शनिवार, जून 04, 2011

कार्यालयों की कार्यप्रणाली का बदलता स्वरूप और हिंदी कार्यशालाओं की भूमिका

विचारणीय मुद्दे
अतः हमें दो बातों पर विचार करना है - एक, `कार्यालयों की कार्यप्रणाली का बदलता स्वरूप', दो, `हिंदी कार्यशालाओं की भूमिका'। पहले हम पहली बात पर विचार कर लें। कार्यालयों की कार्यप्रणाली के बदलते स्वरूप से हमारा क्या आशय है? क्या कार्यालयों की कार्यप्रणाली बदली है? बैंकों की कार्यप्रणली तो बदली है। इनकी कार्यप्रणाली में कोई खास परिवर्तन हुआ है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के कारण इनका क्षेत्र और अधिक व्यापक हो गया है। तेज़ी से विकास करती सूचना प्रौद्योगिकी के कारण संचार व संप्रेषण के माध्यमों में ज़रूर बदलाव आ गया है। कार्यालयों की कार्यप्रणाली कुछ हद तक बदली है। अतः इनकी कार्यप्रणाली के बदलते स्वरूप से संभवतः हमारा आशय सूचना प्रौद्योगिकी के अत्यधिक प्रयोग की आवश्यकता के कारण तेज़ी से परिवर्तनशील माहौल से है। इसलिए इलेक्ट्रॉनिक युग और संचार के नए माध्यमों के माहौल में कार्यशालाओं की भूमिका की चर्चा करना समीचीन लगता है। लेकिन इससे पहले पृष्ठभूमि पर विचार करना समीचीन रहेगा।
कार्यशालाओं की शुरुआत
कार्यालयों में राजभाषा कक्षों की स्थापना राजभाषा नियम...1976 के अस्तित्व में आने के बाद हुई। हिंदी में काम करने वाले अधिकारियों/कर्मचारियों की सहायता के लिए कार्यशालाएं आयोजित करने का निदेश है। उसके बाद तीसरे खंड में भी इसका ज़िक्र आया और समिति ने कहा कि कारअयशालाओं का अच्छा प्रभाव हुआ है इसलिए नियमित आधार पर इनका आयोजन किया जाता रहे और पाँच वर्ष तक कार्यशालाओं का आयोजन इसी प्रकार से जारी रखा जाए ताकि कार्यालय के हर व्यक्ति को साल में कम से कम एक बार भाग लेने का अवसर मिल सके। संसदीय समिति ने अपने पहले, तीसरे और चौथे प्रतिवेदनों में कार्यशालाएँ आयोजित करने का सुझाव दिया था परंतु विषयों के बारे में कोई निदेश नहीं था। पहले प्रतिवेदन में केवल शब्दावली का अभ्यास कराने का ज़िक्र था।
वर्तमान कार्यशाला का स्वरूप
`कार्यशाला' शब्द अंग्रेजी के शब्द `वर्कशॉप का पर्याय है। इसका मतलब है, `काम करके सीखना', अर्थात्, अभ्यास उन्मुख प्रशिक्षण। इसका अर्थ है कि व्याख्यान आधारित प्रशिक्षण के बजाय व्यावहारिक कार्य की परिस्थिति में कार्य आधारित प्रशिक्षण दिया जाए। हमारी कार्यशाला में दोनों ही विधियों का अनुसरण किया जाता है, अर्थात्, व्याख्यान और अभ्यास दोनों का शुमार है। कार्यशाला के विषय और प्रशिक्षण के तरीके में स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार कुछ परिवर्तन के साथ कार्यशालाएँ आज भी उसी प्रकार आयोजित की जा रही हैं।
वर्तमान कार्यशाला का स्वरूप
`कार्यशाला' शब्द अंग्रेजी के शब्द `वर्कशॉप का पर्याय है। इसका मतलब है, `काम करके सीखना', अर्थात्, अभ्यास उन्मुख प्रशिक्षण। इसका अर्थ है कि व्याख्यान आधारित प्रशिक्षण के बजाय व्यावहारिक कार्य की परिस्थिति में कार्यालय के कार्य आधारित प्रशिक्षण दिया जाए।
