शनिवार, मार्च 05, 2011

स्वायत्त संस्था की परिभाषा (An Autonomous Institution) व राजभाषा हिंदी


भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आई.आई.टी.) में इंजीनियरी की पढ़ाई करने के लिए प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों की प्रवेश परीक्षा में अंग्रेज़ी को ही माध्यम रखने के बारे में संसद में पूछे गए सवाल के जवाब में मानव संसाधन मंत्रालय के मंत्री श्री कपिल सिब्बल ने जिनके अंतर्गत उच्च शिक्षा भी आती है, ने जबाव दिया कि ये संस्थाएं स्वायत्त हैं इसलिए परीक्षा के माध्यम के बारे में निर्णय करने के लिए स्वतंत्र हैं। मंत्री जी ने सही कहा कि ये संस्थाएं स्वायत्त हैं।

श्री कपिल सिब्बल जाने-माने कानून विद् भी हैं। अतः अन्हें कानूनी दांवपेंच तथा नियम और कानून की बेहतर समझ होगी ऐसा माना जा सकता है। विधि शब्दकोश के अर्थ के अनुसार स्वायत्त का अर्थ है  स्व-शासित, स्वतंत्र, केवल अपनी ही विधि के अधीन कार्य करने का अधिकार। क्या इस अधिकार में भारत के संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों का हनन भी शामिल है? हिंदी माध्यम या अन्य भाषाओं के माध्यम से 12वीं पास करने वाले विद्यार्थियों के अधिकारों का हनन करने अधिकार है? क्या आई.आई.टी. परिसरों में घटने वाले अपराधों पर इन संस्थाओं अपनी मर्ज़ी से कार्रवाई करने का अधिकार है? क्या सी.पी.सी., सीआर. पी.सी, आई.पी.सी. आदि के अंतर्गत किए गए कानूनी प्रावधनों को न मानने की आज़ादी है? नहीं। फिर राजभाषा अधिनियम के प्रवधानों को न मानने की छूट कैसे मिल जाती है? स्वायत्त संस्था का मतलब होता है अपने दैनिक कार्य व्यापार में बाहरी हस्तक्षेप से स्वतंत्रता ताकि संस्था को सुचारु और तीव्र गति से चलाने में बाधा न आए।

भारतीय रिज़र्व बैंक और ऐसी ही अनेक शीर्ष संस्थाएं हैं जो किसी अधिनियम के अंतर्गत गठित की गई स्वायत्त हैं। फिर भी इन संस्थाओं पर राजभाषा अधिनियम और भारत सरकार की नीतियाँ लागू होती हैं तथा वे सहर्ष इनका पालन करती हैं। अतः स्वायत्ता या निजी कंपनी के नाम पर देश की राजभाषा से संबंधित नीतियों को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। श्री देवव्रत चतुर्वेदी राजभाषा संसदीय समिति के उपाध्यक्ष हैं और उन्होंने इस बात को बहुत ही सही ढंग से उठाया। वे इसके लिए बधाई के हकदार हैं। राजभाषा के मामले में सतत जागरूक रहने की ज़रूरत है। अंग्रेज़ीदां और इसके समर्थक सदैव अंग्रेज़ी का वर्चस्व कायम रखने में लगे रहते हैं।   

