शुक्रवार, अप्रैल 01, 2011

ऐंग्लो इंडियन और अंग्रेज़ी का शूल


भारत में निवासी ऐसा व्यक्ति जो यूरोपीय वंश के पुरुष की भारत क्षेत्र में जन्मी संतान हो अथवा किसी ऐसे क्षेत्र में जन्मी हो जहाँ पर कि वह अस्थायी तौर पर न रहता रहा हो, ऐंग्लो इंडियन कहलाएगा। पंद्रह अगस्त 1947 को नए राष्ट्र के उदय के साथ ही ऐंग्लो इंडियन का संसार लुप्त हो गया। जहाँ एक तरफ, भारत ने 300 साल पुराने उपनिवेशवाद का चोला उतार फेंका था और भारत के स्वतंत्र नागरिक अपने भविष्य के सपने बुनने लग गए थे वहीं दूसरी तरफ़, ब्रिटिश अपने बिस्तर गोल कर रहे थे, अपनी गोल्फ़ की छड़ियाँ, अपनी फ़ौजी पोशाक तथा अपनी स्मृतियों को समेटकर अपने घर लौट रहे थे। जहाँ अन्य भारतवासी उनके जाने पर खुश हो रहे थे वहीं देश में एक ऐसा तबका भी था जो खुश होने के बजाय दुखी था। ये कौन लोग थे? ये वे लोग थे जो यूरोपीय मूल के अंग्रेज़, डच, फ़्रांसीसी और पुर्तगाली अफ़सरों, हुक़्मरान और व्यापारियों की वर्ण संकर संतानें थीं तथा अंग्रेज़, डच, फ़्रांसीसी और पुर्तगाली की संतानें होनो पर गर्वित थीं। ऐसे अंग्रेज़ पिता जब भारत छोड़कर जाने लगे तो अपनी अनचाही ऐंग्लो इंडियन औलादों को यहीं छोड़ गए। उन औलादों को उम्मीद थी कि वे भी उनके साथ लंदन जाएंगे जबकि अंग्रेज़ उन्हें छोड़ गए और अपनी जीवन शैली, समाज के आम आदमी से दूरी बनाए रखने की परंपरा और अंग्रेज़ी भाषा का तुर्रा दे गए। ये उन परंपराओं और खोखली तहज़ीब के बल पर कब तक यहाँ रह सकते थे? अतः इन लोगों ने भी कुछ दिनों बाद यहाँ से पलायन शुरू किया और धीरे धीरे, यहाँ से कनाडा, अमरीका, दक्षिण अफ़्रीका, यूरोप की राह पकड़ी। 1947 में ऐसे लोगों की संख्या लगभग 3,00,000 थी। परंतु अब यह संख्या घटकर लगभग1,00,000 रह गई है।
सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना आधिपत्य जमा लिया था और व्यापार तथा नौकरी के लिए भारी संख्या में अंग्रेज़ और यूरोपीय भारत आने लगे थे। परंतु उनकी पत्नियाँ लंबी समुद्री यात्रा को नहीं झेल पाती थीं इसलिए वे भारत नहीं आना चाहती थीं। ऐसे में अंग्रेज़, डच, फ़्रांसीसी और पुर्तगाली फ़ौजी अफ़सर, हुक़्मरान और व्यापारी यहीं पर भारतीय महिलाओं से शादी करने लग गए थे। शादी के बाद इन शादियों से उत्पन्न अपनी संतानों और पत्नी को भारत की देशी संस्कृति से अलग रखकर उन्हें वही संस्कार देने लग गए थे जो ब्रिटेन में प्रचलित थे। उनकी वर्ण उन संकर संतानों को वर्ण संकर होने पर कोई अमर्श नहीं था बल्कि वे लोग अपने आपको देशी लोगों श्रेष्टतर समझते थे।