विभिन्न केन्द्रीय कार्यालयों, उपक्रमों, सरकारी बैंकों में राजभाषा कार्यान्वयन की एक चुनौती हिंदी में कामकाज करने का प्रशिक्षण प्रदान करना है। सामान्यतया अधिकांश कर्मचारी अपने टेबल का कार्य अंग्रेजी में ही करना पसंद करते हैं। अंग्रेज़ी में कार्य करने के दो प्रमुख कारण है – पहला कारण अंग्रेज़ी भाषा में कार्य करने की आदत है तथा दूसरा कारण अंग्रेज़ी भाषा को एक बेहतर भाषा मानने की मानसिकता है। हिंदी कार्यशाला प्रमुखतया इन्हीं दो पक्षों पर केंद्रित रहती है। यह प्रशिक्षण न्यूनतम एक दिवस से लेकर अधिकतम सात दिनों का रहता है। यद्यपि वर्तमान में सामान्यतया यह 2 अथवा 3 दिवसीय होती है। विशेष परिस्थितियों में एक दिवसीय कार्यशालाएँ आयोजित की जाती है जो महज खाना पूर्ति साबित होती हैं। इससे आँकड़े तो तैयार हो जाते हैं परंतु हिंदी का भला नहीं होता है।
हिंदी कार्यशाला अधिकारियों तथा लिपिकों के लिए अलग-अलग आयोजित की जाती है। अलग-अलग आयोजन का उद्देश्य इन प्रवर्गों के अलग-अलग कार्यप्रणाली के कारण है। कहीं-कहीं अधिकारियों तथा लिपिकों की संयुक्त कार्यशालाएँ आयोजित की जाती हैं जिसे व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता है। इस कार्यशाला का प्रथम चरण नामांकन का होता है जिसमें हिंदी के कार्यसाधक ज्ञान कर्मचारियों को ही नामित किया जाता है। मैट्रिक स्तर तक एक विषय के रूप में हिंदी का अध्ययन अथवा प्राज्ञ परीक्षा उत्तीर्ण या लिखित घोषणा को हिंदी का कार्यसाधक ज्ञान माना जाता है। इस नामांकन में यह भी ध्यान रखना होता है कि नामित कर्मचारी को पिछले 5 वर्षों तक हिंदी कार्य़शाला में प्रशिक्षण हेतु नामित नहीं किया गया हो। प्रत्येक वर्ष हिंदी कार्यशालाओं के लक्ष्य निर्धारित किए जाते हैं तथा तदनुसार कार्यशालाएँ आयोजित की जाती हैं अतएव यह प्रतिवर्ष जारी रहने वाला कार्यक्रम है।
कार्यशाला के विषय व अवधि
कार्यशाला में भाग लेने वाले अधिकारियों/कर्मचारियों की यही प्रवृत्ति होती है कि कुछ लिखना न पड़े जबकि कार्यशाला का उद्देश्य ही अभ्यास है। अतः कार्यशाला में सत्रों के संचालन के लिए दोनों ही विधियों का अनुसरण किया जाता है, अर्थात्, व्याख्यान और अभ्यास दोनों का शुमार है।
कार्यशाला के विषय और प्रशिक्षण के तरीके में स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार कुछ परिवर्तन के साथ कार्यशालाएँ आज भी उसी प्रकार आयोजित की जा रही हैं जबकि विषयों का चयन कार्यशाला में नामित कर्मचारियों के कार्यों के अनुरूप होना चाहिए। सभी कार्यालयों के केंद्रीय कार्यालयों से कार्यशाला का पहला सत्र राजभाषा नीति का होना चाहिए । यह बहुत महत्वपूर्ण सत्र है। कार्यालयों में, राजभाषा के बारे में बहुत भ्रामक बातें प्रचलन में हैं। राजभाषा नीति को देश हित में व्यापक रूप से समझना तथा भाषा के बारे में नकारात्मक मानसिकता को दूर करके यसकारात्मक महौल तैयार करने की ज़िम्मेदारी इसी सत्र की है। शब्दावली निर्माण की आवश्यकता, हिंदी पत्राचार में इनके प्रयोग, प्रोत्साहन योजनाएँ, आंतरिक कामकाज में हिंदी का प्रयोग, हिंदी पारिभाषिकों के निर्माण की विधि, उच्चारण के नियम, मानक वर्तनी, प्रौद्योगिकी में हिंदी आदि विषयों का समावेश किया जाना चाहिए। इस प्रकार कार्यशाला में शामिल कर्मचारियों को हिंदी में चर्चा करने, हिंदी में लिखने तथा कंप्यूटर पर यूनीकोड आधारित हिंदी में कार्य करने आदि का पूर्ण और उपयोगी अवसर मिलता है।
