शनिवार, जुलाई 16, 2011

हिंदी के कार्यान्वयन में परिवर्तनकारी अभिकर्ता की भूमिका

हिंदी का प्रश्न भाषा का प्रश्न नहीं है बल्कि इस प्रश्न का संबंध राष्ट्रीयता से है। परंतु इधर इस सोच में परिवर्तन आ गया है। हिंदी के प्रति जिस संकल्पशील निष्ठा की ज़रूरत है उसकी झलक हिंदी कक्ष/विभाग से जुड़े कार्मिकों के अलावा कहीं और नहीं दिख रही है। मैं अपनी बात एक छोटे से दृष्टांत से प्रारंभ करना चाहूंगा। यह अभिकर्ता कोन है और इसे क्या करना चाहिए?

एक राजा शिकार करने के लिए जंगल में गया और दिन भर भटका परंतु कोई शिकार नहीं मिला। निराश होकर देर से लौटा और अपने अस्त्र-अस्बाब उतार कर एक कोने में फेंक दिया तथा सो गया। अगले दिन फिर उसी तरह तैयार हुआ कि शिकार के लिए चला जाए। जब अपने अस्त्र-अस्बाब उठाने गया तो देखा कि एक चूहा उसके नीचे दबा दर्द से कराह रहा है। उसने अपने अस्त्र-अस्बाब उठाया और चूहे को मुक्त किया। फिर चूहे से बोला कि भई! सारी रात दर्द से कराहते रहे क्यों नहीं शिकायत की? चूहे ने विनम्रता से जवाब दिया, महाराज आप न्यायदाता हैं और कष्ट भी आपने ही दिया है। यदि कोई और अन्याय करता तो न्याय के लिए आपके पास आता। जब स्वयं न्यायदाता ने ही अन्याय किया हो तो न्याय किससे माँगने जाता। अतः सारी रात दर्द से कराहता रहा।

इसका उदाहरण हिंदी या राजभाषा से संबंधित राष्ट्रपति के आदेशों और उनके अनुसरण में गृह मंत्रालय द्वारा जारी कार्यालय ज्ञापन में
मिलता है। दिनांक 3 दिसंबर 1955 को जारी आदेश में कहा गया था कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 के खंड (2) के परंतुक द्वारा दी गई शक्तियों का प्रयोग करते हुए राष्ट्रपति ने निम्नलिखित आदेश दिया है, -

1. यह आदेश संविधान (राजकीय प्रयोजनों के लिए हिंदी भाषा) आदेश 1955, कहलाएगा,
2. संघ के जिन प्रयोजनों के लिए अंग्रेज़ी भाषा के अतिरिक्त हिंदी भाषा का प्रयोग किया जाएगा, वे इससे संलग्न अनुसूची में दिए गए हैं।
अनुसूची
(1) जनता के साथ पत्र व्यवहार।
(2) प्रशासनिक रिपोर्टें, राजकीय पत्रिकाएं और संसद को दी जाने वाली रिपोर्टें।
(3) सरकारी संकल्प और विधायी अधिनियमितियाँ।
(4) जिन राज्य सरकारों ने अपनी राजभाषा के रूप में हिंदी को अपना लिया है, उनसे पत्र व्यवहार।
(5) संधियां और करार।
(6) अन्य देशों की सरकारों, उनके दूतों तथा अंतरराष्ट्रीय संगठनों से पत्र व्यवहार।
(7) राजनयिक और कौंसलीय पदाधिकारियों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों में भारतीय प्रतिनिधियों के नाम जारी किए जाने वाले औपचारिक दस्तावेज़।

इसके बाद सरकारी कार्यालयों द्वारा इसका कार्यान्वयन के लिए गृह मंत्रालय को एक ज्ञापन जारी करके सभी सरकारी कार्यालयों को सूचित किया जाना था और सत्य निष्ठा से कार्यान्वयन को अंजाम दिया जाना था। परंतु गृह मंत्रालय ने क्या किया?

