सेवा निवृत्ति के बाद कुछ वर्ष नागपुर में रहने के पश्चात्, मित्रों की
सलाह को नज़र अंदाज़ करके जब गाँव आकर यहाँ रहने और अपनी खेती बाड़ी संभालने तथा
गाँव में अपनों के साथ रहकर जीवन यापन करने का फ़ैसला किया था तो कुछ ज़मीनी
सच्चाइयों से नावाकिफ़ था। अब यहाँ आने के बाद जब इन सच्चाइयों से आमना सामना हुआ
तो गाँव में अपनों के साथ रहकर जीवन यापन करने के फ़ैसला का सपना असफल होता नज़र आ
रहा है। गाँव लौटने का निर्णय फिलहाल ग़लत लग रहा है। परंतु अपनी संघर्ष की
जिजीविषा के कारण हार न मामने का मन बना ही लिया था कि इस बीच तथ्य भारती के
संपादक दीना नाथ दुबे का फ़ोन आया कि तथ्य भारती का विशेषांक निकल रहा है और इसकी
अपनी वेबसाइट भी शुरू हो गई है। अतः एक लेख भेज दीजिए। तुरंत किसी गंभीर विषय पर लेख
लिखने की स्थिति में नहीं था। फिर याद आया कि क्यों न इन चार महीनों में आप बीती
वास्तविक घटनाओं को कलमबद्ध किया जाए और अपने पाठकों को जीवन की सच्चाइयों से अवगत
कराया जाए।
नवंबर 2012 में गाँव आया था और यहाँ
आते ही कई लोगों से पता चला कि उन लोगों ने बैंक से कर्ज़ लिए थे और ऋण चुकौती में
असफल होने कारण बैंक ने ऋण वसूली के लिए सरकार से वसूली प्रमाण पत्र (आर.सी.) जारी
करवा दिए हैं और तहसील का अमीन पीछे पड़ गया है। आकर जेल भेजवाने की धमकी देता है
और हर बार पाँच सौ रुपए की माँग करता है। अब हर बार पाँच सौ रुपए कहाँ से दूँ? इसके डर से लोग घर छोड़कर भी भाग जाते हैं। चूँकि ऋण लेने वाला व्यक्ति इस बात से नावाकिफ़ होता है कि आर.सी. जारी होने के बाद यदि ऋणी 30 दिन में कर्ज़
की रकम वापस करने में असफल होता है तो अगली कार्रवाई के रूप में कुर्की का आदेश जारी
होता है और फिर बाद में कुर्क की गई जायदाद की नीलामी का आदेश होता है। वह आदेश भी
न्यायालय से जारी होता है। इस प्रक्रिया में समय और लगता है तथा कानूनी कार्रवाई
का खर्च भी ऋणी को बोझ बढ़ाता है इसलिए ऋणी को चाहिए कि वह अपनी ऋण की रकम या तो
शीघ्र वापस करे अथवा लोक अदालत में जाकर बैंक की एक बारगी एक मुश्त ऋण जमा करने की
योजना (ओटीएस) का लाभ उठाकर अपनी देयता समाप्त कर सकता है। परंतु बैंक वाले भी इस
सुविधा का लाभ लेने के लिए ऋणी की मदद नहीं करते हैं बल्कि तहसील की मदद से ऋणी पर
दबाव बनाते हैं कि पूरी लेजर बकाया की रकम वापस करे।
बैंकों ने हर ग्रामीण शाखा में व्यापार
सहायक (बिजनेस फ़ैसिलिटेटर) नियुक्त कर रखे हैं जो गाँवों में बैंक दलाल के स्थानीय
नाम से जाने जाते हैं और अपने वाहन पर सवार होकर गावों में घूमते रहते हैं तथा ऐसे
लोगों की तलाश में रहते हैं जिन्हें अपने बच्चों की शादी वगैरह के लिए धन की ज़रूरत
