शनिवार, मार्च 26, 2011

हिंदी के अंतरराष्ट्रीय स्वरूप और यूनीकोड प्रणाली पर संगोष्ठी – पर एकरूपता का अभाव


विश्वेश्वरैया राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, नागपुर ने 25 मार्च को अपने परिसर में हिंदी के अंतरराष्ट्रीय स्वरूप और यूनीकोड प्रणाली पर संगोष्ठी आयोजित की थी और मुझे उसमें यूनीकोड पर जानकारी देने के लिए आमंत्रित किया था। उन्होंने इसी विषय पर चर्चा के लिए भारतीय स्टेट बैंक के मुख्य अधिकारी श्री मनमोहन सोलंकी को भी आमंत्रित किया था जिसके बारे में कार्यक्रम में उल्लेख नहीं था। बाद में पता चला कि  श्री सोलंकी भी चर्चा करेंगे। मुझे क्या ऐतराज हो सकता था? परंतु बाद में एहसास हुआ कि बिना गहन अध्ययन और पल्लव ज्ञान में क्या फ़र्क़ होता है?

 

संगोष्ठी का उद्घाटन दत्ता और मेघे चिकित्सा संस्थान, वर्धा के कुलगुरु डॉ. वेदप्रकाश मिश्र ने किया और अपने धारा प्रवाह, मंत्रमुग्ध कर देने वाले भाषण में कहा कि हिंदी राष्ट्रीय एकता की, सभी भाषाओं  में संवाद और सहचारिता की भाषा है। उन्होंने बताया कि हिंदी विश्व के 26 देशों में पढ़ाई जाती है और उन देशों में हिंदी बोलने वालों की संख्या एक-एक लाख से भी अधिक है। दुनिया के छह ऐसे देश हैं जहाँ हिंदी प्रमुख भाषा है। नवीनतम जन गणना के अनुसार देश में 65.9 करोड़ लोग हिंदी का प्रयोग करते हैं। विश्व में इसका स्थान तीसरे से उठकर दूसरा हो गया है। तो क्या अब भी बताने की ज़रूरत है कि हिंदी का क्या महत्व है? मेरे विचार से हिंदी का मूल्यांकन संख्या से नहीं बल्कि इसके विस्तार और इसकी उपयोगिता के मानदंड से करना चाहिए। आज विदेशों में रह रहे भारतीयों की समस्या यह हो गई है कि अपनी अगली पीढ़ी को अपनी संस्कृति की वाहिका हिंदी कैसे सिखाई जाए? लोग उन्हें हिंदी सिखाना चाहते हैं परंतु सुविधा की कितनी कमी है।  

 

इस संबंध में दि नांक 11,12,और 13 मार्च को क्रमश: बर्मिंघम ,नॉटिंघम और लंदन में आयोजित कि अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मलेन का उल्लेख करना चाहता हूं। सम्मलेन में, हिंदी के अंतरराष्ट्रीय स्वरूप और उसके शिक्षण की कार्य प्रणाली और और उसके मकसद को लेकर सार्थक  सवाल उठाए गए, जैसे, विदेशों में हिंदी किस मकसद से पढ़ाई जा रही है? उसका मकसद सिर्फ अपनी जड़ों से जुड़े रहने के लिइ थोड़ा बहुत बोल समझ लेना है या उससे आगे भी कुछ है? क्या हिंदी को देवनागरी छोड़कर सुविधा के लिए रोमन के माध्यम से सिखाना चाहिए? नए मानकों के साथ  हिंदी पढ़ाने का तरीका क्या होना चाहिए क्योंकि विदेशों में हिंदी के अध्यापन का कार्य ज़्यादातर अनट्रेंड अध्यापकों द्वारा स्वयंसेवक के तौर पर किया जाता है।

 