बाद में, 19वीं शताब्दी में जब स्वेज़ नहर बन गई तब ब्रिटेन से भारत आने में लगने वाला समय बहुत कम हो गया और अंग्रेज़ महिलाएं भारत आने लगीं तथा भारत में कार्यरत या निवासी अंग्रेज़ों के साथ शादी करके यहीं पर रहने लगीं। ऐसी स्त्रियाँ अपने साथ अपनी श्रेष्ठता वाली और सफेद चमड़ी की अकड़पन के साथ-साथ वे सारे आचार-विचार, शिक्षा और व्यवहार भी लाईं। वे महिलाएं अपने आपको विक्टोरिया युग की वाहिका मानती थीं एवं भारत में रहने वाली संकर संतानों को हेय दृष्टि से देखती थीं। वे उन्हें ऐंग्लो नहीं बल्कि भारतीय से ज़्यादा कुछ नहीं समझती थीं। लेकिन भारत में रहने वाले वर्ण संकर लोग अपने आप को भारतीयों से श्रेष्ठ समझते थे क्योंकि वे अपनी मातृभाषा अंग्रेज़ी मानते थे और धार्मिक संस्कारों तथा लालन-पालन में अंग्रेज़ों की नकल करते थे। वे अपनी शादियाँ भी उन्हीं ऐंग्लों इंडियनों के बीच करते थे। वे अक्सर, ब्रिटेन से आए लोगों से ही शादियाँ करना पसंद करते थे। ऐसे लोग बहुत कम और नगण्य संख्या में थे जो भारतीयों से शादी करना चाहते थे। अंग्रेज़ों ने अपने और ऐंग्लो इंडियनों के बीच जो संकुचित, कठोर अनुशासन की खाईं, वर्जनाएं एवं अलगावपन बना रखे थे वही खाईं वर्ण संकर अंग्रेज़ों और अन्य भारतीयों के बीच बरकरार रहीं। न तो अंग्रेज़ और न ही भारतीय वर्ण संकर ऐंग्लो इंडियन भारतीय संगीत, नृत्य, रंगमंच या किसी कलात्मक बातों में रुचि लेते थे। ये लोग भारतीयों को मूर्ति पूजक, गंदे, ज़मीन पर बैठकर खाना खाकर उंगली चाटने वाले असभ्य मानते थे जो लोग खुले में नाक साफ करते थे, खुले में शौच करते थे और रास्ते पर थूकते थे। परंतु इन ऐंग्लों इंडियनों को यह मलाल था कि अंग्रेज़ों ने उनके साथ छल किया है। ये लोग अंग्रेज़ों के इस व्यवहार पर आश्चर्यचकित भी थे कि उन्होंने इन्हें इनके पुरखों की ज़मीन पर बुलाने और कुछ शिष्टाचार दिखाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया।
अंग्रेज़ों के जाने के बाद ये ऐंग्लों इंडियन मैकाले की नाति के धर्म ध्वजी बने और भारत में अंग्रेज़ी तथा अंग्रेज़ियत को बनाए रखने के लिए जीतोड़ कोशिश करते रहे ताकि अपने को देशी जनता से अलग और श्रेष्ठतर साबित कर सकें। तभी तो संविधान समिति में शामिल होकर न केवल अंग्रेज़ी भाषा को देश में रोकने में सफल रहे बल्कि ऐंग्लो इंडियनों के लिए विशेष स्थान भी सुरक्षित कर लिया। इतना ही नहीं 1963 में, ऐंग्लो इंडियन नेता फ़्रैंक एंथोनी ने नेहरू जी को प्रभावित करके देश की छाती में अनंतकाल तक अंग्रेज़ी का शूल गाड़ दिया जिसे निकालने की क्षमता तथाकथित स्वदेशी और हिंदुस्तानी के पोषकों में भी नहीं है।   