राजभाषा विकास परिषद उनकी प्रशंसा करती है और धन्यवाद ज्ञापित करती है।     

गुरुवार, मार्च 03, 2011

वर्ष 1963 व 1967 के हिंदी आंदोलन तथा हिंदी आज भी अस्तित्व की तलाश में


हिंदी के बारे में पुनर्विचार की आवश्यकता है। हालाँकि नेहरू जी अंग्रेज़ी समर्थक थे और उनका प्रारंभिक जीवन ऐसे वातावरण में बीता था जिसमें अंग्रेज़ी का प्रभुत्व था परंतु वे अंग्रज़ी के अंध भक्त नहीं थे। उनके पिता जी हिंदी के विरोधी नहीं थे परंतु इसके प्रति उदासीन ज़रूर थे। चूंकि नेहरू जी की ज़िंदगी में अंग्रेज़ी का अहम स्थान था और उनके अच्छे दोस्तों में अंग्रेज़ शामिल थे इसलिए उनकी नज़र में अंग्रेज़ी के लिए विशेष अनुराग होना स्वाभाविक था। इसके अलावा, हिंदुस्तान में अंग्रेज़ों की वर्ण संकर संतानें, ऐंग्लो-इंडियन जिनकी संख्या 1947 में लगभग 3,00,000 थी और स्वतंत्रता के बाद देश में अपने भविष्य के बारे में उनको भरोसा नहीं था इसीलिए अंग्रेज़ों के जाने के साथ ही देश छोड़कर यू.के., अमरीका, आस्ट्रेलिया तथा कनाडा जाने लगे थे, उनके प्रति भी विशेष अनुराग था। अब यह संख्या 1,50,000 से भी कम हो गया है। ऐंग्लो-इंडियनों के प्रति इसी अनुराग के कारण ही संभवतः वे फ़्रैंक एंथोनी के खिलाफ़ नहीं गए और उन पर बहुत विश्वास भी करते थे। अतः उन्हीं के दबाव में आकर ऐंग्लो-इंडियनों के लिए देश में न केवल विशेष स्थान दिलाया बल्कि उन्हीं के दबाव में आकर 1965 के बाद भी हिंदी को राजभाषा का असली दर्ज़ा अनंत काल तक के लिए टल गया और अंग्रेज़ी उसी तरह बरकरार रही।

फ़्रैंक एंथोनी का जन्म जबलपुर में हुआ था और वे वहीं पर वकालत करते थे। बोलने में बहुत ही मुखर थे और ऐंग्लो-इंडियन होने के कारण अपनी मातृभाषा अंग्रेज़ी मानते थे। ऐसा किसी देश में नहीं होगा कि वहाँ की स्थानीय भाषा समृद्ध होने के बावज़ूद दूसरे दर्ज़े की भाषा हो। एक सौ दस करोड़ की जनसंख्या वाले देश में केवल 1.5 लाख लोगों की मातृभाषा को प्रथम भाषा का दर्ज़ा और लगभग 60 प्रतिशत से ज़्यादा हिंदी बोलने वालों के साथ सौतेला व्यवहार।

मेरी समझ में एक बात और आई है। वर्ष 1963 व 1967 के हिंदी आंदोलन में दक्षिण भारतीयों को नाहक मोहरा बनाकर लड़ाई लड़ी गई। जबकि संसद में हिंदी के विरोध में और अंग्रेज़ी के पक्ष में सबसे ज़्यादा शोर मचाने तथा नेहरू जी से आश्वासन लेने वाले ऐंग्लो-इंडियन फ़्रैंक एंथोनी थे। आज मैकाले की नीति के धर्मध्वजी ऐंथोनी नहीं हैं परंतु उनके द्वारा बनाई गई राह को बदलना असंभव तो नहीं पर आसान भी नहीं दिखती है।

राजभाषा अधिनियम, 1963 पर, लोक सभा में 23 अप्रैल 1963 को बोलते हुए बंगाल के श्री हीरेंद्रनाथ मुखर्जी ने कहा था कि मुझे यक़ीन है कि "उस अवसर पर प्रधान मंत्री ने जो वक्तव्य दिया वह उन जैसे राजनेता की सूझबूझ के अनुरूप था। मुझे आशा है कि वे उससे कभी नहीं मुकरेंगे। परंतु मुझे यह भी उम्मीद है कि वे इस बात को स्पष्ट कर देंगे कि हम अपने क़ानून में ऐसी व्यवस्था नहीं रखेंगे जिससे हिंदी या दूसरी राष्ट्रीय भाषाओं के विषय में क़ानून बनाना असंभव हो जाए। जनतांत्रिक पद्धति से लिए गए निर्णयों को वीटो करने का अधिकार किसी भी अल्प संख्यक वर्ग को, चाहे वह कितना ही मुखर और शोर मचाने वाला क्यों न हो, नहीं देना चाहिए।"

अब जब हम राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा 5(5) पर नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि श्री हीरेंद्रनाथ मुखर्जी का डर सही साबित हुआ और केंद्र सरकार ने "असंभव निष्पादन" का नियम चरितार्थ कर दिया है। "देश में अंग्रेज़ी को राजकाज के लिए तब तक नहीं रोका जा सकता है और हिंदी को राजभाषा का वास्तविक दर्ज़ा नहीं मिल सकता है जब तक कि अंग्रेज़ी भाषा का प्रयोग समाप्त कर देने के लिए ऐसे सभी विधान मंडलों द्वारा, जिन्होंने हिंदी को राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया है, संकल्प पारित नहीं कर दिए जाते और जब तक पूर्वोक्त संकल्पों पर विचार कर लेने के पश्चात ऐसी समाप्ति के लिए संसद के हर एक सदन द्वारा संकल्प पारित नहीं कर दिया जाता।"  क्या यह संभव है? कोई संविधान संशोधन के लिए दो तिहाई राज्यों का समर्थन आवश्यक है। परंतु राजभाषा हिंदी के मामले में यह शर्त 100 प्रतिशत रख दी गई है। असंभव की स्थिति। यह साजिश है। इस पर फिर से विचार किया जाना चाहिए।           

