से हमारा आशय अखिल भारतीय जनता के लिए प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों से है चाहे, चाहे वे समाचार हों या धारावाहिक या अन्य कार्यक्रम। इस लेख में दूरदर्शन या आकाशवाणी के अखिल भारतीय स्वरूप के सभी हिंदी कार्यक्रमों की चर्चा करना संभव नहीं है। इसलिए हम अपनी चर्चा राष्ट्रीय प्रसारण के अंतर्गत प्रसारित हिंदी समाचारों तक ही सीमित रखेंगे।
दूरदर्शन और आकाशवाणी पर कभी शुद्धतावादी होने का आरोप लगता है तो कभी अंग्रेज़ी के अतिशय मिश्रण के कारण और शुद्धतावादी होने का आरोप लगाया जाता है। सभी यह चाहते हैं कि आकाशवाणी तथा दूरदर्शन उनके स्तर की भाषा का प्रयोग करें। परंतु दूरदर्शन या आकाशवाणी किस-किस के स्तर पर उतरे या चढ़े? अतः इनकी भाषा की सरलता का प्रश्न बराबर उछाला जाता है।  
यदि हिंदी सरल होती तो उसको अति सरल करने का प्रश्न ही नहीं उठता। अतः मुद्दा यह है कि आकाशवाणी या दूरदर्शन की हिंदी सरल नहीं है। यह आरोप अक्सर लगता है हिंदी प्रचारकों, हिंदी अधिकारियों तथा हिंदी के प्राध्यापकों के सिवाय कार्यालयों में कार्य करने वाले अन्य लोगों की राय है कि कार्यालयी हिंदी, दूरदर्शन की हिंदी या आकाशवाणी की हिंदी क्लिष्ट, दुर्बोध तथा सिर के ऊपर से निकलने वाली बंपर हिंदी होती है। अतः लोगों का सुझाव है कि हिंदी 'सरल' और 'सुबोध' हो।
परंतु सरलता और सुबोधता को कोई भी परिभाषित नहीं करता है। यदि वे लोग अपने कथन के बारे में ज़्यादा स्पष्ट होने का बहुत प्रयास करते हैं तो यह कह देते हैं कि शब्द बड़े कठिन हैं। शब्द ऐसे होने चाहिए जो आम लोगों की समझ में आ जाएँ। उनकी समझ में सिर्फ़ शब्दों के सरलता ही सरल हिंदी का मापदंड है। सम्भवतः वे भाषा की बाह्य संरचना की बात करते हैं। आंतरिक संरचना के बारे में वे शायद गंभीर नहीं होते हैं तो फ़िर फ़ैशन के तौर पर हिंदी को कठिन बताकर उन पंडितम्मन्य लोगों की श्रेणी में शामिल हो जाते हैं जिन्हें हिंदी का ज्ञान न होते हुए भी ही शब्द संरचना तथा वाक्य विन्यास जैसे भाषा वैज्ञानिक पहलुओं पर आधिकारिक विचार व्यक्त्त करने का स्वाधिकार प्राप्त है। हिंदी पर कठिनता के नाम पर निरंतर प्रहार होता रहता है। जो लोग हिंदी नहीं जानते वे इस बात के निर्णायक बन बैठते हैं कि भाषा 'सरल', 'सुबोध' है या नहीं।
मैं आप लोगों को दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले समाचारों की भाषा के बारे में, लोगों के इस दुराग्रह का तर्क संगत ढंग से परीक्षण करने के लिए आमंत्रित करता हूँ। परंतु उससे पूर्व कुछ तथ्य सामने रखना चाहूँगा।
विकासात्मक तथ्य
आकाशवाणी की भाषा, जब दूरदर्शन नहीं था, पर शुरू से यह प्रहार होता रहा है। देश में आकाशवाणी की शुरुआत 1927 में जबकि देश परतंत्र था और सर्वत्र अंग्रेज़ों का साम्राज्य था, निजी उपक्रम के रूप में कलकत्ता और मुंबई में हुई थी। दो निजी प्रक्षेपण यंत्रों (प्रेषित) लगाए गए थे। सन् 1930 में सरकार ने उन्हें अपने हाथ में ले लिया और 1957 में ऑल इंडिया रेडियो (एआईआर) बना दी। आकाशवाणी के विस्तार के साथ कार्यक्रमों में भी विस्तार हुआ और 1976 तक 56 भाषाओं और उप भाषाओं तथा बोलियों में कार्यक्रम दिए जाने लगे। भारत में टेली-विज़न 1959 में शुरू हुआ और सन् 1973 में दूरदर्शन की शुरुआत मुंबई तथा पूना में की गई। 1975 में मद्रास और लखनऊ के केंद्रों की स्थापना हुई। उसके पश्चात् आवश्यकता के अनुरूप केंद्रों की स्थापना होती गई तथा कार्यक्रमों में वृद्धि होती गई। कार्यक्रमों में लगभग 20 प्रतिशत समय ऐसा है जो समाचारों के हिस्से पड़ता है, उसमें भी हिंदी, अंग्रेज़ी तथा क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से प्रसारित होने वाले समाचार शामिल हैं, अर्थात् हिंदी माध्यम से प्रसारित होने वाले समाचारों का समय बहुत ज़्यादा नहीं है। उसपर भी हमारे पास यह आँकड़ा उपलब्ध नहीं है कि हिंदी समाचार कितने लोग सुनते हैं तथा उनकी प्रतिक्रिया क्या है? यद्यपि इकोनॉमिक टाइम्स में बुधवार को मीडिया ऐंड