   

 

         



शनिवार, मार्च 26, 2011

हिंदी के अंतरराष्ट्रीय स्वरूप और यूनीकोड प्रणाली पर संगोष्ठी – पर एकरूपता का अभाव


विश्वेश्वरैया राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, नागपुर ने 25 मार्च को अपने परिसर में हिंदी के अंतरराष्ट्रीय स्वरूप और यूनीकोड प्रणाली पर संगोष्ठी आयोजित की थी और मुझे उसमें यूनीकोड पर जानकारी देने के लिए आमंत्रित किया था। उन्होंने इसी विषय पर चर्चा के लिए भारतीय स्टेट बैंक के मुख्य अधिकारी श्री मनमोहन सोलंकी को भी आमंत्रित किया था जिसके बारे में कार्यक्रम में उल्लेख नहीं था। बाद में पता चला कि  श्री सोलंकी भी चर्चा करेंगे। मुझे क्या ऐतराज हो सकता था? परंतु बाद में एहसास हुआ कि बिना गहन अध्ययन और पल्लव ज्ञान में क्या फ़र्क़ होता है?

 

संगोष्ठी का उद्घाटन दत्ता और मेघे चिकित्सा संस्थान, वर्धा के कुलगुरु डॉ. वेदप्रकाश मिश्र ने किया और अपने धारा प्रवाह, मंत्रमुग्ध कर देने वाले भाषण में कहा कि हिंदी राष्ट्रीय एकता की, सभी भाषाओं  में संवाद और सहचारिता की भाषा है। उन्होंने बताया कि हिंदी विश्व के 26 देशों में पढ़ाई जाती है और उन देशों में हिंदी बोलने वालों की संख्या एक-एक लाख से भी अधिक है। दुनिया के छह ऐसे देश हैं जहाँ हिंदी प्रमुख भाषा है। नवीनतम जन गणना के अनुसार देश में 65.9 करोड़ लोग हिंदी का प्रयोग करते हैं। विश्व में इसका स्थान तीसरे से उठकर दूसरा हो गया है। तो क्या अब भी बताने की ज़रूरत है कि हिंदी का क्या महत्व है? मेरे विचार से हिंदी का मूल्यांकन संख्या से नहीं बल्कि इसके विस्तार और इसकी उपयोगिता के मानदंड से करना चाहिए। आज विदेशों में रह रहे भारतीयों की समस्या यह हो गई है कि अपनी अगली पीढ़ी को अपनी संस्कृति की वाहिका हिंदी कैसे सिखाई जाए? लोग उन्हें हिंदी सिखाना चाहते हैं परंतु सुविधा की कितनी कमी है।  

 

इस संबंध में दि नांक 11,12,और 13 मार्च को क्रमश: बर्मिंघम ,नॉटिंघम और लंदन में आयोजित कि अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मलेन का उल्लेख करना चाहता हूं। सम्मलेन में, हिंदी के अंतरराष्ट्रीय स्वरूप और उसके शिक्षण की कार्य प्रणाली और और उसके मकसद को लेकर सार्थक  सवाल उठाए गए, जैसे, विदेशों में हिंदी किस मकसद से पढ़ाई जा रही है? उसका मकसद सिर्फ अपनी जड़ों से जुड़े रहने के लिइ थोड़ा बहुत बोल समझ लेना है या उससे आगे भी कुछ है? क्या हिंदी को देवनागरी छोड़कर सुविधा के लिए रोमन के माध्यम से सिखाना चाहिए? नए मानकों के साथ  हिंदी पढ़ाने का तरीका क्या होना चाहिए क्योंकि विदेशों में हिंदी के अध्यापन का कार्य ज़्यादातर अनट्रेंड अध्यापकों द्वारा स्वयंसेवक के तौर पर किया जाता है।

 

इसका उल्लेख करने का मक़्सद यह है कि विदेशों में रह रहे छात्रों को हिंदी भाषा सिखाने के लिए किन कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, जैसे, बदलते हिंदी के मानकों को सुलझाने का प्रयास करना, हिंदी किताबों में ही इन मानकों को लेकर विरोधाभास को समाप्त करना। वहाँ पर, छात्रों में व्याप्त भ्रम को दूर करने के लिए हिंदी की वर्तनी के मानकीकृत रूप को प्रचलित करने की आवश्यकता पर बल दिया जा रहा है और यहाँ, कैसा विरोधाभास है कि जिन बातों के बारे में विदेशों में लोग चिंतित हैं हम उन्हीं को बढ़ाने में लगे हैं। इस संगोष्ठी में, हिंदी की वर्तनी के मानकीकृत रूप को ताक पर रखकर व्यक्तिगत पसंद को लागू रखने की सिफ़ारिश की जा रही थी। इतना ही नहीं, कंप्यूटर पर यूनीकोड (यूनीवर्सल) में टाइपिंग की बात की जाती है परंतु यूनीफ़ॉर्म कीबोर्ड की बात को नज़र अंदाज़ किया जा रहा था। मुझे तो बड़ा आश्चर्य होता है जब हिंदी अधिकारी भी ट्रांसलिटरेशन पद्धति द्वारा हिंदी टाइप करने की सलाह देते हैं। वे यह भलीभाँति जानते हैं कि ट्रांसलिटरेशन पद्धति द्वारा हिंदी टाइप करने में 50 % तक अधिक स्ट्रोक मारने पड़ते हैं जिससे टाइपिंग की गति कितनी बाधित होती है। अतः ऐसी भ्रम सर्जक संगोष्ठियाँ आयोजित करने से तो अच्छा है कि संगोष्ठी न ही आयोजित की जाए। यह महज औपचारिकता है। इससे हिंदी का भला होने के बजाय अहित हो रहा है। हिंदी लिखने  के लिए देवनागरी लिपि के बजाय रोमन लिपि के दुष्प्रभाव के बारे में मेरा विचार है कि रोमन वर्णमाला और रोमन लिपि अत्यंत दोषपूर्ण हैं। जिन ध्वनियों का हम उपयोग कर सकते हैं उन्हें लिखने में नितांत असमर्थ है। जो लोग रोमन लिपि का इस्तेमाल करके हिंदी लिख रहे हैं या हिंदी लिखने के लिए रोमन प्रणाली का उपयोग करने की सलाह देते हैं वे जाने अनजाने हिंदी भाषा व संस्कृति का अहित कर रहे हैं। मैं इस बात का सख्त हिमायती हूं कि हिंदी की लिपि और लेखन में एकरूपता होनी ही चाहिए। इस विषय पर व्यापक और गंभीरता से वैज्ञानिक चर्चा की ज़रूरत है। कंप्यूटर पर हिंदी टाइपिंग के लिए केवल एक ही लेआउट का उपयोग किया जाए और इसीका प्रशिक्षण दिया जाए। इससे इस लेआउट में भी सुधार के सुझाव मिलेंगे और विश्व स्तर पर एकरूपता का सृजन होगा। 

