यद्यपि दि टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने 29 जून 2010 के अंक में करुणा निधि के बयान को संकीर्णवाद बताकर उसे रोकने का आह्वान किया है परंतु अंग्रेज़ी की वकालत करके इसने भी वही संदेश दिया है जोकि करुणा निधि ने दिया है। करुणा निधि का कहना है कि तमिल को भारत की राजभाषा घोषित किया जाए, संकुचित तथा हिंदी के प्रति प्रच्छन्न विद्वेष प्रतीत होता है। करुणा निधि, बाल ठाकरे, राज ठाकरे का दायरा बहुत संकरा है। उनकी सोच बहुत संकुचित और अपने घरों की हदों तक ही सीमित रही है। परंतु उन्हीं के क्षेत्रों से आने वाले नेता जिनकी सोच व्यापक व सकारात्मक है वे भाषा को छुद्र राजनीति का ज़रिया नहीं बना रहे हैं। अतः करुणानिधि की सोच का जीवन अब बहुत कम बचा है। यह मसला अगली पीढ़ी के लोग सुलझा लेंगे।
2. जब तमिल भाषी व्यक्ति या बंगाली भाषी व्यक्ति तमिल अथवा बंगाली को भारत की राजभाषा घोषित करने की बात करता है और हिंदी का विरोध करता है तो यह न समझें कि वह तमिल/बंगाली या तमिल/ बंगाली भाषियों का हितैषी है। वह तो अपनी पुरानी और घटिया सोच सब पर लादना चाहता है क्योंकि पी. सुब्बारायन व सुनीति कुमार चटर्जी का विचार था कि "हिंदी को राजभाषा बनाए जाने का निर्णय करने से पहले विश्व विद्यालयों के विद्यार्थियों की राय ली जानी चाहिए थी।" (राजभाषा आयोग 1956 का प्रतिवेदन, पृष्ठ 263 (हिंदी संस्करण))। इस बारे में मैं पूछना चाहूंगा कि क्या अंग्रेज़ी को लादते वक्त किसी से पूछा गया था?
नई पीढ़ी और व्यापक सोच वाले लोग आगे आ रहे हैं। वे इसे नकार देंगे और संकुचित सोच वाले नेताओं की राह पर नहीं चलेंगे। वे देश की राजभाषा का सम्मान करेंगे और देश के हित में उसका उपयोग करना एवं कराना चाहेंगे। देश के तथा कथित देशप्रेमी नेताओं को सीख देना पत्थर सिर टकराने के बराबर है। चुनाव में वोट मांगने, दिल्ली में सत्ता की गद्दी पर बैठने लिए हिंदी का सहारा लेना अच्छा लगता है परंतु विघटन के लिए हिंदी भाषा का हथियार सही नहीं है।
करुणा निधि की सोच को नकारते हुए एस. रामकृष्णसाई (यद्यपि दि टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने 01 जुलाई 2010) ने लिखा है कि तमिल का व्यापक इस्तेमाल नहीं है और न ही लोग इसे तमिल नाडु से बाहर के लोग बोलते अथवा समझते हैं। अतः यह भारत की राजभाषा नहीं बन सकती है। देश की एकता के लिए हिंदी को मान्यता मिलनी चाहिए। एस. रामकृष्णसाई जैसे ही अनेक तमिल भाषी लोग सोचते हैं परंतु अपने विचार व्यक्त करने की ज़हमत नहीं उठाते हैं या फिर जानबूझकर करुणा निधि की संकुचित सोच पर समय देना व्यर्थ समझते होंगे।
Karunanidhi is bad elememt
जवाब देंहटाएंरिटायर होने के बाद हम कितने ईमानदार हो जाते हैं-देश के प्रति, देशवासियों के प्रति, अपनी भाषा के प्रति और विशेषकर राजभाषा हिन्दी के प्रति।