रिसर्च के अंतर्गत मार्केट डेटा सतंभ छपता है। वह स्तंभ दूरदर्शन के कार्यक्रमों कीलोकप्रियता के आधार पर उनका क्रम निर्धारित करता है। सर्वेक्षण द्वारा तीन महानगरों मुंबई, दिल्ली और चेन्नई 1200 लोगों (पंद्रह वर्ष से ऊपर की आयु के) की राय के आधार पर क्रम निर्धारित किया जाता है। मेरे पास 31.08.1991, 07.09.1991 और 14.10.1991 को तीन सप्ताहों के आँकड़े उपलब्ध हैं। उनके अनुसार समाचार सुनने वालों की संख्या क्रमशः 36.00, 34.07 और 35.00 प्रतिशत है, अर्थात् 35.23 प्रतिशत लोग समाचार सुनते हैं। परंतु सरलता के बारे में उनकी प्रतिक्रिया हमें मालूम नहीं है। दूसरे, यह कि यह सर्वेक्षण दूरदर्शन पर विज्ञापन देने के उद्देश्य से बेहतर समय का निर्धारण करने के लिए किया जाता है न कि कार्यक्रमों की भाषा के अनुसार लोकप्रियता जानने के लिए। अतः हिंदी में प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों की क्लिष्टता या सरलता के बारे में निष्पक्ष था वैज्ञानिक सर्वेक्षण की आवश्यकता है।
आप सभी इस बात से भलीभाँति परिचित होंगे कि दूरदर्शन पर प्रसारित रामायण महाभारत व चाणक्य जैसे धारावाहिक कितने लोकप्रिय हुए हैं। चाणक्य अपने प्रथम प्रकरण के ही बहुत लोकप्रिय हो गया था। उसके दर्शकों का प्रतिशत 47.6 था। चाणक्य की भाषा संस्कृतनिष्ठ थी। तो यह बात सही नहीं लगती कि दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले राष्ट्रीय कार्यक्रमों की हिंदी सरल नहीं है या कठिन है। रेडियो या दूरदर्शन की हिंदी के बारे में कठिनता के आरोप की चर्चा कर चुका हूं। यह आरोप बहुत दिनों से लगता चला आ रहा है। राजभाषा के रूप में हिंदी को स्वीकृत किए जाने के बारे में अक्सर संशय व्यक्त्त किया जाता यहा था। कोई न कोई बहाना लेकर विरोध किया जाता रहा सरल। भाषा के नाम पर उर्दू का स्वरूप देकर आकाशवाणी की भाषा सुधारने का सुझाव दिया गया था। उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सेठ गोविंददास ने कहा था, "सरल भाषा के नाम पर यदि आकाशवाणी में फिर दूसरे रूप से पुरानी हिंदुस्तानी के झगड़े को उठाया गया और यदि एक कृत्रिम भाषा बनाने का प्रयास किया गया तो हमें आकाशवाणी का बहिष्कार करना होगा।" हिंदी के प्रति अपना विचार करते समय प्राची विद्या विशारद और इतिहास मर्मज्ञ डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने कहा था, "स्वराज्य के बाद के समय राष्ट्रीय विधान बनने लगा उस समय राभाषा के रूप में हिंदी का प्रश्न उत्कट रूप से उठ ड़ा था। तब हिंदी के पक्ष और विपक्ष में अनेक बातें कही गईं।रंतुता और नेता का मत इस बात में मिल गया कि पूरे देश के कामकाज के लिए कोई एक भाषा होनी ही चाहिए और सर्वसम्मति से यह भाषा हिंदी मानी गई उस बड़े निर्णय के तीअंग ध्यान देने योग्य हैं। पहला यह कि हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में विचार किया जाए, दूसरा यह कि पंद्रह वर्ष के लिए संक्रांतिकाल में 1965 तक अंग्रेज़ी भी राजकाज की सुविधा के लिए बनी रहे। पर उसके बाद हिंदी अपना स्थान ग्रहण कर ले। तीसरा यह कि हिंदी के विकास का अर्थ अन्य भाषाओं की उपेक्षा या हानि न हो।
तीसरा अंग अधिक महत्वपूर्ण है तथा हमारे विचार का प्रधान मुद्दा है। इसी मुद्दे पर विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार करेंगे। परंतु हमारी वर्तमान मनोवृत्ति कि "हिंदी सरल नहीं है" पर ऐतिहासिक और सामाजिक परिवेश में दृष्टिपात करना आवश्यक है कि सरलता का प्रश्न प्रयोगजन्य है? या परिवेशजन्य? इसका पता लगाने के लिए ऐतिहासिक तथ्यों को मद्देनजर रखते हुए इस चर्चा करनी होगी
राजभाषा बनने से पहले की पृष्ठभूमि