 

इस पर चिंतन और इसका अनुशीलन किया जाना चाहिए।

बुधवार, मार्च 23, 2011

नई शब्दावली - पोमैटो – एक ही पौधे से आलू और टमाटर दोनों पाएं


आपने वह चुटकुला तो सुना होगा कि विज्ञान ने क्या चमत्कार कर दिया है कि रेल की ऊपरी बर्थ अमृतसर जा रही है और निचली बर्थ चेन्नै। परंतु कृषि वैज्ञानिकों ने इसे सही साबित कर दिया है। यदि विश्वास न होतो इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.ehow.com/how_2308286_grow-pomato-plant.html  । अब आप एक ही पौधे से आलू और टमाटर दोनों पा सकते हैं। इस पौधे का नाम है – "पोमैटो" (Pomato).  यह नाम "Potato" से  "Po" लेकर तथा "Tomato"  से "amto" लेकर "Pomato" रखा गया। इस पौधे का वानस्पतिक चित्रण इस प्रकार है – 
एक ही पौधे में ऊपर टमाटर और नीचे आलू
वानस्पतिक विवरण

 

नई शब्दावली - जीप व किमीर (Geep, Chimera)


सन् 1978 में ऑस्ट्रेलिया के एक वैज्ञानिक, डॉ. आर. एस. ह्वाइट ने बकरी और भेड़ के भ्रणों (embryo) को एकसाथ मिलाकर एक संकर नस्ल की जीव बनाया जिसमें बकरी और भेड़ दोनों के गुण थे। गर्भावस्था में तीसरे माह के भ्रूण को लैटिन भाषा में एम्ब्रियो (embryo) कहा जाता है। उनकी शक्ल सूरत इन दोनों जानवरों से भिन्न थी और परंतु दोनों का मिश्रण थी। चूंकि किमीर दो अलग-अलग जातियों के भ्रणों को लेकर बनाया गया था इसलिए इसमें चार पितृ का समावेश था, नर-मादा दो भेड़ तथा नर-मादा दो बकरी। ये दोनों भ्रूण प्राकृतिक रूप से क्रमशः नर-मादाओं के संभोग से बने थे। इसलिए ये दो भिन्न जाति के जानवरों, अर्थात्, भेड़ और बकरी के प्रकृतिक संभोग से उत्पन्न संकर संतान ते भिन्न थे। प्रारंभ में इसका नाम "goat" से  "g" लेकर तथा "sheep"तथा "sheep" से "eep" लेकर "geep"रखा गया। परंतु बाद में इसका नाम किमीर (chimera) रख दिया गया। लैटिन में किमीर का मतलब होता है, शेर के सिर, बकरे के धड़ और साँप की पूंछ वाला कल्पित शैतान या राक्षस। geep का चित्र निम्नप्रकार है।



