रविवार, अगस्त 29, 2010

देश के लिए रोमन लिपि या अंग्रेज़ी भाषा नहीं बल्कि हिंदी व देवनागरी लिपि

जो लोग राजभाषा के कार्य से या इसके आंदोलन से जुड़े हुए हैं वे इस बात को भली भांति जानते हैं कि अंग्रेज़ लोग भारत में अपने शासन काल के प्रारंभ से ही अंग्रेज़ी भाषा के व्यापक प्रचार प्रसार के साथ ही रोमन लिपि के व्यापक प्रचार के लिए उतने ही प्रयत्नशील रहे जितना कि अपने धर्म, साहित्य एवं सभ्यता के लिए। देवनागरी के स्थान पर रोमन लिपि का प्रचार उनकी इसी योजना का अंग था जिसे मैकाले ने 2 फ़रवरी 1835 को व्यक्त किया था।

यद्यपि अंग्रेज़ी भाषा के व्यापक प्रचार प्रसार के साथ ही रोमन लिपि का प्रसार तो स्वयं ही हो रहा था परंतु वे इतने से ही संतुष्ट नहीं थे। वे भारत की विभिन्न भाषाओं की विभिन्न लिपियों के स्थान पर रोमन लिपि को ही प्रतिष्ठित करना चाहते थे। अंग्रेज़ शासकों ने अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए साम, दाम, भय, भेद आदि सभी प्रकार की नीतियों का उपयोग किया। धर्म प्रचारक पादरी थे या पुलिस अधिकारी, न्यायाधीश थे या फ़ौज के अफ़सर, सभी अंग्रेज़ और उनके फ़रमाबरदार भारतीय, चाहे वे किसी भी विभाग या क्षेत्र के क्यों न थे, रोमन लिपि के गुणगान को प्रभु भजन के समान ही अपना परम कर्तव्य समझते थे।

रोमन के प्रचार के लिए पुस्तकें छापी गईं, लेख लिखे गए, गोष्ठियां आयोजित की गईं। इस प्रकार भारत के हज़ारों शिक्षितों के मन में धारणा बद्धमूल कर दी गई कि रोमन लिपि संसार की अद्वतीय लिपि है। परिणाम स्वरूप भारत के अनेक ख्यातनाम भाषा शास्त्रियों, शिक्षा विशारदों एवं उच्च व्यक्तियों ने रोमन प्रचार का झंडा अपने हाथों में ले लिया और बिना गंभीर चिंतन किए, देवनागरी के विरुद्ध खुले आम प्रचार के लिए कृतसंकल्प होकर रणक्षेत्र में कूद पड़े। इनमें प्रमुख भाषा वैज्ञानिक सुनीति कुमार चाटुर्ज्या अग्रणी थे। उन्होंने 1935 में कलकत्ता विश्व विद्यालय के जर्नल, डिपार्टमेंट ऑफ़ लेटर्स के भाग 27 में "रोमन अल्फ़बेट्स फ़ॉर इंडिया" शीर्षक से निबंध प्रकाशित किया। उस लेख में उन्होंने सभी भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि के प्रयोग को उचित बताया तथा रोमन में लिखने की प्रणाली भी बताई। परंतु हमारे सुधी और देशप्रेमी नेताओं ने रोमन को एक सिरे से नकारते हुए देवनागरी को ही उपयुक्त और अनिवार्य बताया। 3 जुलाई 1937 को महात्मा गांधी ने हरिजन सेवक में स्पष्ट शब्दों में यह घोषणा की कि रोमन लिपि न तो हिंदुस्तान की सामान्य लिपि हो सकती है और न होनी चाहिए। इसी प्रकार जब रोमन के समर्थकों के दबाव में आकर असम में कुछ जातियों ने देवनागरी लिपि की जगह रोमन लिपि में लिखना पढ़ना प्रारंभ किया तो गांधी जी ने 18 फ़रवरी 1939 को पुनः हरिजन में लिखा कि मुझे मालूम हुआ है कि असम में कुछ जातियों को देवनागरी लिपि की जगह रोमन लिपि में लिखना पढ़ना सिखाया जा रहा है। मैं अपनी राय पहले ही ज़ाहिर कर चुका हूं कि हिंदुस्तान में सर्व सामान्य हो सकने वाली कोई लिपि है तो वह देवनागरी ही है, भले ही उसमें सुधार की गुंजाइश हो न हो।