भारत की राभाषा केंद्रीय शासकों के साथ बदलती रही लगभग 740 वर्ष तक (1200 से 1947 तक) भारत वर्ष में केंद्रीय शासन विदेशी रहा। फलस्वरूप दिल्ली के सुल्तान तथा मुगल साम्राज्यों के समय लगभग 600 वर्षों तक देश की प्रधान भाषा फ़ारसी रही और फ़ारसी ही उन विदेशी शासकों से संबंधित उच्चवर्गीय भारतीयों की साहित्यिक भाषा बन गई। 1800 के लगभग उत्तर भारत में अंग्रेज़ों के साम्राज्य की जड़ें जमीं और उस फ़ारसी के स्थान पर एक अन्य विदेशी भाषा अंग्रेज़ी देश में शासन, शिक्षा, शासन तथा साहित्यिक चर्चा की प्रधान भाषा बन गई तथा इस नए विदेशी शासन के चलने में सहयोग देने वाले में सहयोग देने वाले भारतीयों ने फ़ारसी को छोड़कर अंग्रेज़ी को अपनाया। जब राजभाषा के रूप में हिंदी स्वीकृत हो गई तब शब्दावली निर्माण के राजकीय स्तर पर प्रक्रिया प्रारंभ हुई। 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में अर्थात् 1960 के आसपास अर्थात् जब लोगों ने यह आरोप लगाना प्रारंभ कर दिया कि हिंदी आधुनिक ज्ञान विज्ञान की आवश्यकताओं के अनुकूल समर्थ नहीं है, शब्द की कमी है। परंतु देश की जागरूक व राष्ट्रप्रेमी लोग शब्दों के बारे में पहले से ही चिंतित थे और वे इस बारे विचार भी रखते थे। इस संदर्भ में मैं एस. निजलिंगप्पा तथा अनंत शयनम आयंगार को उद्धृत करना चाहूँगा। शब्दावली के स्वरूप के बारे में निजलिंगप्पा का विचार था कि हमारी राष्ट्रभाषा में पर्शियन, अरबी ओर अंग्रेज़ी के जो शब्द रूढ़ हो गए हैं उनको हम वैसा ही रहने देंगे किंतु भविष्य में जहाँ नवीन शब्दों प्रवाह का प्रश्न है वहाँ यदि वे हिंदी में सरलता से आ सकें तो उनका मार्ग हमें बंज नहीं करना चाहिए। लेकिन हमें दूसरी ओर इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि हमारा स्वाभाविक स्रोत संस्कृत का ही हो या अन्य भारतीय भाषाओं का हो। इसके लिए अरबी, फ़ारसी का मुँह ताकना अनुचित होगा।"आयंगार महोदय ने कहा कि "हम राजनीतिक पचड़े में पड़कर कोई कृत्रिम भाषा बनाने का प्रयत्न भले ही कर लें परंतु प्रकृति उसे चलने नहीं देगी। वह तो उसी को राष्ट्रभाषा के रूप में जीवित रहने देगी जो सत्य है कृत्रिम नहीं, जो स्वाभाविक है बनावटी नहीं, जो विशुद्ध भारतीय है अभारतीय नहीं, जो विदेशी भाषाओं के निकट नहीं, हमारी प्रांतीय भाषाओं के निकटतम है।" शब्दावली के बारे में उनका विचार था कि हिंदी के नए शब्दों को गढ़ ने के लिए संस्कृत से सहायता लेना स्वाभाविक और सर्वथा उचित होगा। साथ ही अन्य भाषाओं के ऐसे शब्द जो हमारी भाषा में खप पच गए हैं, हमें वे भी सहर्ष शिरोधार्य होने चाहिए। शब्दावली निर्माण की प्रक्रिया जब शुरू हुई तब कोशकारों ने उन बातों को ध्यान में रखकर ही संस्कृत के आधार पर वांछित नई शब्दावली निर्मित की। अतः संस्कृत के आधार पर व आंशिक शब्दावली का निर्माण करना आवश्यक्ता के साथ-साथ हमारी मजबूरी भी थी क्योंकि हमारे सामने कोई दूसरा विकल्प नहीं था।
राजभाषा या कार्यालयी हिंदी की कठिनता का मुद्दा
भाषा की क्लिष्टता की बात प्रायः शब्दों के स्वरूप से संबंधित रही है। जिन लोगों ने इस विषय में अपने विचार व्यक्त्त किए हैं उनका लक्ष्य प्रायः शब्द ही रहे हैं जबकि भाषा शब्दों का विशिष्ट ढंग से वाक्यबद्ध करके प्रस्तुत किया गया सार्थक संदेश है और संदेश की संप्रेषणीयता के लिए शब्द एक उपादान है।
संप्रेषणीयता के रास्ते में केवल संदेश प्रेषक का ही नहीं बल्कि संदेश ग्रहण करने वाले पक्ष दोनों का भाषा संस्कार तथा उनका सामाजिक व शैक्षणिक परिवेश भी महत्वपूर्ण होता है। हिंदी की सरलता के प्रश्न के संदर्भ में एक प्रश्न यह भी हो उठना समीचीन है कि क्या सर्वत्र एकसी भाषा बोली जा सकती है। बाज़ार में ग्राहक और दुकानदार दार्शनिक उहापोह नहीं करते। बाज़ार वाली बोली विश्विद्यालयों में काम नहीं दे सकती, वित्त मंत्री उसके माध्यम से अपना भाषण नहीं दे सकते, क्या अंग्रेज़ी भाषा में लिखित कानून, अर्थशास्त्र, दर्शन, भौतिक विज्ञान की पुस्तक साधारण अंग्रेज़ों की समझ में आती है। हर देश में साहित्य की ऊँची कक्षाओं की पाठ्यपुस्तकों की विद्वत् संस्थाओं की, पढ़े लिखे लोगों की भाषा, साधारण भाषा से भिन्न होती है। परंतु संपूर्णानंद जी के शब्दों में "आज हिंदी पर शनि की दृष्टि घूम गई है। उसको सरल करने का आदेश वायु मंडल में घूम रहा है लेकिन सरल क्या है उसको कोई परिभाषित नहीं कर पाता।