रविवार, मार्च 13, 2011

राजभाषा हिंदी के बारे में मनोवृत्ति परिवर्तन की आवश्यकता


कार्यालयों में अंग्रेज़ी का प्रयोग आज भी उसी प्रकार व उतनी ही मात्रा में हो रहा है जितना कि 1965 से पहले हो रहा था। हिंदी प्रयोग के आंकड़े कितने सही और वास्‍तविक हैं यह तो राजभाषा कक्ष/अनुभाग/विभाग के प्रभारी ही जानते हैं। इससे भी ख़तरनाक बात यह है कि हिंदी के प्रश्‍न को संविधान में अनंत काल तक के लिए टाल दिया गया है। हिंदी के प्रयोग के बारे में आज तक जितनी भी समितियां, आयोग बने किसी ने भी हिंदी के प्रश्न को समय सीमा से परे रखने की सिफ़ारि‍श नहीं की थी। लेकिन हिंदी के विरोधी और नकारात्मक मनोवृत्ति तथा अंग्रेज़ी के आधार पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के हिमायतियों ने यह दलील दी कि हिंदी के कारण देश के टुकड़े हो जाएंगे। अतः अंग्रेज़ी को विकल्प के रूप में रखा जाना अपरिहार्य है। क्या सचमुच ऐसा है? इसका अखिल भारतीय स्तर पर अध्ययन किया जाना चाहिए और उस अध्ययन के आधार पर संविधान में संशोधन करके अनिश्चितता समाप्त की जानी चाहिए। हिंदी ब्लॉगर बंधुओं का आह्वान करता हूं कि राजभाषा के बारे में भी चिंतन करें और जनमत तैयार करें ताकि संविधान संशोधन का रास्ता प्रशस्त हो। संविधान में कर दिए गए अनिश्चतता के प्रावधान के प्रति अंग्रेज़ीदाँ की विगलित मानसिकता ही ज़िम्मेदार है। इस मानसिकता के निवारण हेतु सामाजिक स्तर पर कार्य किया जाना चाहिए। 

बुधवार, मार्च 09, 2011

महिलाओं के प्रति लैंगिक भेदभाव और यौन उत्पीड़न - अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस


राजभाष विकास परिषद द्वारा अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (आठ मार्च) के अवसर पर दो दिवसीय सेमिनार आयोजित किया था। इसमें बैंकों और सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं की महिला अधिकारियों ने भाग लिया। विभागों के प्रमुखों ने इस कार्यक्रम में कार्यरत पुरुषों को भेजना उचित नहीं समझा। इसके तो आयोजक पुरुष थे परंतु सहभागी महिलाएं ही रहीं। ऐसा करके पुरुष वर्ग ने यह संदेश दिया है कि महिलाओं को अपनी लड़ाई स्वयं ही लड़नी है। इसलिए वे अपने अधिकारों के बारे में जान लें और समाज में लैंगिक भेदभाव या उनपर हो रहे अन्याय के प्रति अपनी आवाज़ उठाएं।

इस दो दिवसीय कार्यक्रम में 'सेक्‍सुअल हरैसमेंट ऑफ़ वीमेन ऐट वर्क प्‍लेस' विषय के विवधि पहलुओं पर चर्चा की गई। इन विषयों पर चर्चा करने के लिए कानून के जानकार, शिक्षण और न्‍यायालयों में कानून की प्रैक्टिस करने वाले न्‍याय विदों को आमंत्रित किया गया थासहभागियों ने अपनी सक्रिय सहभागिता द्वारा कार्यक्रम को उपयोगी बनाया और अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि इस प्रकार के कार्यक्रम में महिलाओं को तो आना ही चाहिए साथ ही पुरुषों को भी आना चाहिए ताकि उन्हें ज्ञात हो सके कि महिलों की स्थिति क्या है और उन पर किस प्रकार से ज़्यादतियाँ हो रही हैं? चर्चा में कहा गया कि यद्यपि संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ ने 1910 से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कार्य करने के लिए अनेक कॉन्वेंशन आयोजित की और 8 मार्च को अंतरराष्‍ट्रीय महिला दिवस मनाने की घोषणा की थी उसके 36 वर्ष बाद 1946 में 'महिलाओं के अधिकार' विषय पर विचार किया था और 'कॉमिशन ऑन स्‍टेटस ऑफ़ वीमेन' गठित किया था परंतु बहुत वर्षों तक इस पर गंभीरता से कार्रवाई नज़र नहीं आती है। लेकिन ह्यूमन राइट को विश्‍व के अनेक देशों में महत्‍वपूर्ण माना गया और इस पर गंभीरता से अमल जारी रखा। विशेष और गंभीर प्रयासों की शुरुआत 1975 के बाद ही देखने में आती है। संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ ने 1975 को अंतरराष्‍ट्रीय महिला वर्ष घोषित किया और 1975 (मैक्सिको), 1980 (कोपेनहेगेन), 1985 (नैरोबी) तथा 1995 (बीजिंग) में सम्‍मेलन आयोजित किए। इसमें लिंग के आधार पर भेदभाव समाप्‍त करने तथा महिलाओं के सशक्तीकरण के मामले पर वचनबद्धता को पूरा करने का संकल्‍प लिया गया था। भारत में भी महिलाओं के अधिकार और उनके प्रति होने वाले अनैतिक व्‍यवहारों से निपटने के लिए कई कानून बनाए गए परंतु महिलाओं के कार्यस्‍थल पर यौन उत्‍पीड़न के नि‍वारण के लिए अलग से अधिनियम अथवा कानूनी प्रावधान नहीं बनाए गए ।

