शनिवार, अक्तूबर 08, 2011

संघीय भारत की कल्पना


सिलिकॉन इंडिया में मिथ ऑफ़ यूनाइटेड इंडिया शीर्षक से एक लेख लिखा गया है जिसमें कई बातें विरोधात्मक हैं और नकारात्मक प्रभाव वाली हैं क्योंकि इसमें जिन राज्यों और आंदोलनों का ज़िक्र किया गया है उनका आधार केंद्र सरकार को निर्दयी, अत्याचारी और अन्यायी बताना है जो कि अखिल भारतीय स्वरूप की होती है जो भारत के सभी राज्यों के चुने हुए प्रतिनिधियों से या उनके सहयोग से बनी है। अब जो सत्ता से बाहर है, सत्ता में आना चाहता है परंतु उसकी इतनी फ़ॉलोइंग नहीं है कि वह सरकार बना सके तो वह देश में विघटन वाली गतिविधियों में लगा गया है तथा षडयंत्र में लगा हुआ है वह बुद्धिजीवी लोगों को उकसाकर अपने उद्देश्य के मुताबिक लोकमत तैयार करने के लिए ऐसे ही लेख लिखवा रहा है। वे लोग कभी भाषा का प्रश्न उठाते हैं, कभी धर्म का मुद्दा उछालते हैं, कभी क्षेत्रवाद का, कभी जाति का, कभी भ्रष्टाचार का। मतलब यह कि आम आदमी को जो मुद्दा अपील कर जाए उसे ही उछाल दिया जाए और लोगों को भड़काया जाए।
देश के चार पुराने राज्य स्वयंप्रभु देश बनने के लिए बेताब हैं और अपने वाग्जाल में उल्झाकर आम जनता को उस क्षेत्र से बाहर जाने के लिए सक्षम ही नहीं होने दे रहे हैं। इन राज्यों में से दो तो धर्म और मजहब या क़ौम के नाम पर और दो राज्य भाषा के नाम पर। वे राज्य हैं - पंजाब, कश्मीर और तमिलनाडु तथा नागालैंड। पंजाब और कश्मीर के लोग तो भाषा के मामले में देश के अन्य क्षेत्रों से जुड़ने में सक्षम हैं  क्योंकि वे लोग अपनी भाषा के अलावा देश की बहु प्रचलित भाषा हिंदी भी जानते हैं। परंतु तमिलनाडु और नागालैंड के लोग तो भाषा के नाम पर लोगों को बरगलाए हुए हैं। लेकिन आम जनता अब इस बात को समझने लग गई है और आम धारा एवं पूरे देश से जुड़ने के लिए हिंदी भाषा सीख रहे हैं। तमिलनाडु सरकार तो 1962 में ही रेज़ालूशन पास करके वह माँग छोड़ चुकी है और नागालैंड का सपना भी साकार होता नहीं दिखता है। इसने तो अब तक अपनी कोई भाषा ही नहीं घोषित की। क्या राज्य में कोई भाषा ही नहीं है? नागामी आम भाषा है जिसे राज्य की राजभाषा घोषित किया जा सकता है। परंतु मुट्ठीभर लोग राज्य पर कब्ज़ा जमाकर लोगों को बरगालाए हुए हैं। पंजाब तो प्रगतिशील राज्य है और वह भी संकुचित विचार छोड़ ही चुका है। अतः सिलिकॉन इंडिया के लेख में दर्शाया गया चित्र पूरे देश या राज्य का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। ऐसे लेखों को पढ़ा जाना चाहिए और अपने ज्ञान में वृद्धि करना चाहिए। परंतु उन लेखों को दूसरों को भेजकर उसपर सहमति प्राप्त करने का प्रयास करना सोद्देश्यपूर्ण षडयंत्र लगता है। यह सोचना कि दूसरे अनभिज्ञ हैं और उन्हें दिशा दिखाने की ज़रूरत है, मुझे तो नासमझी लगती है। उसके बारे में कुछ लोगों ने न केवल सहमति जताई बल्कि उन विघटनकारी लोगों को ही जायज़ ठहरा दिया। मुझे यह जानकर और भी अफ़सोस हुआ कि रिज़र्व बैंक में वरिष्ठ अधिकारी, हमारे एक मित्र की आँखों पर अंग्रेज़ी का इतना रंगीन चश्मा चढ़ा है कि इसे भारत को सबसे बड़ा अंग्रेज़ी बोलने वाला देश बता दिया है। वे अंग्रेज़ी के विरुदगान में लगे रहते हैं और हिंदी के लेखों या कविताओं को अंग्रेज़ी में अनुवाद करके पढ़ने की सिफ़ारिश भी करते हैं। मैं उनसे जानना चाहूंगा कि क्या हमारे देश की 121 करोड़ जनता अंग्रेज़ी बोलने, लिखने और समझने लग गई है और उन्हें हिंदी आती ही नहीं? उन्होंने यह भी कह दिया है कि एक भाषा अपनाने वाले देश, जैसे, पाकिस्तान, नेपाल आदि इसीलिए प्रगतिशील नहीं हैं क्योंकि वहाँ एक ही भाषा का प्रयोग होता है। क्या उन्हें इज़रायल, अमरीका, फ़्रांस, रूस, चीन आदि की प्रगति के पीछे अनेक भाषाएँ दिखती हैं? इन देशों में एक ही राजभाषा है और उन्हें अपनी भाषाओं पर गर्व है। एक तरफ़ तो हम यह कहते हैं कि भाषा नहीं थोपी जानी चाहिए और दूसरी तरफ़ अंग्रेज़ी को थोप दिया गया है। रिज़र्व बैंक जैसी शीर्ष राष्ट्रवादी संस्था में काम करने वाले व्यक्ति की सोच इतनी संकुचित और कुंठाग्रस्त कैसे हो सकती है। शायद उन्हें आत्मप्रेक्षण की आवश्यकता है।                         

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