अब ज़रा देखिए, इसके आधार पर गृह मंत्रालय द्वारा 8 दिसंबर 1955 को जारी कार्यालय ज्ञापन की भाषा देखें।

"का.ज्ञा. संख्या 59/2/54 पीयूबी. दिनांक 8 दिसंबर 1955

विषय : - संविधान (राजकीय प्रयोजनों के लिए हिंदी भाषा) आदेश 1955

मुझे यह कहने का निदेश हुआ है कि संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार अंग्रेज़ी भाषा के स्थान पर धीरे-धीरे हिंदी भाषा का प्रयोग करने के संबंध में जो सुझाव दे गए थे उन पर अप्रैल, 1954 में एक अंतर विभागीय बैठक में विचार किया गया। भारत सरकार के मंत्रालयों में हिंदी में काम शुरू करने के लिए जो प्रबंध तत्काल करने का विचार है उसका ब्योरा संक्षेप में इस प्रकार है –

1. जनता से हिंदी में जो भी पत्रादि मिले उनके उत्तर भरसक हिंदी में ही दिए जाने चाहिए। ये उत्तर सरल हिंदी में दिए जाने चाहिए।
2. प्रशासनिक रिपोर्टें, सरकरी पत्रिकाएं, संसद को दी जाने वाली रिपोर्टें आदि, जहाँ तक संभव हो, अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी में भी प्रकाशित की जानी चाहिए।
3. सरकारी संकल्पों और विधायी अधिनियमों में धीरे-धीरे अंग्रेज़ी के स्थान पर हिंदी का प्रयोग करने और जनता की सहायता करने के विचार से, जहाँ तक संभव हो, उन्हें अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी में भी निकाला जाए किंतु इन पर यह बात स्पष्ट रूप से लिख देनी चाहिए कि अंग्रेज़ी पाठ ही प्रामाणिक माना जाएगा।
4. जिन राज्य सरकारों ने हिंदी को अपनी राजभाषा के रूप में अपना लिया है उनके साथ पत्र व्यवहार अंग्रेज़ी में होना चाहिए किंतु यदि हो सके तो भारत सरकार द्वारा भेजे गए सभी पत्रादि के साथ उनका हिंदी अनुवाद भी भेजा जाना चाहिए ताकि सांविधानिक कठिनाइयों का सामना न करना पड़े।
5. संविधान के उपबंधों का पालन करने के लिए ऊपर बताए गए तरीके के अनुसार काम शुरू करने से पहले राष्ट्रपति का आदेश ले लेना उचित होगा।
भारत सरकार ने ये निर्णय स्वीकार कर लिए हैं किंतु हर मंत्रालय स्वयं इस बात का निश्चय करेगा कि उसका कितना काम हिंदी में हो सकता है और इसके लिए उसे कितने और कर्मचारियों की ज़रूरत होगी। इस कार्यक्रम को अमल में लाने के लिए भारत सरकार के सभी मंत्रालयों और संबद्ध तथा अधीनस्थ कार्यालयों में संभवतः कर्मचारियों की संख्या बढ़ानी पड़ेगी और इस तरह उन्हें अधिक पैसा खर्च करना पड़ेगा। कार्यक्रम के वित्तीय पहलुओं पर वित्त मंत्रालय से सलाह करके विचार करना होगा। फिर भी सामान्य नीति के के रूप में इस विषय पर निर्णय कर लिया गया है और हिंदी में काम करने के लिए आवश्यक अतिरिक्त कर्मचारी मंत्रालय स्वयं रख सकते हैं और आवश्यकता पड़ने पर वित्त मंत्रालय से इस संबंध में सलाह भी कर सकते हैं।"

क्या इससे लगता है कि ब्यूरोक्रेसी ने सत्यनिष्ठा से कार्रवाई की? अनावश्यक रूप से वे शब्द डाले गए जिनसे अनिश्चतता पैदा हुई और लोगों ने यह धारणा बना ली कि जहाँ तक संभव होगा किया जाएगा।

अब राष्ट्रपति के आदेश और ज्ञापन की तुलना की जाए

"गैर सरकारी, गैर शिक्षण संस्थाओं द्वारा किए जा रहे कार्य ही वास्तव में हिंदी के प्रचार-प्रसार में ज़्यादा सहायक हैं।" इसका मतलब है कि अन्यत्र इस विषय में सकारात्मक सोच का अभाव है या नकारात्मक सोच सकारात्मक सोच पर अभिभावी हो गई है। हम एक ऐसी संस्था में कार्य कर रहे हैं जिसका स्वरूप अखिल भारतीय है और हमारा संपर्क अनेक भाषा भाषी व्यक्तियों से होता है। उस परिस्थिति में हमसे क्या अपेक्षित है और हमारा व्यवहार कैसा हो?
2. हम पहले इस पहलू पर विचार कर लें कि सकारात्मक सोच और नकारात्मक सोच क्या है और इसका प्रभाव किस प्रकार पड़ता है? - (क) साकरात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास समाधान होता है और नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास समस्या होती है। वह हर काम में समस्या देख लेता है। (ख) साकरात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास कार्यक्रम होता है और नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास बहाना होता है। (ग) साकरात्मक सोच वाला व्यक्ति काम करने का इच्छुक होता है और नकारात्मक सोच वाल व्यक्ति कहता है कि यह काम मेरा नहीं है। (घ) साकरात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास समस्या में समाधान होता है जबकि नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास समाधान में समस्या होती है। (ङ) साकरात्मक सोच वाले व्यक्ति के पास यह सोच होती है कि कठिन ज़रूर है पर असंभव नहीं है।