वर्षों से इससे संबंधित अपराधों को भारतीय दंड संहिता (इंडियन पीनल कोड) के अंतर्गत किए गए प्रावधानों के  अनुसार कार्रवाई होती रही है। परंतु इस बारे में अलग से व्‍यवस्‍था की आवश्‍यकता और मामले की गंभीरत को महसूस करके उच्‍चतम न्‍यायालय ने 1997 में पहली बार 'वि‍शाखा और अन्‍य बनाम राजस्‍थान सरकार' मामले में कुछ मार्गदर्शी सिद्धांत सुझाए और सरकार को निदेश दिया कि जब तक कि भारत के संसद द्वारा इस बारे में कोई उपयुक्‍त कानून नहीं बनाया जाता तब तक उच्‍चतम न्‍यायालय के इस मार्गदर्शी सिद्धांत को, संवि‍धान के अनुच्‍छेद 141 के अनुसार कानून माना जाए और किसी भी कार्यस्‍थल पर चाहे वह सरकरी या निजी हो, इसका अनुसरण किया जाए।

भारत सरकार ने 'सेक्‍सुअल हरैसमेंट ऑफ़ वीमेन ऐट वर्क प्‍लेस (प्रिवेंशन, प्रॉहिवशिन ऐंड रिड्रेसल, 2006) नामक वि‍धेयक तैयार किया था। उस बिल में पुनः संशोधन किया गया और उसे ''दि प्रोटेक्‍शन ऑफ़ वीमेन अगेंस्‍ट सेक्‍सुअल हसमेंट ऐट वर्क प्‍लेस बिल, 2007'' नाम से वेबसाइट के पब्लिक डोमेन में रखा और अनुरोध किया कि इसमें सुझाव दिया जाए। चूंकि वह बिल अभी भी संसद द्वारा पारित करने के लिए संसद के समक्ष लंबित है और इस बीच मीडिया में, हरि‍याण के भूतपूर्व डी. जी. पी. का मामला बहुत उछाला गया इसलिए सरकार ने इसमें कुछ और संशोधन करने के विचार से पुनः विचार आमंत्रित किया है तथा इस वर्ष इसे पास करने का मन बना लिया है। इसमें छह अध्‍याय, 40 धाराएं और तीन अनुसूचियां थीं। अब इसमें पांच अध्‍याय, 22 धाराएं और एक अनुसूची है जिसमें विभिन्‍न कार्यस्‍थलों का विवरण दिया गया है। यह व्‍यापक व सरल भाषा में बनाया गया विधेयक है जो पास होने पर उपयोगी सिद्ध्‍ा होगा।

चर्चा के दौरान बात उठी कि आजकल मुंह पर कपड़ा बांधकर लड़कियां झुंड में अपनी सहेली को मिलने के लिए किसी हाउसिंग सोसायटी में आती हैं तो सोसायटी का भी उनकी आइडेंटिटी की जांच नहीं कर पाता है। ऐसे में सुरक्षा के मामले में ख़तरे का अंदेशा  बढ़ता जा रहा है। यदि कोई आपत्ति उठाकर उसे हटाने के लिए कहता है तो उसपर सेक्सुअल हैरेसमेंट का मामला आईपीसी की धारा 354 का मामला बन जाता है। इसपर मेरा कहना था कि यदि आज की महिला खुद को ढंक कर रखना चाहती है तो पर्दा प्रथा या बुर्क़ा प्रथा को ख़राब क्यों कहा जाता है। जवाब था वह पुरुष समाज द्वारा थोपी गई थी। यह हमने ने अपनी मर्ज़ी से अपनाया है। अपनी ज़रूरत के अनुसार। व्यक्ति स्वातंत्र्य।  पहले हम, समाज बाद में।

क्या रुपए का नया प्रतीक क्षेत्रीयता का परिचायक है?