डॉ. अब्दुल कलाम ने एक बार मीडिया से कहा था कि आप लोग हमेशा नकारात्मक बातों को ही उछालते हैं जब कि देश में इतनी अच्छी बातें हैं जिनका प्रचार नहीं हो पाता है। हम लोग कई मायने में नंबर एक हैं परंतु उनको बताने से परहेज़ करते हैं। कई बातें ऐसी हैं जिन्हें हम फ़ख़्र से कह सकते हैं परंतु हम उनसे मुँह मोड़ लेते हैं। हम दूध उत्पादन में, विश्व में नंबर एक हैं और आयुर्वेद में दूध को अमृत के समान बताए जाने के बावज़ूद आज किसी विचलित व्यक्ति के अनुसंधान के आधार पर कहने लगे हैं कि दूध स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। हमें शर्म महसूस होती है यदि हम यह कहें कि हमें अंग्रेज़ी नहीं आती और गर्व अनुभव करते हैं जब यह कहते हैं कि हमें हिंदी नहीं आती। लेकिन हमें आता क्या है? अभी दो दिन पूर्व, बी.एस. पाबला के ब्लॉग ज़िंदगी के मेले पर एक सत्य घटना का ज़िक्र था कि एमबीए पास छात्र से एक साक्षात्कार में पूछ गया कि वाटर हारवेस्टिंग क्या है? उसका जवाब था पानी से जो खेती की जाती है उसे वाटर हारवेस्टिंग कहते हैं। दूसरा प्रश्न था कि गुड़ कैसे बनता है? उसका जवाब था चीनी घोलकर उससे गुड़ बनाया जाता है। ऐसे ही और भी प्रश्न पूछे गए थे परंतु किसी भी प्रश्न का उत्तर सही नहीं मिला।
क्या कलाम साहब का सवाल ऐसे ही मीडिया वालों से था जो यथार्थ से परे निराधार या अव्यावहारिक बात करते हैं। कुएं में बैल गिर जाए तो माडिया वाले वैन लेकर तब तक डटे रहते हैं जब तक कि बैल बाहर न निकाल लिया जाए। परंतु माडिया वाले किसी भी ऐसी खबर पर ध्यान नहीं देंगे जब तक को उनको न लगे कि उस खबर से उनको लाभ नहीं मिलने वाला है। बाढ़ की विभीषिका का दृश्य तो दिखा देंगे परंतु उसके बाद की तबाही और पीड़ित लोगों के दुःखों का निवारण हुआ कि नहीं उसका अनुवर्तन (फ़ॉलोअप) नहीं करेंगे। मीडिया चूज़ी, मौकापरस्त और पक्षपाती हो गई है। अन्ना हज़ारे को तो कवरेज देगी, स्वामी निगमानंद को नहीं। राज ठाकरे को तो तरज़ीह देगी परंतु उनके साथियों द्वारा सताए गए लोगों को न्याय दिलाने में समय नहीं देगी। लंबी सूची है। कहा तक गिनाएं?
सरकार अक्षम है, हमारा कानून पुराना पड़ गया है, नगर पालिका कचरा नहीं उठाती, फ़ोन काम नहीं करता, रेलगाड़ियाँ समय पर नहीं चलती हैं, एयर लाइनें ठीक से नहीं चल रही हैं, डाक समय से नहीं पहुंचती है, कुरियर कंपनियाँ खूब ऐंठकर पैसा लेने के बावज़ूद समय पर डिलिवरी नहीं करती हैं, ऐसी तमाम शिकायतें हैं जिनसे रोज़ दो चार होते हैं। हम टीवी के सामने खड़े होकर ट्रैफ़िक पुलिस पर उंगली उठाते हैं लेकिन उसकी मजबूरी और कानून की तरफ़ ध्यान ही नहीं देते। सिग्नल तोड़ देते हैं या पीयूसी नहीं कराते हैं, ग़लत साइड से आते हैं तब पुलिस की नज़र में आने पर बचने की कोशिश करते हैं, उससे बहस करते हैं और जब सफलता नहीं मिलती तो अनैतिक तरीका अपना कर उसे भ्रष्ट बनाने का प्रयास भी करते हैं तथा बाद में पुलिस वाले को ही कोसते हैं। क्या ये सब नैतिक है? क्या इन सब के हल के लिए अन्ना जी या बाबा रामदेव ज़िम्मेदार हैं जिन्हें आगे करके हम लड़ना चाहते हैं? हम विदेश यात्रा पर जाते हैं और एयर पोर्ट पर उतरते ही सजग हो जाते हैं कि किसी भी प्रकार से कानून का उल्लंघन न हो। न तो सिगरेट पिएंगे और न ही उसका टुकड़ा, चॉकलेट का रैपर, केले का छिलका फेंकेंगे। सिंगापुर में यदि कार चला रहे हैं तो सेफ़्टी बेल्ट ज़रूर लगाएंगे, स्पीड भी सीमा में रखेंगे, स्कूटर या मोबाइक चलाएंगे तो हेल्मेट भी लगाएंगे। परंतु अपने देश में पुलिस वाले की मौजूदगी देखकर कर ही ये सारे संयम रखेंगे वरना आँख बचाकर निकल ही जाएंगे। तो ऐसे में कानून क्या करेगा और क्या करेंगे कानून के रखवाले? दोष किसका? भ्रष्टाचार की खिलाफ़त कहाँ गई? END is not end. इसे मान जाए कि Effort Never Dies अतः "BE POSITIVE". सकारात्मक होकर बेहतर करने में अपना योगदान दें। सामाजिक समरसता बनाने में पहल करें। अच्छा अपने आप दिखने लगेगा यदि हम भ्रष्टाचार में आहुति डालने की बजाय उनमें शामिल न हों। किसी भी समाज विरोधी गति विधि में शामिल होना भी भ्रष्टाचार है।