होती है। यह तथाकथित दलाल दस प्रतिशत
के कमीशन पर बैंक से किसान क्रेडिट कार्ड के रूप में ऋण मंज़ूर कराता है और ऋणी को
लगभग 85 प्रतिशत ही मिल पाता है क्योंकि 2000/3000 रुपए तक की रकम तो कागज़ पत्र
बनवाने में ही ले लेता है। यह रकम कमीशन की रकम के अलावा होती है। अब ऋणी को 85 प्रतिशत
ऋण की रकम लेकर ब्याज समेत पूरी रकम
लौटाना पड़ता है। यह ऋणी का शोषण है लेकिन इस व्यवस्था के खिलाफ़ कोई न तो लिखकर
देने को तैयार होता है और न ही कहीं गवाही देने के लिए तैयार होता है। ऐसे में कोई
इनकी मदद करे भी तो कैसे? बैंक के उच्च स्तर पर भी कोई कार्रवाई नहीं हो पा रही
है। इस खुली सच्चाई के बावज़ूद कोई कार्रवाई नहीं हो पाती है या कोई इसमें कार्रवाई
करने की मंशा ही नहीं होती हैं क्योंकि क्विड प्रो नॉन का फ़ॉर्मूला लहुत ही प्रभावी
ढंग से काम कर रहा है।
एक दिन एक कृषक क्लब के कार्यक्रम
में भाग लेने का मौका मिल था और उस कार्यक्रम में दो शीर्ष राष्ट्रीय बैंकों के प्रतिनिधि
भी शामिल हुए थे। उस पब्लिक मंच से एक प्रगत व्यक्ति ने बैंकों की दलाल व्यवस्था और
बैंक की मिलीभगत के बारे में बात उठाई। उससे पूछा गया कि आप कुछ लिखकर दे सकते हैं
तो उसने कहा कि जिसे ऋण लेना होता है वह सोचता है कि मेरा काम बिगड़ जाएगा इसलिए
वह कुछ लिखकर देने से कतराता है। परंतु कोई जाँच एजेंसी जाँच करने आए तो उसके
सामने बोलने के लिए तैयार हो सकते हैं।
बैंकों का अपनी सतर्कता व्यवस्था है
और किसी अधिकारी से खुन्नस निकालना हो तो उसका इस्तेमाल किया जाता है लेकिन ऐसे
पब्लिक कार्यों के लिए उसके उपयोग में बड़ी बाधाएँ बताई जा सकती हैं। कई बार अखबारों
में पढ़ने को मिलता है कि बैंक प्रबंधक रिश्वत लेते रंगे हाथ पकड़ा गया। तो क्या यह
रोग का लक्षण नहीं है? या इससे यह प्रमाणित नहीं होता है कि भ्रष्टाचार व्याप्त है?
न्यायालय तो
सुई मोटो कई मामलों मे संज्ञान लेकर कार्रवार्ई की है। तो बैंक इस मामले में
कार्रवाई के लिए अपने सतर्कता तंत्र का उपयोग क्यों नहीं करता है? मुझे तो लगता है कि क्विड प्रो नॉन का फ़ॉर्मूला
काम कर रहा है और रिश्वत की रकम की हिस्सेदारी ऊपर तक है। राजीव गाँधी से लेकर मुलायम
सिंह यादव, राहुल गाँधी, अन्ना हज़ारे, अरविंद
केजरीवाल तक ने व्याप्त भ्रष्टाचार की बात उठाई परंतु इस पर कार्रवाई की बात तो दूर
सरकारी एजेंसियाँ उसके खंडन में लग जाती हैं। गाँव के लोगों को अपना निर्वाचन कार्ड
बनवाने के लिए तहसील में पैसे देने पड़ रहे हैं और ये लोग इसे सरकारी महसूल मानकर
बखूबी पैसे दे रहे हैं और खुले आम यह धंधा चल रहा है। आखिर सतर्कता विभाग इसकी
निष्पक्ष व्यापक जाँच के आदेश क्यों नहीं दे देता?