संगठन के स्तर पर सोच परिवर्तन

3. परिवर्तन को दो स्तर पर लागू करना होता है – संगठन के स्तर पर और कार्यान्वयन के स्तर पर। सबसे पहले संगठन के शीर्ष स्तर पर यह निश्चय और स्वीकार किया जाना चाहिए कि परिवर्तन आवश्यक है और होना चाहिए। उसके बाद कार्यान्वयन के लिए कार्य योजना का आरेखन (डिज़ाइनिंग) और फिर कार्यान्वयन करना। परिवर्तन के प्रबंध के लिए संगठन की ओर से वांछित कार्रवाई –
क) परिवर्तन के बारे में चरणबद्ध योजना बनाना,
ख) उसके बारे में लोगों के साथ संवाद,
ग) लोगों को दिशा निदेश देना,
घ) उभरने वाले प्रतिरोध (टकराव) का समाधान करना,
च) नियमित प्रशिक्षण।

राजभाषा अधिकारी – तृणमूल (ग्रास रूट) अभिकर्ता

4. यह मान लिया जाए कि हिंदी के प्रति, राजभाषा अधिकारी के अलावा अन्य लोगों की सोच नकारात्मक है क्योंकि हिंदी में काम करने के लिए वर्षों से बनी लीक छोड़ना होगा। कुछ नया प्रयास करना होगा। कुछ नया सीखना होगा अर्थात्, परिवर्तन। मनुष्य किसी भी परिवर्तन का सहज विरोधी होता है। अतः परिवर्तन के समय ही मानसिकता (सोच) का इजहार होता है। जो लोग परिवर्तन को स्वीकार करते हैं वे साकारात्मक सोच वाले होते हैं और जो इसका विरोध करते हैं उन्हें नकारात्म सोच वाली श्रेणी में रखा जाता है। जब भी कोई नई विचारधारा, नया उत्पाद, नई प्रणाली, नई व्यवस्था लागू करने का प्रयास किया गया तो उसके कार्यान्वयन के दौरान इन परिस्थितियों से होकर गुज़रना पड़ा। ये समय सिद्ध और स्वानुभूत स्थितियाँ हैं -

1) आवेशपूर्ण अस्वीकार (indignant rejection) -
2) तर्कपूर्ण आपत्ति (reasoned objection) -
3) सशर्त विरोध (qualified opposition) -
4) अस्थायी स्वीकृति (tentative acceptance) -
5) सशर्त सहमति/स्वीकृति (qualified endorsement) -
6) तर्कसंगत संशोधन (judicious modification) -
7) सवाधानीपूर्वक प्रचार (cautious propagation) -
8) भावनात्मक गठबंधन (impassioned espousal) -
9) गर्वपूर्ण पितृत्व (proud parenthood) -
10) अंधभक्तिपूर्वक प्रचार (dogmatic propagation)।

5. हम यहाँ राजभाषा हिंदी को नई विचारधारा या नई व्यवस्था के रूप में लेते हैं और विचार करते हैं कि इन मनोभाषिक बाधाओं से कैसे निपटा जाए? इसके लिए हम उदाहरण लेंगे राष्ट्रपति के 1960 के आदेश का। आप जानते हैं कि राजभाषा आयोग ने 1956 में अपना प्रतिवेदन दिया था और उस प्रतिवेदन में की गई सिफ़ारिशों पर विचार करने और उनके विषय में अपनी राय देने के लिए 30 सांसदों की समिति गठित की गई थी। समिति ने राजभाषा आयोग, 1956 के प्रतिवेदन में की गई सिफ़ारिशों पर विचार करके 8 फ़रवरी 1959 को अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत की। समिति ने अपनी रिपोर्ट में पाँच बातें लिखी थीं –

(क) राजभाषा के बारे में संविधान में बड़ी समन्वित योजना दी हई है। इसमें, योजना के दायरे से बाहर जाए बिना स्थिति के अनुसार परिवर्तन करने की गुंजाइश है।