जवाब देंहटाएंजरा चिंतन करें क्या हम अपने सेवाकाल के दौरान संवेदनशील नहीं थे, क्या हम तब यह नहीं जानते, समझते, स्वीकारते नहीं थे कि जो चल रहा है उसे चलाने में हम भी भागीदार हैं, हमारी पदोन्नतियाँ, हमारे तोहफ़े, हमारी मैनेज करने की प्रवृत्ति सब जो चल रहा था उसे चलाते जाने में, आकड़ों का अधूरा खेल खेलना सीखने - सिखाने से जुड़े थे। क्या हमारी संवेदना तब नहीं जागी थी जब हमने भारतीय रिजर्व बैंक के प्रतिनिधि के रूप में अन्य बैंकों के प्रतिनिधियों को हेय दृष्टि से देखा था याकि तब हम जागृत नहीं थे जब हमने पुरस्कारों के लिए निरीक्षण के समय आँख बंद कर दो दूनी पंद्रह वाली रिपोर्टों को सत्यापित किया था।
क्षमा करें, सच्चाई कुछ ज्यादा ही कड़वी है। क्या आप ये मानते हैं कि केवल बैंक और पी एस यू वाले ही हिन्दी याकि राजभाषा के लिए कुछ या बहुत कुछ करते हैं? यदि हाँ, तो आप अपने दिल पर हाथ रखकर क्या किसी एक बैंक, किसी एक बैंक की किसी एक शाखा का नाम बता सकते हैं जिसकी हिन्दी की तिमाही रिपोर्ट में सही आँकड़े दिए जाते हों या आपने अपने सेवाकाल के दौरान इनका परीक्षण किया हो?
हिंदी वाले के प्रति
जवाब देंहटाएंराजभाषा विकास परिषद का ब्लॉग आप का अपना ब्लॉग है जहाँ छद्म नहीं बल्कि आप स्वच्छंद व व्यक्त रूप से और बेबाक लिख सकते हैं। शायद ही आप मुझसे कभी मिले हों? शायद ही आपने मेरा कार्य, मेरी ईमानदारी की परख की हो? आप अभी सेवा में हैं और संवेदनशील भी हैं परंतु लगता है कि आप किसी पुराने, दकियानूसी और ईमानरहितवाद से जुड़े हैं या प्रभावित हैं जो असली मुद्दे से ध्यान हटाकर विषवपन करते हैं। आपने जिन पुरस्कारों, निरीक्षणों और आँकड़ों की बात की है यह बात तो मुझे रिटायर होने के बाद ही, परिषद के संपर्क में आने वाले बंधुओं से मालूम हुई। परंतु कोई इसे उजागर करने की हिम्मत ही नहीं रखता है क्योंकि शील्ड व पुरस्कारों के बल पर प्रोन्नति का दावा किया जाने लगा है। कार्यालयी हिंदी के इस पुनीत कार्य में लीन दो बंधुओं को नौकरी से हाथ धोना पड़ा है आप शायद जानते होंगे। अतः यह अब ज़्यादा दिन नहीं चलने वाला है। शुरुआत हो गई है।
आप तो जानते ही हैं कि ईमानदारी का कोई लेबल नहीं है जिसे लगा लेने से कोई ईमानदार बन जाएगा। ईमानदार को ताने सहने ही पड़ते हैं, विरोध का सामना करना पड़ता है, अपने आचरण से साबित करना पड़ता है। आपने जिस सच्चाई की बात की है मुझे उसके प्रमाण की ज़रूरत है जिसे मैं उस कोर्ट को दे सकूं जो इसकी प्रतीक्षा कर रहा है। संभवतः आप मेरी मदद करेंगे। मेरा तो मानना है कि निंदक नेड़े राखिए, आंगन कुटी छवाय। इसीलिए औरों की तरह टिप्पणियों पर कोई सेंसर नहीं है। मुझे निंदक के साथ-साथ सहयोगी की ज़रूरत है। बेबाक रूप से लिखें। साधुवाद।
आदरणीय यादव जी,
जवाब देंहटाएंआपका राजभाषा के प्रति समर्पण श्लाघनीय है।
प्रतिभा जी,
जवाब देंहटाएंआपके विचार बहुत ही स्वस्थ और उत्साहवर्धक हैं। आप सच्चे मन से और अपने प्रोफ़ेशन के अनुसार ही सेवारत हैं। आपका परिचय पढ़कर लगा कि किसी सच्चे हिंदी सेवक से नाता जुड़ा है।
वैसे आपके इस कथन से मैं पूरी तरह सहमत हूँ -"आप किसी पुराने, दकियानूसी और ईमानरहितवाद से जुड़े हैं या प्रभावित हैं जो असली मुद्दे से ध्यान हटाकर विषवपन करते हैं।"
जवाब देंहटाएंमगर यह विष आया कहाँ से,इसका निर्माण कहाँ, कैसे और क्यों हुआ? क्या इन प्रश्नों का मौजूपन कुछ माने नहीं रखता!!