आइए हम इसको परिभाषित करें कि "सरल" क्या है? मैं अपनी बात की शुरुआत डॉ. राममनोहर लोहिया के शब्दों से करना चाहूंगा। डॉ. लोहिया का कहना है कि "मैं सरल और सरस को परस्पर पूरक समझता हूं। भाषा को "सरल" या "सरस" प्रशासक या विद्वान नहीं बनाया करते। दुनिया में ऐसा कभी नहीं हुआ है कि पहले शब्द निर्माण हो तब भाषा बने। भाषा की पहले प्रतिष्ठा होती है तब उसका विकास हुआ करता है। हिंदी में सात लाख के करीब शब्द हैं जबकि अंग्रेज़ी में अढ़ाई लाख के आसपास शब्द हैं। इसके अलावा अंग्रेज़ी की शब्द गढ़ने की शक्ति नष्ट हो चुकी है जबकि हिंदी की अभी अपनी जवानी भी नहीं चढ़ी है। संसार की सबसे धनी भाषा है हिंदी लेकिन बर्तनों की भाँति इन शब्दों पर धरे धरे काई जम गई है। ये बर्तन मंजने पर ही चमकेंगे, किसी रसायनशाला के अनुसंधान से नहीं।" इसका मतलब यह हुआ कि शब्द बिना प्रयोग प्रचलित नहीं होंगे और हम उनको प्रयोग नहीं करना चाहते फिर पानी में उतरे बिना हम तैरना कैसे सीखेंगे? यहाँ जो मुद्दा हमारे सामने आता है व अप्रयोग का, शब्दों के व्यवहार का है।
पारिभाषिक शब्दावली का स्वरूप - विभिन्न विचार
लोगों ने हिंदी की सरलता, चाहे वह दूरदर्शन या आकाशवाणी की हो, बैंकों की हो या किसी भी कार्यालय की, इसके स्वरूप के बारे में अब तक जो विचार व्यक्त किए गए हैं वे मात्र शब्दों के बारे में हैं और उन्हें सारांशतः इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है –
  1. हिंदी का रूप भारत की समस्त भाषाओं की खिचड़ी से बनना चाहिए।
  2. हिंदी को उर्दू के निकट लाने के लिए हिंदुस्तानी बनना चाहिए।
  3. हिंदी संस्कृत गर्भित्त होनी चाहिए।
  4. हिंदी भाषा अंग्रेज़ी की शब्दावली के मिश्रण से हिंदुस्तानी के भोजन पर इंग्लिश्तानी बननी चाहिए।  
भाषा की बोधगम्यता
मेरी समझ में, हिंदी की सरलता का प्रश्न उठाने वाले लोगों का आशय हिंदी में लिखित या व्यक्त्त बातों की बोधगम्यता से है जिसे हम तकनीकी भाषा में संप्रेषणीयता की समस्या कह सकते हैं। मैं इस संबंध में कार्यालयी हिंदी या दूरदर्शन या आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण में प्रयुक्त होने वाली हिंदी की बोधगम्यता का ज़िक्र करना चाहूंगा। मैं यहाँ पर कार्यालयी या दूरदर्शन या आकाशवाणी के प्रसारण में प्रयुक्त हिंदी को "कामकाजी हिंदी" को "प्रयोजनमूलक हिंदी" का नाम देना चाहूंगा। अब प्रश्न उठता है कि कामकाजी हिंदी का स्वरूप क्या हो? यह विषय वर्षों से बहस का मुद्दा बना हुआ है। शायद यह मुद्दा सबसे अहम भी है क्योंकि कार्यालयों में काम करने वाले अंग्रेज़ी के तथाकथित निष्णात लोग इसपर अवश्य टिप्णी कर देते हैं कि "सरल हिंदी में काम किया जाए।" वैसे तो किसी विषय पर लगातार प्रश्न उठते रहना अच्छा लगता है। यह अच्छा लक्षण है क्योंकि अगर सवाल ही नहीं उठेंगे तो नई दिशा की खोज ही नहीं होगी। परंतु प्रश्न यह भी है अंग्रेज़ी के बारे में तो कभी यह प्रश्न नहीं उठता। मुझे इसके दो कारण नज़र आते हैं। सरलता का मुद्दा कई मामलों में सही भी होता है परंतु अक्सर बोधगम्यता का मामला दो बातों से प्रभावित होता है। एक तो, यह संप्रेषणीयता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, अर्थात् पठनीय हिंदी में लिखा गया लेख श्रवणीय पाठ के मानदंडों को पूरा नहीं करता है। दूसरे, सरलता का मामला प्रतिकूल मनोवृत्ति होने के होने अथवा अनुकूल मानोवृत्ति के अभाव के कारण या पूर्वग्रह युक्त मनोवृत्ति का परिणाम है। हम यदि दोनों ही पहलुओं पर निरपेक्ष रूप से विचार करेंगे तो वे स्पष्ट हो जाएगा कि हिंदी की सरलता का प्रश्न पूर्वग्रह युक्त मनोवृत्ति का परिणाम है? संचित अनुभव या भाषा संस्कार का अभाव है? या वास्तविक समस्या है? इस संबंध में भाषिक परंपरा का अवलोकन करना सार्थक होगा।
भाषिक परंपरा                                                                       
