देश की भाषा समस्या जनता जनित नहीं है बल्कि यह जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा जनित है। जन प्रतिनिधियों ने ही इसे 1947 में ही स्वीकार कर लिया था कि देश में एक संपर्क भाषा हो और वह भारत की ही भाषा हो कोई विदेशी भाषा न हो। संविधान लागू होने के बाद पंद्रह साल का समय भाषा परिवर्तन के लिए रखा गया था और वह समय केवल केंद्र सरकार की भाषा के लिए ही नहीं बल्कि भारत संघ के सभी राज्यों के लिए रखा गया था कि उस दौरान सभी राज्य सरकारें अपने-अपने राज्यों में अपनी राजभाषा निर्धारित कर लेंगी एवं उन्हें ऐसी सशक्त बना लेंगी कि उनके माध्यम से समस्त सरकरी काम काज किए जाएंगे तथा राज्य में स्थित शिक्षण संस्थाएं उनके माध्यम से ही शिक्षा देंगी। यह निर्णय 1949 में ही किया गया था राज्यों ने अपनी-अपनी राजभाषा नीति घोषित कर दी थी। यद्यपि वहां भी निर्णय को मुस्तैदी लागू करने का काम नहीं हुआ क्योंकि राज्यों के सामने अन्य आवश्यक समस्याएं थीं जिनपर अविलंब ध्यान देना था। उस चक्कर में राज्य सरकारों ने राजभाषाओं की समस्या को टाल दिया था परंतु किसी भी सरकार ने अंग्रेज़ी को राजभाषा के रूप में अनंत काल तक बनाए रखने की मंशा नहीं व्यक्त की। अतः राज्यों ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपनी राजभाषाओं को प्रचलित करने के लिए अपने यहां भाषा विभागों की स्थापना की और कार्यालयी भाषा की शिक्षा देना प्रारंभ किया, भाषा प्रयोग की समीक्षा करने लगे तथा प्रशासनिक शब्दावली बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ की। राज्य सरकारों ने उसी निर्धारित समय में अपनी भाषाओं को संवर्धित किया और आज नागालैंड के सिवाय सभी राज्यों ने अपनी राज्य भाषाओं में काम करना प्रारंभ कर दिया है। ऐसे में यह और भी आवश्यक हो गया है कि देश में राज्यों के बीच संपर्क भाषा के रूप में हिंदी को स्थापित किया जाए। लेकिन कार्यालयों में आज भी अंगेज़ी का प्रयोग उसी प्रकार व उतनी ही मात्रा में हो रहा है जितना कि 1965 से पहले हो रहा था। हिंदी प्रयोग के आंकड़े कितने सही और वास्तविक हैं यह तो राजभाषा कक्ष/अनुभाग/विभाग के प्रभारी ही जानते हैं।
2. हिंदी के प्रश्न को संविधान में अनंत काल तक के लिए टालने का फ़ैसला जनता द्वारा नहीं किया गया है और न ही किसी समित द्वारा सुझाया गया था। आज तक जितनी भीं समितियां, आयोग बने किसी ने भी हिंदी के प्रश्न को समय सीमा (पंद्रह साल)से परे रखने की सिफ़ारिश नहीं की है। राजभाषा आयोग, विश्व विद्यालय अनुदान आयोग, केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड, सभी ने हिंदी व क्षेत्रीय भाषाओं में ही शिक्षा दीक्षा देने की सिफ़ारिश की है। तब संविधान में हिंदी को अनिश्चित काल के लिए टालने की बात कहां से आई? यह निश्चित रूप से कोई सोची समझी चाल तथा प्रच्छन्न विद्वेष की भावना लगती है। इसे समझने और ग्रासरूट स्तर पर चेतना जागृत करने की आवश्यकता है।
3. हिंदी को वास्तविक रूप में कामकाज की भाषा बनाना हो तो देश में त्रिभाषा सूत्र सच्चे मन से तथा कड़ाई से लागू करना होगा। त्रिभाषा सूत्र के कार्यान्वयन की कठिनाइयों पर शिक्षा आयोग (1964-66) ने विस्तार से विचार किया है। व्यावहारिक रूप से त्रिभाषा सूत्र के कार्यान्वयन की कठिनाइयों में मुख्य है स्कूल पाठ्यक्रम में भाषा में भारी बोझ का सामान्य विरोध, हिंदी क्षेत्रों में अतिरिक्त आधुनिक भारतीय भाषा के अध्ययन के लिए अभिप्रेरण (मोटिवेशन) का अभाव, कुछ हिंदीतर भाषी क्षेत्रों में हिंदी के अध्ययन का विरोध तथा पांच से छह साल तक, कक्षा छठी से दसवीं तक दूसरी और तीसरी भाषा के लिए होने वाला भारी खर्च और प्रयत्न। शिक्षा आयोग ने कार्यान्वयन की कठिनाइयों का उल्लेख करते हुए कहा है कि गलत योजना बनाने और आध्ो दिल से सूत्र को कार्यान्वित करने से स्थिति और बिगड़ गई है। अब वह समय आ गया है कि सारी स्थिति पर पुनर्विचार कर स्कूल स्तर पर भाषाओं के अध्ययन के संबंध में नई नीति निर्धारित की जाए। अंग्रज़ी को अनिश्चित काल तक, भारत की सहचरी राजभाषा के रूप में स्वीकार किए जाने के कारण यह बात और भी आवश्यक हो गई है।