बिना सहमत हुए मैं मान लेता हूँ कि आपको हिन्दी की रिपोर्टों के आधारहीन होने की जानकारी सेवामुक्त होने के बाद मिली। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि आर बी आई अगर दस रुपए के नोट को एक हजाए रुपए का नोट बताए तो यह बात किसी को भी आसानी से हज़म नहीं होगी।
आप जब किसी भी बैंक के आकड़ों को विशेषकर धारा 3(3)के आकड़ों को देखा करते थे तब आपको यह ख्याल नहीं आता था कि उस बैंक की कुल शाखाओं या कार्यालयों की संख्या से भी ये कम क्यों हैं? सोचने वाली बात क्या यह नहीं होनी चाहिए थी कि उस बैंक की सभी शाखाओं से रिपोर्टें मिलने का दावा भी किया जाता था। क्या आप यह भी अब ही समझ पाए कि आर बी आई के धारा 3(3) से जुड़े सभी सर्कुलर्स में यह बताया जाता था कि सभी प्रकार की प्रशासनिक एवं अन्य रिपोर्टें चाहे वे किसी भी स्तर से जारी हों धारा 3(3) के अंतर्गत आती हैं, हिन्दी की तिमाही रिपोर्ट भी क्या उनमें से एक नहीं है? आप आपके जमाने में आर बी आई से जारी सर्कुलर्स को ज़रा देखिए तो सही, उन्हें एक बार पढ़िए तो सही, कानून की कसौटी पर कसिए तो सही। यदि फिर भी आपका मन कुछ भी स्वीकारने को तैयार न हो तो आर टी आई का इस्तेमाल कर मंगा डालिए चार-छ: बैंक मुख्यालयों से भेजी गई रिपोर्टों की प्रतियां आर बी आई से। फिर देखिए जो सबूत आपको चाहिए वो स्वयं चलकर आपके पास पहुँच जाते हैं कि नहीं। रही बात दो बंधुओं के नौकरी से हाथ धोने की बात तो मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा कि हिन्दी से हाथ मैले नहीं होते , मैले हाथों से हिन्दी मैली की जाती है।
आपसे मुलाक़ात हुई या नहीं इसे अभी रहस्य ही बना रहने दिया जाए। इस पर इस निंदक की ओर से एक गीत की पंक्तियाँ पेश हैं-तुम अगर भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको, मेरी बात और है....
हिंदी वाले के प्रति,
जवाब देंहटाएंइसे विवाद का विषय न बनाकर, आइए कुछ रचनात्मक और सकारात्मक काम किया जाए। मुझे तो ईमानदारी, भले ही रिटायरमेंट के बाद आई, आ तो गई। आप अभी सेवा में हैं और कभी न कभी रिटायर होंगे। उसके बाद आप भी ईमानदार बन जांएगे। आपने जो जानकारी दी है उसका उपयोग करूंगा। धन्यवाद। यह बात रिज़र्व बैंक को दे दें तो हिंदी का भला होगा। शायद आप कीचड़ उछालने के बजाय हिंदी के भले के लिए कुछ रचनात्मक कार्य करेंगे।
Hindiwale namak vyakti ki bebak pratikriya se sahmat hoon. hindi ki chakri karne ke baad phir hindi ki hi dukan kholkar baith gaye huzoor. rajbhasha se jude logo ne hindi ka kuch zyaada hi nuksan kiya hai. Janab jis desh ki rajbhasha Hindi ho aur wahan ke rashtrapati ke website English me ho
जवाब देंहटाएंus des ka kya hoga. Prashikhan karyakram chalane aur paise banane walo se hindi ka kuch nahi hone wala. Aap sahi artha me Hindi ko badhane ke liye andolan kijiye. Niyamo ki jaankari aapko hain. Sarkar ko aur sarkari sansthayon ko gherne ki koshih kijiye janab, kuwat hai to. letter baji se kuch nahin hota. hai taqat,andolan karne ki to kijiye par kewal buddhi vilas se kuch nahi hoga.