कार्यालायी या प्रयोजनमूलक अंग्रेज़ी की परंपरा लगभग एक सौ पचास वर्ष की है। जब भी किसी कार्यालय की कार्य परंपरा या भाषा की बात होती है तो अंग्रेज़ी भाषा विरासत में मिल जाती है। उसमें अपनी ओर से जोड़ने की गुंजाइश बहुत कम होती है।
हिंदी के मामले में यह मानना होगा कि परंपरा बहुत लंबी नहीं है। 1957 से व्यापक पैमाने पर आकाशवाणी कामकाज प्रारंभ हुआ और 1975 से दूरदर्शन से दूर दर्शन का शब्दावली का निर्माण तो हो गया परंतु उनके प्रयोग का कार्यक्रम नवीन तथा प्रयोगात्मक कार्य है। अतः यह सिलसिला बहुत कुछ नया है और वह धीरे-धीरे ज़ोर पकड़ा है। वास्तव में हम नऐ भाषा स्वरूप की लगातार तलाश में हैं। हमें नए अनुभव हासिल हो रहे हैं। अंग्रेज़ी की भाँति आज भी व्यवस्था में हिंदी के आलेख या पाठ अभी भी अनुवादकों के कक्ष तक या फ़िर सांविधिक अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए अनुवाद तक ही सीमित है। इसलिए भाषिक संक्रमण और उसका स्वरूप भाषा के संदर्भ में कई सवाल उठा रहे हैं।
सरलता की कसौटी
किसी व्यवसाय या वर्ग विशेष में आदर्श भाषा की कुछ विशिष्ट रूप प्रयुक्त होते हैं और वे शब्द प्रयोग द्वारा रूढ़ होकर विशिष्ट अर्थ देने लगते हैं। उस क्षेत्र विशेष की विशिष्ट शब्दावली का प्रयोग करके उस क्षेत्र के विशेषज्ञ अपने विचारों को संक्षिप्त, सटीक तथा अभिलषित रूप में संप्रेषित करते हैं। जब शब्द काफी प्रचलित हो जाते हैं तब उनकी संप्रेषणीयता स्वयं सिद्ध हो जाती है। दूरदर्शन या आकाशवाणी के हिंदी समाचारों की भाषा अभी भी अनुवाद के माध्यम से निर्मित हो रही है। अब अगर हम दूरदर्शन या आकाशवाणी द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली शब्दावली का अध्ययन करें तो हमें लगता है कि दूरदर्शन भरसक प्रचलित शब्दों का प्रयोग करता है जिसमें उर्दू और अंग्रेज़ी के शब्द भी शामिल हैं। वह भाषा की शुद्धता का हठी न होकर संप्रेषणीयता को ज़्यादा अहमियत देता प्रतीत होता है।
प्रयोजनमूलक हिंदी के सरलीकरण में एक पहलू यह भी है कि जब इसी भाषा के संस्कृत आधारित नए शब्दों सैकड़ों की तादाद में एक साथ आते हैं तो समानीकरण की समस्या उत्पन्न हो जाती है। शब्दों में समानता प्रतीत होती है परंतु उनके अर्थों में अंतर होता है, जैसे, संशोधन, आशोधन, समाशोधन, प्रदीप्ति, तापदीप्ति, प्रतिदीप, स्फुरदीप्ति। यह समस्या केवल हिंदी में नहीं बल्कि अंग्रेज़ी में भी है, जैसे knight-night, write-right, through-throw, resume-resume दि। दूसरी समस्या यह है कि भाषिक आग्रहों के साथ ही अनजाने में गैर भाषिक आग्रह कार्य करने लग जाते हैं, जैसे, हर वाक्य में अर्थापत्ति की दृष्टि से एक या दो केंद्रभूत शब्द रहते हैं वे जिस परंपरा के होते हैं वाक्य में उसी शैली का बन जाता है फलतःला वाक्य भी उसी वजन का बनाने के लोभ का संवरण न कर सकने के कारण पैराग्राफ़ और बाद में पूरा लेख ही संस्कृत परंपरा का बन जाता है जिसका परिणाम भाषिक बोझ का बढ़ना है दूरदर्शन या रेडियो की भाषा भी इस परंपरा से सर्वथा मुक्त नहीं है संस्कृत निष्ठ परंपरा के मोहजाल में फंस कर परिनिष्ठित प्रणाली से वाक्य रचना करना भी कार्यालयी हिंदी की समस्या है वास्तव में हमें यदि पाठक या श्रोता के भाषिक दबाव को कम करना है तो समानकरण (कोलोकेशन) के शैलीगत आग्रहों से बचना होगा
सरलता मापांक
किसी भी पाठ किया आलेख की बोधगम्य की जाँच सरलता मापांक के आधार पर की जा सकती है। अध्ययनों के अनुसार यदि सरलता मापांक के आधार पर दूरदर्शन के हिंदी समाचारों की भाषा की परीक्षा की जाए तो दूरदर्शन की भाषा की सरलता के प्रश्न का वैज्ञानिक उत्तर दिया जा सकता है। यद्यपि हिंदी में इस तरह के अध्ययन बहुत कम हुए हैं फिर भी अंग्रेज़ी में किए गए अध्ययनों तथा अपने यहाँ किए गए अध्ययनों के आधार पर कुछ निष्कर्ष निकालना अवश्य संभव है। राबर्ट गनिंग का विचार है कि लंबे वाक्य प्रायः कुपाठ्य होते जाते हैं। रुडोल्फ़ फ़्लेश के अनुसार सरलता का माप दंड वाक्य में प्रयुक्त शब्दों की संख्या है। उनके अनुसार भाषा की न्यूनतम लघुतम सार्थक इकाई वाक्य है और