(ख) विभिन्न प्रादेशिक भाषाएं राज्यों में शिक्षा और सरकारी काम-काज के माध्यम के रूप में तेज़ी से अंग्रेज़ी का स्थान ले रही हैं। यह स्वाभाविक ही है कि प्रादेशिक भाषाएं अपना उचित स्थान प्राप्त करें। अतः व्यावहारिक दृष्टि से यह बात आवश्यक हो गई है कि संघ के प्रयोजनों के लिए कोई एक भारतीय भाषा काम में लाई जाए। किंतु यह आवश्यक नहीं है कि यह परिवर्तन किसी नियत तारीख को ही हो। यह परिवर्तन धीरे-धीरे इस प्रकार किया जाना चाहिए कि कोई गड़बड़ी न हो और कम से कम असुविधा हो।

(ग) 1965 तक अंग्रेज़ी मुख्य भाषा और हिंदी सहायक राजभाषा रहनी चाहिए। 1965 में हिंदी संघ की मुख्य भाषा हो जाएगी किंतु उसके उपरांत अंग्रेज़ी सहायक भाषा के रूप चलती रहनी चाहिए।

(घ) संघ के प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रज़ी के प्रयोग पर कोई रोक इस समय नहीं लगाई जानी चाहिए और अनुच्छेद 343 के खंड (3) के अनुसार इस बात की व्यवस्था की जानी चाहिए कि 1965 के उपरांत भी अंग्रेज़ी का प्रयोग उन प्रयोजनों के लिए जिन्हें संसद विधि द्वारा उल्लिखित करे, तब तक होता रहे जब तक कि वैसा करना आवश्यक रहे।

(ङ) अनुच्छेद 351 का यह उपबंध कि हिंदी का विकास ऐसे किया जाए कि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके, अत्यंत महत्वपूर्ण है और इस बात के लिए पूरा प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए कि सरल और सुबोध शब्द काम में लाए जाएं।

6. संसदीय समिति की उक्त रिपोर्ट संसद के दोनों पटलों पर अप्रैल 1959 में रखी गई उस पर सितंबर 1959 में चर्चा हुई और उसके बाद राष्ट्रपति ने 27 अप्रैल 1960 को आदेश जारी किया। उस आदेश में कुल 14 मदें हैं और प्रारंभिक तौर पर उनका कार्यान्वन किया जाना था। अतः अन्य बातों के साथ-साथ हिंदी का शिक्षण प्रशिक्षण भी दिया जाना था इसलिए अंतर्सेवाकालीन प्रशिक्षण के लिए हिंदी शिक्षण योजना का प्रारंभ हुआ। परंतु राष्ट्रपति के उस आदेश को मद्रास उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई कि यह आदेश मौलिक अधिकारों का हनन है। हमें ज़बरदस्ती हिंदी सिखाई जा रही है। हालाँकि उच्चतम न्यायालय ने इस बात को सही नहीं पाया और याचिका खारिज कर दी गई। इतना ही नहीं, आज हम जिन उपयोगी वस्तुओं के बिना नहीं रह सकते, जैसे, जेम्सवाट का स्टीम इंजन, ग्राहमवेल का फ़ोन, आइंस्टीन व गैलीलियो के आविष्कारों को भी लोगों ने तुरंत नहीं स्वीकारा था क्योंकि नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति ज़्यादा मुखर होते हैं। उन्हें मनाने के लिए सुनियोजित ढंग से प्रयास करना होता है। ऐसा भी नहीं है कि नकारात्मक सोच वाले सदैव गलत ही होते हैं। वे हमें, अपनी कमियों को सुधारने में प्रेरक होते हैं। इसीलिए कबीर ने कहा है कि 'निंदक नेड़े राखिए आंगन कुटी छवाय'। इसलिए नकारात्मक सोच को प्रथम चरण से चलाकर आठवें चरण तक लाने के प्रयास करना पड़ेगा। उसके बाद तो वे आपका धर्मध्वज स्वयं अपने हाथ में ले लेंगे और फिर आप प्रत्यक्ष दृश्य से पीछे आ जाएं जिस प्रकार कि रामचंद्र जी ने हनुमान को स्वतंत्र छोड़ दिया था। आप एक नेता हैं। नेता को तभी तक आगे रहना चाहिए जब तक कि आपके अनुयायी आगे नहीं आ जाते। अभी अनुयायी चलने को ही तैयार नहीं हैं। उन्हें चलने से लेकर आगे आने तक आपको अथक परिश्रम करना है। मनोवृत्ति परिवर्तन के रास्ते में आए उक्त पड़ावों के सफ़र को तय करने के लिए ये कार्य करने होंगे –

क) अपने उद्देश्य और अपनी योजना के बारे में लोगों को जागरूक करना होगा,
ख) परिवर्तन के लिए लोगों में इच्छा जागृत करना होगा,
ग) लोगों के ज्ञान में वृद्धि करना होगा,
घ) क्षमता में वृद्धि करना होगा।
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