देवनागरी लिपि के समर्थन में केशवचंद्र सेन, भूदेव मुखर्जी, महात्मा हंसराज, स्वामी श्रद्धानंद, लोकमान्य तिळक, पं. मदन नोहन मालवीय, काका कालेलकर, पुरुषोत्तम दास टंडन, विनोबा भावे आदि सैकड़ों राष्ट्र हितैषियों ने हिंदी भाषा एवं देवनागरी लिपि को देश के लिए अनिवार्य घोषित किया। कलकत्ता हाईकोर्ट के न्यायाधीश शारदाचरण मित्र ने अपने अकाट्य तर्कों द्वारा भारत की समस्त भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि के प्रयोग का प्रस्ताव रखा, "अब भारत में एक लिपि के व्यवहार एवं उसके आसेतु हिमालय तक प्रसार का समय आ गया है और वह लिपि देवनागरी के सिवाय और कोई नहीं हो सकती है।"

हिंदी के साथ नागरी के अंतर प्रांतीय प्रचार प्रसार हेतु देश में अनेक संस्थाओं की स्थापना हुई। उत्तर से दक्षिण तक अनेक संस्थाएं सेवा भाव से कार्यरत रहीं और रोमन लिपि के चंगुल से भारतीय भाषाओं की रक्षा की तथा भारत की राष्ट्रीय, राजनैतिक, भावात्मक एवं सांस्कृतिक एकता की नींव सुदृढ़ की। परंतु आज छुद्र निजी स्वार्थों के कारण देवनागरी और हिंदी दोनों का विरोध किया जा रहा है। सबसे नया उदाहरण है रुपए के नए प्रतीक को हिंदी का प्रतीक मानकर विरोध की आवाज़ उठाना।

इस सच्चाई के बावज़ूद कि रोमन वर्णमाला और रोमन लिपि अत्यंत दोषपूर्ण हैं और जिन ध्वनियों का हम उपयोग कर सकते हैं उन्हें लिखने में नितांत असमर्थ है फिर भी इसे सरल बताया जा रहा है। सरकारी कार्यालयों में जो लोग रोमन लिपि का इस्तेमाल करके हिंदी लिख रहे हैं या हिंदी लिखने के लिए रोमन प्रणाली का उपयोग करने की सलाह देते हैं वे जाने अनजाने हिंदी भाषा व संस्कृति का अहित कर रहे हैं। मुझे तो बड़ा आश्चर्य होता है जब हिंदी अधिकारी भी ट्रांसलिटरेशन पद्धति द्वारा देवनागरी टाइप करने की सलाह देते हैं। मैं इसके सख्त ख़िलाफ़ हूं और अपने हर कार्यक्रम में हिंदी लिपि और लेखन पद्धति पर ही बल देता हूं। इस विषय पर व्यापक और गंभीरता से वैज्ञानिक चर्चा की ज़रूरत है। अतः कंप्यूटर पर देवनागरी टाइपिंग के लिए केवल दो ही लेआउट – टाइपराइटर और ट्रेडीशनल, का उपयोग किया जाए और इन्हीं का प्रशिक्षण दिया जाए। ट्रांसलिटरेशन पद्धति के उपयोग को प्रश्रय न दिया जाए। ट्रांसलिटरेशन पद्धति द्वारा देवनागरी टाइप करने के लिए ट्रेडीशनल या टाइपराइटर लेआउट के मुक़ाबले अधिक स्ट्रोकों का उपयोग करना पड़ता है।

क्या रुपए का नया प्रतीक क्षेत्रीयता का परिचायक है?