मंगलवार, मई 24, 2011

ललित लेखन और शब्द शक्तियाँ

ललित लेखन जिसमें कोई बंधन नहीं है सोच का, शब्द का, विषय का। साहित्य समाज का दर्पण है। इसमें समाज का हू-ब-हू अक्स दिखता है। अतः समाज में जो घटित होता है उसका चित्रण ही साहित्य है। इस प्रकार का साहित्य कितना प्रभावी है? पढ़ने में कितना रुचिकर है? भाषा की दृष्टि से कितना संप्रेषणीय है? यह सब तो पढ़ने वाले के भाषा ज्ञान, विषय ज्ञान, सामाजिक परिस्थितियों के ज्ञान तथा संस्कार पर निर्भर करता है। परंतु कुछ लेखक हर परिस्थिति में अपनी छाप छोड़ जाते हैं और पाठक के हृदय को छू जाते हैं। प्रेमचंद, अमृत लाल नागर, महादेवी वर्मा, पंत, निराला जैसे कालजयी साहित्यकारों की रचनाएं ऐसी शक्तियों से परिपूर्ण हैं।

ये शब्द शक्तियाँ क्या हैं? साहित्य में तीन प्रकार की शब्द शक्तियों का उल्लेख मिलता है – अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। इनके अलावा सूक्ति, कहावत और मुहावरे, अलंकार भी हैं जिनके प्रयोग से लेखन की धार पैनी हो जाती है। परंतु आज कल के लेखन में इनका अभाव होता जा रहा है। लेकिन जिन लेखकों ने इनके महत्व को समझा है और इनका उपयोग किया है उनके लेखन में पाठकों को आनंद मिला है। अभी गिरिजा कुलश्रेष्ठ की एक कहानी – मास्टरसाब – पढ़ी। अनेक स्थलों पर भाषा की प्रभाविता तो देखने में आई ही, एक स्थान पर उन्होंने मुहावरे का उपयोग किया जो बहुत ही सटीक रहा। बुढ़ापे में नींद कुछ कम हो जाती है और ऐसे में जो थोड़ी बहुत नींद आए और उसमें किसी के कृत्य से खलल पड़ जाए तो खीझ उत्पन्न होती है और उस खीझ को व्यक्त करने के लिए यदि उपमान तथा मुहावरे के प्रयोग से व्यक्त किया जाए तो उसका प्रभाव कुछ और ही होगा। लेखक ने इस खीझ को कैसे व्यक्त किया है देखें - आजकल उनकी नींद चार बजे ही खुल जाती है और इसके लिए उन्हें पड़ोसी गणपति के मुर्ग़े से शिकायत है। कमबख़्त ठीक चार बजे इतनी ज़ोर से चिल्लाता है मानो उसके दड़वे में डाका पड़ गया हो -। यहाँ "चिल्लाने" शब्द और "डाका पड़ जाने" अभिव्यक्ति से जो प्रभाव उत्पन्न होता है और जो बिंब उभरता है वह सीधे सपाट शब्दों से नहीं उभरता। मुर्ग़े की बाँग किसी के लिए आवश्यक हो सकती है तो किसी के लिए अनावश्यक। यहाँ जिस लक्षणा शब्द शक्ति का उपयोग हुआ उसकी जगह अभिधा काम नहीं कर सकती थी।

ग़ालिब ने अपने एक शेर में कहा है – "मौत का इक दिन मुअय्यन है, नींद क्यों रातभर नहीं आती? " इस शेर का आमतौर पर तो यही अर्थ है कि मौत तो एक दिन आएगी फिर डरना किस बात के लिए। "मौत का इक दिन मुअय्यन है" का अभिधार्थ तो यह है कि "मौत दिन में आएगी", फिर रात में तो निश्चिंत होकर सोना चाहिए। इसका व्यंजना से जो अर्थ निकलता है वह यह है कि एक न एक दिन तो संसार से जाना ही है। वह तो मुक़र्रर (मुअय्यन) है फिर क्यों चिंता ग्रस्त हो बेचैन रहता है इंसान।
शब्द की शक्ति उसमें छिपे (अंतर्निहित) अर्थ को व्यक्त करने का प्रकार्य (फ़ंक्शन) है। अर्थ का बोध कराने में शब्द कारण है और अर्थ को बोध कराने वाले प्रकार्य – अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। आचार्यों ने इन्हीं को "शक्ति" या "वृत्ति" का नाम दिया है। अभिधा में तो शब्द के मुख्य अर्थ का बोध होता है। लक्षणा में मुख्य अर्थ के बजाय अन्य अमुख्य अर्थ का बोध होता है जिसे लक्षण से जाना जाता है, जैसे, "गधा" शब्द बुद्धिहीनता का प्रतीक माना जाता है। अब यदि किसी इंसान को "गधा" कहा जाए तो इसका लाक्षणिक अर्थ ही अभिप्रेत होगा। इस प्रकार लक्षणा की तीन परिस्थितियाँ होती हैं – 1.मुख्य अर्थ का बाधित होना अर्थात् मुख्य अर्थ नहीं लिया जाना है, जैसे, "गधा" कहने से "गधे का अर्थ" नहीं लेना है, 2. मुख्य अर्थ के बजाय लक्ष्यार्थ अभिप्रेत होता है, जैसे, "मूर्ख" अर्थ अभिप्रेत है, 3. आरोपित अर्थ रूढ़ हो गया हो, जैसे, गधा का अर्थ मूर्ख के लिए रूढ़ हो गया है। व्यंजना शक्ति शब्द के मुख्य अर्थ और लक्ष्यित अर्थ को पीछे छोड़ती हुई उसके मूल में छिपे अकथित अर्थ का बोध कराती है। अभिधा और लक्षणा अपने अर्थ का बोध करा कर जब पीछे हट जाती हैं तब सहायता के लिए व्यंजना आगे आती है। जब अभिधा और लक्षणा अभीष्ट अर्थ को बोध कराने में असमर्थ रहती हैं तब व्यंजना शक्ति का ही सहारा लेना पड़ताहै। अभिधा और लक्षणा का अर्थ केवल शब्द से होता है परंतु व्यंजना का अर्थ व्यंजक होता है। कथित और लक्ष्यित न होने पर भी सहृदय द्वारा उसका अर्थ समझ लिया जाता है। अतः शब्द शक्तियाँ लेखन को धारदार, रुचिकर और संप्रेषणीय बनाती हैं।
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