मंगलवार, मार्च 01, 2011

हिंदी विरोध अब बेमानी लगता है

दुनिया के छोटे-से-देश का अंतरराष्ट्रीकरण हो रहा है और लोगों को अब भाषा तथा धर्म के नाम पर भेद करना संगत नहीं लग रहा है। तमिल नाडु के नेताओं ने जब से केंद्र सरकार में सक्रिय सहभागिता का स्वाद चखा है और अकूत धन कमाने का रास्ता दिल्ली में तलाश लिया है तब से तमिल नाडु में हिंदी का विरोध कुछ कम हुआ है और अब गैर तमिल भाषियों को तमिल नाडु में घूमने और हिंदी माध्यम से बात चीत करने में कठिनाई नहीं आ रही है। परंतु अभी भी कुछ कट्टर पंथी हिंदी के विरोध का झंडा उठाकर अपना भविष्य तो कूपमंडूक जैसा बना ही रहे हैं अन्य निरीह और गंदी राजनीति से परे लोगों को गुमराह कर रहे हैं। अब तमिल नाडु के नेताओं को हिंदी विरोध का मुद्दा त्यागकर भ्रष्टाचार विरोध का झंडा उठाना चाहिए।
 कांग्रेस जैसी अखिल भारतीय और धर्म निरपेक्ष पार्टी से उम्मीद की जाती है कि तमिलनाडु के नेताओं से कहा जाए कि बदलते परिवेश में भाषा विरोध को मुद्दा बनाने के बजाय राज्य की जनता के रोज़गार को ध्यान में रखते हुए लोगों को बाहर निकलने का रास्ता बनाएं। इस बारे में मैंने कांग्रेस के महासचिव श्री राहुल गांधी को भी पत्र लिखा है कि आने वाले चुनाव के मद्दे नज़र तमिल नाडु सरकार आपकी सरकार के साथ गठबंधन करने जा रही है। आपसे करबद्ध निवेदन है कि तमिल नाडु सरकार से केवल इतना कहें कि आपके साथ तभी गठबंधन होगा जब आप हिंदी का विरोध छोड़ने की घोषणा करें। उत्तर भारत की सभी पार्टियाँ आपका अनुसरण करेंगी। दक्षिण में हिंदी विरोध खत्म होने पर पूरे देश में सही संदेश तो जाएगा ही विघटन की प्रक्रिया रुकेगी और संवाद निर्बाध रूप से हो सकेगा। आम जनता को हिंदी भाषा से कोई विरोध नहीं है। यह मेरा स्वयं का अनुभव है। मैंने दक्षिण के गांवों का भ्रमण किया है और लोगों से बात की है। क्षुद्र राजनीति करने वाले नेता ही ऐसा कार्य करते हैं जिससे विघटन को बढ़ावा मिलता है। यदि आप हिंदी को साथ लेकर चलने की अपील करेंगे तो तमिल के युवा और महत्वाकांक्षी नेता आपके साथ सहज रूप से जुड़ेंगे क्योंकि उन लोगों को अंग्रेज़ी सचमुच नहीं आती है। इसीलिए तो दक्षिण से नेता नहीं प्रोफ़ेशनल व्यवसायी राजनीति में आ रहे हैं।
 
 

रविवार, फ़रवरी 27, 2011

कंप्यूटर आधारित एकीकृत गहन विकास प्रशिक्षण कार्यक्रम (GAHN27)

राजभाषा विकास परिषद (परिषद), नागपुर, ने विंडोज़, एम. एस. ऑफ़िस के साथ कंप्यूटर सॉफ़्टवेयरों की सहायता से हिंदी में पेपरलेस कार्यालय का प्रगत (ऐडवांस) प्रशिक्षण कार्यक्रम का 27वाँ कार्यक्रम 11-15 अप्रैल 2011 तक आयोजित है जिसका घोषणापत्र संस्थाओं को भेज दिया गया है। नामांकन की अंतिम तारीख 24/03/2011 है।

क्या रुपए का नया प्रतीक क्षेत्रीयता का परिचायक है?