4. अतः ऐसी परिस्थिति में कार्यालयों में हिंदी को प्रचलित करने तथा स्टाफ़ सदस्यों को सक्षम बनाने के लिए सतत और सत्यनिष्ठा के साथ शिक्षण प्रशिक्षण का हर संभव प्रयास करना होगा एवं हिंदी की सेवा से जुड़े हर व्यक्ति को अपने अहम् को दूर रखकर प्रयास करना होगा। गुरु रवींद्र नाथ टैगोर की चार पंक्तियां उल्लेखनीय हैं –
सांध्य रवि बोला कि लेगा काम अब यह कौन,
सुन निरुत्तर छबि लिखित सा रह गया जग मौन,
मृत्तिका दीप बोला तब झुकाकर माथ,
शक्ति मुझमें है जहां तक मैं करूंगा नाथ।।
5. हर व्यक्ति को अपनी शक्ति के मुताबिक प्रयास करना होगा। ऐसे में हम यह चाहते हैं कि हर व्यक्ति अपने आप से यह प्रश्न करे कि यह बड़ा और दुष्कर कार्य कैसे होगा और उसका उत्तर भी स्वयं ढूंढे, कुछ इस प्रकार –
बड़ा काम कैसे होता है, पूछा मेरे मन ने,
बड़ा लक्ष्य हो, बड़ी तपस्या, बड़ा हृदय, मृदुवाणी,
किंतु अहम् छोटा हो जिससे सहज मिलें सहयोगी,
दोष हमारा श्रेय राम का, यह प्रवृत्ति कल्याणी।।
डॉ. दलसिंगार यादव
Tree bhasha sootr atyant avashyak hai..ham jitna jaldi is baat ko grahan karen utna achha hoga!
जवाब देंहटाएंहिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
जवाब देंहटाएंकृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें
धन्यवाद, अजय,संगीता जी,जयराम जी और शमा जी। यदि आप अपना ईमेल पता दें तो संपर्क कर सकता हैं।
जवाब देंहटाएंमहोदय,
जवाब देंहटाएंनई आशा,मन की अभिलाषा,
विकसित हो हमारी भाषा हिंदी भाषा
मैं किसी भी भाषा का विरोधी नहीं हूँ पर अपनी हिंदी भाषा का पुजारी हूँ उसे नतमस्तक करता हूँ। साथियों हिंदी ही है जो हम सबको एक सूत्र में पिरो कर रखती है। परंतु आज कुछ और ही देखने को मिल रहा है। जिसे भी देखो अंग्रेजी को अपनी पहचान का साधन समझ बैठा है। इसलिए अपनी भाषा से दूर होता जा रहा है। हमारे सभी राजभाषा अधिकारियों को एक जुट होकर आधुनिकता में हिंदी का कंप्यूटरीकरण करना होगा।
जवाब देंहटाएंअगर आज की तारीख में भी हम सभी राजभाषा अधिकारियों को कंप्यूटर पर हिंदी का प्रशिक्षण दे पाते हैं तो भी यह बहुत बड़ी बात है। क्योंकि आने वाले समय में पेपरलेस कार्य को सिर्फ और सिर्फ कंप्यूटर के ही माध्यम से किया जा सकता है। यदि एक बार एक मंच से हिंदी की आवाज उठे तो वो दिन दूर नही है कि पूरा राजकाज का वातावरण हिंदीमय हो जाएगा।
जवाब देंहटाएंश्री शकील जी, यदि हरेक आपके जैसा सोचने लगे तो सोचो वातावरण कैसा होगा। कितना सुंदर और कितना प्यारा होगा, हमारा हिंदुस्तान..............
जवाब देंहटाएंभारत जननी एक हृदय हो......................
धन्यवाद शकील जी, अमरीश जी,
जवाब देंहटाएंराजभाषा विकास परिषद का गठन हिंदी की आवाज़ उठाने तथा इसे कंप्यूटर के क्षेत्र में अग्रणी बनाने के लिए और यूनीकोड आधारित हिंदी को प्रचलित करने के लिए हुआ है। परंतु कभी-कभी निराशा के आगोश में आ जाता हूं। हिंदी वाले प्रभावी नहीं हैं या जानबूझकर तटस्थ बने हुए हैं। हिंदी अधिकारी ऐग्रेसिव क्यों नहीं हो रहे हैं? मेरे कार्यक्रम में सहभागिता बहुत कम हो रही है।
डॉ. दलसिंगार यादव