इसका उल्लेख करने का मक़्सद यह है कि विदेशों में रह रहे छात्रों को हिंदी भाषा सिखाने के लिए किन कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, जैसे, बदलते हिंदी के मानकों को सुलझाने का प्रयास करना, हिंदी किताबों में ही इन मानकों को लेकर विरोधाभास को समाप्त करना। वहाँ पर, छात्रों में व्याप्त भ्रम को दूर करने के लिए हिंदी की वर्तनी के मानकीकृत रूप को प्रचलित करने की आवश्यकता पर बल दिया जा रहा है और यहाँ, कैसा विरोधाभास है कि जिन बातों के बारे में विदेशों में लोग चिंतित हैं हम उन्हीं को बढ़ाने में लगे हैं। इस संगोष्ठी में, हिंदी की वर्तनी के मानकीकृत रूप को ताक पर रखकर व्यक्तिगत पसंद को लागू रखने की सिफ़ारिश की जा रही थी। इतना ही नहीं, कंप्यूटर पर यूनीकोड (यूनीवर्सल) में टाइपिंग की बात की जाती है परंतु यूनीफ़ॉर्म कीबोर्ड की बात को नज़र अंदाज़ किया जा रहा था। मुझे तो बड़ा आश्चर्य होता है जब हिंदी अधिकारी भी ट्रांसलिटरेशन पद्धति द्वारा हिंदी टाइप करने की सलाह देते हैं। वे यह भलीभाँति जानते हैं कि ट्रांसलिटरेशन पद्धति द्वारा हिंदी टाइप करने में 50 % तक अधिक स्ट्रोक मारने पड़ते हैं जिससे टाइपिंग की गति कितनी बाधित होती है। अतः ऐसी भ्रम सर्जक संगोष्ठियाँ आयोजित करने से तो अच्छा है कि संगोष्ठी न ही आयोजित की जाए। यह महज औपचारिकता है। इससे हिंदी का भला होने के बजाय अहित हो रहा है। हिंदी लिखने  के लिए देवनागरी लिपि के बजाय रोमन लिपि के दुष्प्रभाव के बारे में मेरा विचार है कि रोमन वर्णमाला और रोमन लिपि अत्यंत दोषपूर्ण हैं। जिन ध्वनियों का हम उपयोग कर सकते हैं उन्हें लिखने में नितांत असमर्थ है। जो लोग रोमन लिपि का इस्तेमाल करके हिंदी लिख रहे हैं या हिंदी लिखने के लिए रोमन प्रणाली का उपयोग करने की सलाह देते हैं वे जाने अनजाने हिंदी भाषा व संस्कृति का अहित कर रहे हैं। मैं इस बात का सख्त हिमायती हूं कि हिंदी की लिपि और लेखन में एकरूपता होनी ही चाहिए। इस विषय पर व्यापक और गंभीरता से वैज्ञानिक चर्चा की ज़रूरत है। कंप्यूटर पर हिंदी टाइपिंग के लिए केवल एक ही लेआउट का उपयोग किया जाए और इसीका प्रशिक्षण दिया जाए। इससे इस लेआउट में भी सुधार के सुझाव मिलेंगे और विश्व स्तर पर एकरूपता का सृजन होगा। 

 

इस पर चिंतन और इसका अनुशीलन किया जाना चाहिए।

बुधवार, मार्च 23, 2011

नई शब्दावली - पोमैटो – एक ही पौधे से आलू और टमाटर दोनों पाएं


आपने वह चुटकुला तो सुना होगा कि विज्ञान ने क्या चमत्कार कर दिया है कि रेल की ऊपरी बर्थ अमृतसर जा रही है और निचली बर्थ चेन्नै। परंतु कृषि वैज्ञानिकों ने इसे सही साबित कर दिया है। यदि विश्वास न होतो इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.ehow.com/how_2308286_grow-pomato-plant.html  । अब आप एक ही पौधे से आलू और टमाटर दोनों पा सकते हैं। इस पौधे का नाम है – "पोमैटो" (Pomato).  यह नाम "Potato" से  "Po" लेकर तथा "Tomato"  से "amto" लेकर "Pomato" रखा गया। इस पौधे का वानस्पतिक चित्रण इस प्रकार है – 
एक ही पौधे में ऊपर टमाटर और नीचे आलू
वानस्पतिक विवरण

 

नई शब्दावली - जीप व किमीर (Geep, Chimera)


सन् 1978 में ऑस्ट्रेलिया के एक वैज्ञानिक, डॉ. आर. एस. ह्वाइट ने बकरी और भेड़ के भ्रणों (embryo) को एकसाथ मिलाकर एक संकर नस्ल की जीव बनाया जिसमें बकरी और भेड़ दोनों के गुण थे। गर्भावस्था में तीसरे माह के भ्रूण को लैटिन भाषा में एम्ब्रियो (embryo) कहा जाता है। उनकी शक्ल सूरत इन दोनों जानवरों से भिन्न थी और परंतु दोनों का मिश्रण थी। चूंकि किमीर दो अलग-अलग जातियों के भ्रणों को लेकर बनाया गया था इसलिए इसमें चार पितृ का समावेश था, नर-मादा दो भेड़ तथा नर-मादा दो बकरी। ये दोनों भ्रूण प्राकृतिक रूप से क्रमशः नर-मादाओं के संभोग से बने थे। इसलिए ये दो भिन्न जाति के जानवरों, अर्थात्, भेड़ और बकरी के प्रकृतिक संभोग से उत्पन्न संकर संतान ते भिन्न थे। प्रारंभ में इसका नाम "goat" से  "g" लेकर तथा "sheep"तथा "sheep" से "eep" लेकर "geep"रखा गया। परंतु बाद में इसका नाम किमीर (chimera) रख दिया गया। लैटिन में किमीर का मतलब होता है, शेर के सिर, बकरे के धड़ और साँप की पूंछ वाला कल्पित शैतान या राक्षस। geep का चित्र निम्नप्रकार है।



क्या रुपए का नया प्रतीक क्षेत्रीयता का परिचायक है?