वाक्य में शब्द संख्या आठ तक हो तो वह वाक्य बहुत सरल की श्रेणी में आएगा। वाक्य में ग्यारह शब्दों का उपयोग हो तो वह वाक्य सरल की श्रेणी में आएगा। यदि वाक्य में शब्दों की संख्या 14 से 17 तक को तो वह वाक्य मानक कोटि का वाक्य होगा। वाक्य में शब्दों की संख्या जैसे-जैसे बढ़ेगी वह सरलता की श्रेणी से निकलकर कठिनता की श्रेणी में शामिल होता जाएगा। जब तक वाक्य में शब्दों की संख्या 21 तक नहीं पहुँच जाती वाक्य को कठिन नहीं माना जा सकता क्योंकि हाई स्कूल तक की पाठ्य पुस्तकों के वाक्यों में शब्दों की 21 पाई जाती है। जब पाठ्य पुस्तकों का स्तर बढ़ जाता है तब वाक्य में शब्दों की संख्याघ 25 तक पहुँच जाती है। जब किसी लेख के वाक्यों में शब्दों की संख्या 29 तक पहुंच जाती है तो उसे बहुत कठिन कहा जा सकता है। हिंदी में भी कुछ इसी प्रकार का अध्ययन ब्रजराज सिंह सिरोही ने भी किया है  (संघीय राजभाषा के संदर्भ में पारिभाषिक वैज्ञानिक शब्दावली के निर्माण की समस्याएँ)। परंतु उनका अध्ययन शब्दों की आक्षरिक संरचना के आधार पर वाक्य की स्पष्टता को मापना है। उनका निष्कर्ष है कि शब्द की अक्षरसंख्या का उसकी क्लिष्टता से सीध संबंध है। यहाँ अक्षर का अर्थ व्याकरण का सिलेबल है। हिंदी में एकाक्षरी शब्द बहुत अधिक हैं। इसका अर्थ यह है कि तीन या अधिक अक्षरों वाले शब्दों की संख्या कम है। इसका अर्थ यह है कि तीन या अधिक अक्षरों वाले शब्द क्लिष्टता के कारण अधिक लोकप्रिय नहीं हो पाते हैं।
हिंदी पारिभाषिकों की कठिनता का अध्ययन 1984 में पंजाब विश्व विद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा एक शोध प्रबंध के माध्य से किया गया था (बैंकिंग विषयक हिंदी पारिभाषिकों की संरचना और संप्रेषणीयता का अध्ययन, दलसिंगार यादव)। यद्यपि वह शोध योजना बैंकिंग शब्दावली के संदर्भ में बनाई गई थी तथापि वह किसी भी क्षेत्र के पारिभाषिक शब्दों पर लागू होती है क्योंकि पारिभाषिकों के निर्माण का आधार सर्वत्र संस्कृत की रचना प्रणाली है। उस शोध योजना में यही परिकल्पना (हाईपॉथिसिस) की गई थी कि संध्यक्षर वाले शब्द ही कठिन लगते हैं, जैसे, परित्याग(अबैंडन्मेंट), संपार्श्विक (कोलैटरल), विनिर्देशन (स्पेसिफ़िशन) आदि। कठिन प्रतीत होने वाले 50 शब्द चने गए थे और उनके अंग्रेज़ी पर्यायों  के साथ उनकी आक्षरिक संरचना का तुलनात्मक विश्लेषण किया गया था।
यह सुविदित भाषा वैज्ञानिक तथ्य है कि जहाँ पर भी दो व्यंजन संयुक्त्त रूप से प्रयुक्त होंगे वहाँ पर संयुक्त ध्वनि को उत्पन्न करने में स्वरतंत्रियों को कठिनाई अवश्य महसूस होगी। यह तथ्य केवल हिंदी भाषा पर ही नहीं बल्कि अंग्रेज़ी समेत सभी भाषाओं पर भी लागू होता है। नमूने के तौर पर चुने गए 50 शब्दों का गणतीय ढंग से विश्लेषण करने पर पता चला कि अंग्रेज़ी के पर्यायों में संयुक्त व्यंजनों के स्थल 76% थे जबकि हिंदी में दो संयुक्त व्यंजनों के स्थल 74% पाए गए। अविरल दो संयुक्त व्यंजनों के स्थल अंग्रेज़ी में 106% थे और हिंदी में 86%। अविरल तीन संयुक्त व्यंजनों के स्थल अंग्रेज़ी में 8% थे और हिंदी 6%। एक ही शब्द में एक से व्यंजन पुंज के स्थल हिंदी में 9% थे जबकि अंग्रेज़ी कुल 30% थे। कुल संयुक्त स्थल हिंदी में 90% थे जबकि अंग्रेज़ी में 104% थे। निष्कर्ष यह निकला कि अंग्रेज़ी शब्दों की तुलना में हिंदी शब्द सरल हैं और यदि कहीं सरल नहीं हैं तो अतिशय कठिन भी नहीं हैं।
दूरदर्शन की हिंदी के वाक्यों का गणितीय विश्लेषण
रुडॉल्फ़ फ़्लेश द्वारा प्रतिपादित सरलता मापांक के आधार पर दूरदर्शन के एक दिन के रात के समाचार में से नमूना रिकार्ड किया गया। उसमें 36 वाक्य थे। वे लगातार बोले गए वाक्य थे। रैंडम सेलेक्शन नहीं था। उन चुने गए वाक्यों के शब्दों के संख्या की गणना की गई जिना वर्गीकरण इस प्रकार है -



सरलता श्रेणी
वाक्यों की संख्या
प्रतिशत
बहुत सरल
8
22.22
सरल
9
35.00
लगभग सरल
5
13.89
मानक
5
13.89
लगभग कठिन
6
16.67
कठिन
1
02.78
बहुत कठिन
2
05.55