मैं आपकी बात से सहमत हूँ कि कहीं न कहीं हिंदी वाले ही जिम्मेदार हैं !
जवाब देंहटाएंरुनु के प्रति
जवाब देंहटाएंकौआ हंस की चाल तो नहीं चल सकता है लेकिन वह हंस के ऊपर बदबूदार विष्ठा करके अपनी गंदी सोच को ज़ाहिर कर देता है। लगता है गुमनाम मित्र की भी यही सोच है। `हिंदीवाले` का अनुसरण करने वाले की सोच आपस में न मिलती तो उनकी राह पर न चलते। उन्होंने तो सीख ले ली। आप भी ले लें।
मैं तो जन्म से ही हिंदी से जुड़ा रहा। 1967 में वाराणसी में पुलिस की बरबरता देखी और 41 वर्ष तक हिंदी से सक्रिय रूप से जुड़ा रहा तो अब हिंदी का दामन छोड़ना एक तरह से हिंदी के साथ छल करने के बराबर है और यह मेरी प्रकृति में नहीं है। हिंदी से बेवफ़ाई करना अपनी पत्नी से बेवफ़ाई से बढ़ कर है। मैं यह दुर्गुण आपसे नहीं सीख सकता। यही कारण है कि हिंदी के बल पर सुविधा का भोग करने बाद अब भी हिंदी की ही सेवा कर रहा हूं। आप की नज़र में दुकान होगी मेरी नज़र में तो सेवा है। हिंदी की सेवा कैसे की जानी मुझे आप जैसे ईर्ष्यालु और कलुषित व्यक्तित्व से सीख लेने की ज़रूरत नहीं है। मेरी सेवा में अब तक 167 लोग आए हैं और सभी को सेवा ही लगी। आप भी किसी न किसी प्रकार से प्रशिक्षण दे रहे होंगे और आँकड़ा जमा कर रहे होंगे।
वैसे कलुषित विचारों के बारे में चर्चा करके उसे बढ़ावा देने जैसे लगता है जिससे बचना चाहिए परंतु जबाब न देने को कमज़ोरी न समझें इसलिए जवाब दे रहा हूं। छद्म नहीं स्पष्ट रूप से सामने आएं और स्वस्थ चर्चा करें, सकारात्मक माहौल तैयार करें जिससे उस हिंदी का भला हो जिसके बल पर हवाई यात्रा, उपहारों का भोग तथा चारणों की जमात में झूठे राजा बने हुए हैं।
आप बात तो हिंदी की करते हो परंतु देवनागरी ते परहेज करते हैं। क्या आपके कंप्यूटर में यह सुविधा नहीं है? या आपको इसका ज्ञान नहीं है। आइए मुफ़्त में ट्रेनिंग दे दूंगा क्योंकि मैं अपने हर कार्यक्रम में दो-तीन लोगों को निःशुल्क ट्रेनिंग तो देता ही हूं पाँच दिन खाना भी मुफ़्त में खिलाता हूं।
हिंदी के बारे में आंदोलन भी चला रहा हूं जिसका ढिंढोरा पीटना ज़रूरी नहीं समझता। हाईकोर्ट में याचिका दायर की है। कोर्ट ने कुछ अहम जानकारी मांगी थी। जुटा रहा हूं। आप आगे आकर मदद करेंगे? शुभकामना।
अब तमिलभाषी जनता क्या चाहती है, इसका एक सवेक्षण होना ही चाहिए। वरना हिन्दी से नफ़रत तो ऐसी कर रहे हैं ये लोग जैसे साँप नेवले से।
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