हिंदी की राजनीति करने के बजाय देश
और जनता के बारे में सकारात्मक सोचने की ज़रूरत है। हम बहुत समझदार होंगे परंतु महात्मा
गांधी की बराबरी न तो कर पाएंगे और न ही किसी में इतनी आत्मिक शक्ति है न ही देश
के लिए त्याग की उतनी क्षमता है। भाषा की क्षुद्र राजनीति करने वाले राजभाषा
अधिनियम की उन धाराओं को अपनी ढाल बनाते हैं जो असंवैधानिक प्रतीत होती हैं और ऐसे
ही हिंदी के घोर विरोधियों (विद्वेषवश विरोधी) के कारण आवेश में आकर, गांधी के आदेशों के बावज़ूद, संसद में पास
करा दी गई थी। दक्षिण में हिंदी का विरोध नहीं है बल्कि उस मानसिकता से विरोध है
जो हिंदी का नाम लेकर उत्तर और दक्षिण को बाँटना चाहते हैं।
मैं पहले भी लिख चुका हूँ कि अपनी
दक्षिण भारत की सड़क मार्ग से यात्रा के दौरान मुझे लोगों से हिंदी में सहायता
माँगने में कोई कठिनाई नहीं आई। यही बात आज तमिल नाडु के पूर्व राज्यपाल माननीय भीष्म
नारायण सिंह ने भी कही है कि मैं “अन्नई वरकुम
वणक्कम” बोलने के बाद हिंदी में बोलता था और हिंदी
का कोई विरोध नहीं होता था बल्कि उनके काम की बात पर वे तालियाँ भी बजाते थे। यही
बात लोक सभा चुनाव 2014 के दौरान नरेंद्र मोदी द्वारा दक्षिण भारत के राज्यों में
हिंदी में दिए गए भाषणों से भी स्पष्ट होती है।
कुछ साल पहले तक कर्नाटक में भी हिंदी का विरोध मुखर
होता दिख रहा था। परंतु आज कर्नाटक के लोग केंद्रीय मंत्रिपरिषद में शामिल होकर
हिंदी में बोलते हैं। कर्नाटक के मुख्य मंत्री को भी हिंदी में जवाब देने में कोई
कठिनाई नहीं होती है। मैंने कर्नाटक हाई कोर्ट के वकीलों को हिंदी में अच्छी तरह बात
करते देखा है। हमें ऐसी सोच अपनानी और विकसित करनी चाहिए जिससे ग्रामीण और अंग्रेज़ी
का कम ज्ञान रखने वाले प्रतिभाशाली लोगों के साथ अन्याय न हो। केंद्रीय नियोक्ता संस्थाओं
को ऐसा तंत्र विकसित करना चाहिए जिससे संविधान द्वारा मान्य किसी भी भाषा भाषी
व्यक्ति को आगे बढ़ने में कोई रुकावट पैदा न हो।