यदि उक्त वर्गीकरण के आधार पर वाक्यों की सरलता पर विचार किया जाए तो 75 प्रतिशत वाक्य सरल हैं, 16.67 प्रतिशत वाक्य ऐसे हैं जो कठिनता की ओर झुके हुए हैं पर वे भी कठिन नहीं कहे जा सकते। कठिन और बहुत कठिन वाक्यों की श्रेणी में केवल 8.33 प्रतिशत वाक्य ही आते हैं। अगर दूरदर्शन के समाचारों की भाषा कठिन नहीं कही जा सकती बल्कि वह मानक भाषा कही जा सकती।
यदि वाक्यों में प्रयुक्त शब्दें की आक्षरिक संरचना का विश्लेषण किया जाए तो भी शब्दों के कठिन होने का भ्रम भी दूर हो जाता है। नियमित रूप से समाचार सुनने वाला व्यक्त्ति यह महसूस करता कर सकता है कि रोज़ लगभग 95 % शब्द तो वही होते हैं जिन्हें कि हम दैनिक जीवन में सुनते हैं, पढ़ते या प्रयोग करते हैं क्योंकि क्रियाओं, विशेषणों, परसर्गें का प्रयोग तो हम यथावत् ही करते हैं। केवल पाँच प्रतिशत तकनीक की या नए शब्दों का प्रयोग किया जाता है जो नए विषयों पर नए संदर्भों के कारण प्रयोग में आते हैं। यदि हम उन्हें सुनने और अपनाने की इच्छा से प्रयोग करें तो वे भी अतिशीघ्र बोधगम्य हो जाएँगे। पूर्वोक्त अध्ययनों और तथ्यों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि सरलता का प्रश्न भाषा की संरचनागत समस्या नहीं है।  अतः अब दूसरी परिकल्पना कि मनोवृत्ति अनुकूल न होना पर विचार किया जाए।
मनोवृत्ति की भूमिका
सरकारी कार्यों में हिंदी के प्रयोग के बारे में ज़्यादा अध्ययन नहीं हुए हैं फिर भी दो अध्ययन उल्लेखनीय हैं। राष्ट्रीय डेरी अनुसंधान संस्थान, करनाल द्वारा 1980 में सर्वेक्षण किया गया था। सर्वेक्षण भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के 32 अनुसंधान संस्थानों में कार्यरत 700 वैज्ञानिकों, छात्रों, प्रशासनिक कर्मचारियों की हिंदी के बारे में मनोवृत्ति को विश्लेषित करता है।
सर्वेक्षण द्वारा यह जानने का प्रयास किया गया था कि परिषद् के संस्थानों में शिक्षा, अनुसंधान, पुस्तक लिखने हेतु, विस्तार कार्य हेतु तथा प्रशासनिक कार्यों में हिंदी का प्रयोग किया जाना सुविधाजनक है या नहीं। सर्वेक्षणकर्ताओं को निष्कर्ष यह मिला कि स्नातकोत्तर शिक्षा और अनुसंधान में हिंदी का प्रयोग असुविधाजनक होगा। इसी प्रकार शोध प्रबंध और शोध पत्रों के माध्यम हेतु हिंदी के प्रयोग को समर्थन नहीं मिला।
जैसाकि ऊपर उलेलख किया गया है कि 1984 में चंडीगढ़ में बैंक कर्मचारियों और अधिकारियों की हिंदी के बारे में मनोवृत्ति का सर्वेक्षण किया गया था। वहाँ पर नमूना बड़ा नहीं था। मात्र 124 उत्तरदाताओं से प्रश्नावली के आधार पर प्रतिक्रिया ली गई थी। परंतु परिणाम कुछ ऐसे ही मिले। इस सर्वेक्षण से पता लगा कि लगभग 66.94 प्रतिशत लोग हिंदी के प्रति उदासीन हैं। 16.13 प्रतिशत लोग प्रतिकूल मनोवृत्ति वाले हैं। हिंदी के पक्ष में मात्र 16.93 प्रतिशत लोग ही पाए गए जिनमें राजभाषा कार्मिक भी शामिल हैं जिनकी मनोवृत्ति अनुकूल होना स्वाभाविक है। इसका मतलब यह हुआ कि 83.07 प्रतिशत लोगों की मनोवृत्ति हिंदी के प्रति अनुकूल नहीं है। जब तक किसी भी वस्तु या विचार धारा की बारे में अनुकूल मनोवृत्ति का अभाव होगा तब तक उस को स्वीकृत किए जाने या उसके विकास की संभावनाएँ कम ही रहेंगी और उस पर प्रतिकूल आरोप भी लगते रहेंगे।
निष्कर्ष
  1. पूर्वोक्त विश्लेषणों तथा तथ्यों को मद्देनज़र रखते हुए निष्कर्ष यह निकलता है कि हिंदी की सरलता का प्रश्न प्रयोगजन्य या संरचनागत समस्या नहीं है बल्कि हिंदी के प्रति अनुकूल मनोवृत्ति का अभाव है। राष्ट्रभाषा की समस्याओं के संदर्भ में यह कहना भी समीचीन होगा कि हमें यह देखकर बहुत दुःख होता है कि जब भारत में अंग्रेज़ी जैसी भाषा सीखी जाती है जिसके व्याकरण, वर्तनी और वाक्य विन्यास की जटिलता भारतवासियों के लिए हिंदी व्याकरण की अपेक्षा बहुत अधिक है तो भी कभी किसी व्याकरणिक जटिलता का नारा नहीं लगाया जाता। परंतु न जाने हिंदी की ही ऐसी परीक्षा करने के लिए लोग बहुत उत्सुक क्यों रहते हैं। क्या इससे प्रतिकूल मनोवृत्ति होने की बात स्पष्ट नहीं होती?
