बहुत दिनों बाद,
किसी बड़े प्रशिक्षणार्थी समूह से चर्चा करने का अवसर मिला। नैशनल इन्स्टीट्यूट
ऑफ़ पब्लिक ऐडमिनिस्ट्रेशन के सौजन्य से 27 जुलाई को जयपुर में आए सहभागियों से
चर्चा का मौका मिला था। सहभागियों के समूह में राजभाषा कक्ष और प्रशासन से जुड़े
लोगों का शुमार था। लोग बहुत ही उत्साही और जिज्ञासु थे। मुझे राजभाषा नीति, उसके
कार्यान्वयन, राजभाषा कार्यान्वयन समिति के गठन, उनके कार्यवृत्त व कार्यसूची कैसे
बनाई जाए जैसे विषयों पर चर्चा करना था। परंतु मैंने यह मान लिया था कि ये विषय तो
बेहद परिचित और पुराने हो गए हैं। इन पर कौन चर्चा सुनना चहेगा। अतः मैंने राजभाषा
अधिनियम, नियमावली तथा राष्ट्रपति के राजभाषा संबंधी आदेशों के कार्यान्वयन के
बारे में व्यावहारिक पहलुओं और राजभाषा हिंदी के आंदोलन, उनकी पृष्ठभूमि एवं
राजनीतिक परिदृश्य पर चर्चा की। लोगों की सहभागिता और प्रतिक्रिया से लगा कि ऐसी
कार्यशालाओं की आज भी प्रासंगिकता है। हम अपने आप इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं
कि लोगों को तो ये सब मालूम ही होगा।
कार्यक्रम के बाद
एक दो लोगों से व्यक्तिगत प्रतिक्रिया भी ली। उससे पता चला कि भारत सरकार के
कार्यालयों में कार्यरत, राजभाषा के अधिकतर कर्मी राजभाषा नीति, उसके कार्यान्वयन,
राजभाषा कार्यान्वयन समिति के गठन, उनके कार्यवृत्त व कार्यसूची कैसे बनाई जाए
जैसे विषयों पर कभी चिंतन ही नहीं करते हैं और न ही पढ़ने की कोशिश करते हैं।
कंप्यूटर पर हिंदी में काम करने के लिए तो आज भी किसी न किसी हिंदी सॉफ़्टवेयर या
गैर मानक फॉन्ट का उपयोग करने से बाज नहीं आ रहे हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि
हिंदी के कार्यान्वयन में कंप्यूटर का अधिकतम उपयोग किया जाए और वह भी यूनीकोड के
ही इस्तेमाल से। आशा है राजभाषा कर्मी इस ओर संजीदगी से ध्यान देंगे, “किस-किसको
कोसिए किस-किसको रोइए, आराम बड़ी चीज़ है मुंह ढककर सोइए”, की
मनोवृति त्यागकर, अपने-अपने कार्यालयों में अपने अनुभाग/कक्षों तक महदूद न रहकर
कार्यालय के अन्य कामों में भी अपना योगदान देंगे तथा अपने सहकर्मियों को,
कंप्यूटर का अधिकतम उपयोग करने एवं यूनीकोड के ही इस्तेमाल के लिए प्रेरित करेंगे।*****