  2. संस्कृत का आधार ग्रहणकरके शब्दावली का निर्माण किया जा चुका है क्योंकि शब्द निर्माण का और कोई तरीका हमारे पास नहीं है। उधार लिए गए शब्द हमारी परंपरा के अनुकूल नहीं बैठते हैं। अतः शब्दावली निर्माण के सिवा और कोई विकल्प हमारे सामने नहीं था। इस प्रकार निर्मित शब्दावली के साथ नए सिरे से पुनः छेड़छाड़ की जाएगी तो शब्दावली के संक्रमण की हालत कभी समाप्त नहीं होगी। अतः एक ही उपाय बचता है कि हम शब्दावली से अपरिचय के विंध्याचलों को हटाएँ। अपरिचय को अति परिचय में बदलें। शायद जो शब्द आज कठिन प्रतीत हो रहे हैं वे परिचित हो जाने के बाद भविष्य में सरल प्रतीत होने लगेंगे। यदि प्रयोग में कोई वास्तविक कठिनाई आती हो तो उसके बारे में रचनात्मक दृष्टकोण से चर्चा की जाए। पूर्वग्रह के कारण उसे दुरूह बताकर प्रयोग में ही न लाएँगे तो सरलता कोसों दूर भागेगी।
  3. हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं कि सरकारी कार्यालयों या कार्यों की भाषा अंग्रेज़ी है। उसी प्रकार समाचारों के स्रोत अन्य समाचार एजेंसियाँ हैं जो कि अंग्रेज़ी यंत्रों तथा अंग्रेज़ी भाषा में प्राप्त समाचारों का इस्तेमाल करती हैं। दूरदर्शन के अधिकतर कार्यक्रम भी अंग्रेज़ी में उपलब्ध जानकारियों के आधार पर प्रस्तुत किए जाते हैं। कुल मिलाकर यह सत्य है कि प्रसारण के माध्यमों में अनुवाद जनित भाषा की बड़ी भूमिका है और अनुवाद की अपनी सीमाएं भी हैं। यदि किसी व्यक्त्त के पास किसी विषय का संगठित अनुभव हो तो आमतौर पर अभिव्यक्त्ति की छटपटाहट उसे सहज अभिव्यक्ति के लिए भाषा दे ही देती है। जब उसी भाषा में नया चिंतन होता है तो भाषा प्रयोग में अपने आप ही नई चुनौतियाँ आती हैं और उनका निराकरण ढूंढा जाता है। वह विकल्प विषय के ज्ञाता लोग खोजते हैं और अनुवादक को विषय की इतनी पैठ नहीं होती। फिर अनुवादक को यह भी पता नहीं होता कि लेखक ने किन परिस्थितियों में उस शब्द का प्रयोग किया है? वैकल्पिक शब्द की समस्या के कारण अनुवादक उस परिस्थिति विशेष की अर्थवत्ता (सिग्नीफ़िकैंस ऑफ़ मानिंग) नहीं पकड़ पाता है। फलतः उससे ऐसे वाक्य की रचना हो जाती है कि वह स्रोत भाषा का अनुगामी बन जाता है। मैं उन लोगों को दोष नहीं देता जो अंग्रेज़ी में सोचते हैं। ऐसा लंबे अर्से तक अंग्रेज़ी में काम करने और हिंदी के पारिभाषिकों से अपरिचय के कारण है। कोई भी भाषा कुल मिलाकर आदतों का समूह है। जब अंग्रेज़ी में काम करने का आदी व्यक्ति लिखने बैठता है तो अपने मुताबिक़ अंग्रेज़ी शब्दजाल (जार्गन) का इस्तेमाल करते हुए लेख तैयार करता है फिर उसका अनुवाद कराता है। अनुवादक के पास शब्द चयन की वह आज़ादी नहीं होती है जो मूल लेखक के पास होती है। अनुवादक पर आम तौर पर दो दबाव काम करते हैं, एक, अनुवाद की शुद्धता, दूसरा समय की सीमा। परिणामतः संप्रेषणीयता के मामले को चाहकर भी अहमियत नहीं दे पाता है। अतः जब तक मूल लेखन में हिंदी का प्रयोग नहीं होता है तब तक संप्रेषणीयता की समस्या बनी रहेगी। अनुवाद के माध्यम से सरल, सुबोध और संप्रेषणीय भाषा की अपेक्षा करना हिंदी के विकास की दृष्टि से हितकर नहीं है।
-     डॉ. दलसिंगार यादव
निदेशक
राजभाषा विकास परिषद
नागपुर
******

रविवार, अप्रैल 17, 2011

क्राउडसोर्सिंग – जुटाऊभीड़ या भाड़े की भीड़


ग्यारह से पंद्रह अप्रैल तक राजभाषा विकास कार्यक्रम में व्यस्त रहा अतः ब्लॉग पर नहीं आ सका। लिखने को कई विषय थे परंतु इस विषय पर लिखने की एक खास वजह यह है कि मेरे कार्यक्रम में रेलवे के एक सहभागी ने कहा कि "देशपांडे हॉल (नागपुर सिविल लाइंस जैसे पॉश क्षेत्र में स्थित) में एक कार्यक्रम था परंतु उसमें भाग लेने वाले एक दम ठेठ गाँव से आए लगे।"
ऐसा अक्सर हो रहा है कि नेताओं को जब अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना होता है तो गाँव-गाँव में सक्रिय अपने कार्यकर्ताओं को कुछ धन देकर निदेश देते हैं कि अमुक तारीख, समय और स्थान पर इतनी संख्या में व्यक्तियों की उपस्थिति सुनिश्चित करें। कार्यकर्ता अपने आकाओं के आदेश के अनुपालन में अपने संपर्क में आने वाले लोगों को शहर दिखाने, शहर तक ले जाने और शहर दिखाकर वापस गाँव तक छोड़ने का आश्वासन देते हैं तथा कुछ धन भी अग्रिम दे देते हैं। अतः भीड़ इकट्ठा हो जाती है। मीडिया के लोगों को भी कुछ समाचार मिल जाते हैं। नेताओं के बयान मीडिया में आ जाते हैं जिससे उनकी मंशा पूरी हो जाती है। हालाँकि सभी को मालूम होता है कि भीड़ जुटाई गई है। भीड़ जुटाने की इस प्रक्रिया को क्राउड आउटसोर्सिंग कहा जाता है, अर्थात्, क्राउड + सोर्सिंग = क्राउडसोर्सिंग। चूँकि ये दोनों शब्द सजातीय हैं इसलिए इन्हें एक साथ लिखा जा सकता है – क्राउडसोर्सिंग। इसे हिंदी में जुटाऊभीड़ या भाड़े की भीड़ कहा जा सकता है।

क्या रुपए का नया प्रतीक क्षेत्रीयता का परिचायक है?