कार्यशाला के प्रशिक्षकों की भूमिका
हिंदी कार्यशाला के प्रशिक्षकों पर कार्यशाला का पूरा दारोमदार रहता है। हिंदी कार्यशालाओं के प्रशिक्षक राजभाषा अधिकारी या हिंदी अधिकारी होते हैं। राजभाषा अधिकारी के ज्ञान, उसका अभिव्यक्ति कौशल, विषय का गंभीरता से विश्लेषण, प्रश्नों के सार्थक समाधान करने की क्षमता से ही कार्यशाला की सफलता जुड़ी होती है। कार्यशाला में जागरूक, प्रतिभाशाली और कार्यालयी कामकाज में कुशल कर्मचारी होते हैं ऐसी स्थिति में यदि योग्य और प्रभावशाली संप्रेषण क्षमता वाले प्रशिक्षकों का चुनाव न केवल कार्यशाला को सफल बनाता है बल्कि इससे कार्यशाला का गौरव भी बनता है।
कार्यशाला की भूमिका
जहाँ तक कार्यशाला की भूमिका का प्रश्न है तो इस बारे में कोई दो राय नहीं है कि कार्यशालाएँ हिंदी में काम करने का माहौल तैयार करने और स्टाफ में हिंदी के बारे में जागरूकता फैलाने में अहम भूमिका निभा रही हैं। कार्यशालाओं के उपरांत सहभागियों से प्राप्त प्रतिक्रियाओं के आधार पर निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि कार्यशालाएँ उपयोगी हैं और इनकी भूमिका निर्विवाद है।
कार्यशलाएँ कब तक चलाई जाती रहेंगी
अब प्रश्न यह उठता है कि कार्याशालाओं की ज़रूरत है और 1976 से ही कार्यशलाएँ चलाई जा रही हैं तो अभी तक हमारे सभी स्टाफ प्रशिक्षित क्यों नहीं हो पाए? इतने वर्षों के बावज़ूद हम सभी अधिकारियों/कर्मचारियों को प्रशिक्षित नहीं कर पाए। जब हम इस पर गौर करते हैं तो कुछ अहम बातें सामने आती हैं। हम उन्हें समस्या के रूप में पहचानें और उनका समाधान करें ताकि इस उपयोगी मंच का व्यापक उपयोग हो सके।
कार्यशाला आयोजन की समस्याएँ
कार्यशालाएँ आयोजित करने में दो प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है - प्रशासनिक और अकादमिक ।
प्रशासनिक समस्याएँ
निदेशानुसार कार्यशालाओं में उन्हें प्रशिक्षित किया जाना है जिन्हें हिंदी का कार्यसाधक ज्ञान हो। भारत सरकार ने कार्यसाधक ज्ञान का निर्धारण करने के लिए नया रोस्टर बनाने का निदेश दिया है। उसके अनुसार रोस्टर बनाने के बाद अब कार्यशाला में प्रशिक्षित किए जाने वाले स्टाफ़ ही नहीं मिलेंगे क्योंकि राजभाषा कक्षों के पास रोस्टर ही नहीं है।
दूसरी प्रशासनिक समस्या यह है कि कार्यशालाएँ आयोजित करने के लिए सभी विभागों और कार्यालयों में स्थान नहीं नहीं मिलता, कार्यशालाओं में भाग लेने के लिए स्टाफ़ भी आना नहीं चाहते, कार्य की आवश्यकता के नाम पर विभाग स्टाफ सदस्यों को प्रतिनियुक्त नहीं करते हैं।
अकादमिक समस्या
जब यह सिद्ध हो गया है कि हिंदी के प्रयोग में वृद्धि के लिए कार्यशालाओं की भूमिका निर्विवाद है तो दूसरा प्रश्न उठता है कि क्या वर्तमान परिस्थितियों में, उसमें पढ़ाए जाने वाले विषयों की प्रासंगिकता है और प्रशिक्षण की विधि में कुछ परिवर्तन की आवश्यकता है? अतः अब कार्यशाला आयोजित करने के स्वरूप के बारे में चर्चा करना और उसे बदलने के लिए प्रयास करना आवश्यक है।
जब यह सिद्ध हो गया है कि हिंदी के प्रयोग में वृद्धि के लिए कार्यशालाओं की भूमिका निर्विवाद है तो दूसरा प्रश्न उठता है कि क्या वर्तमान परिस्थितियों में, उसमें पढ़ाए जाने वाले विषयों की प्रासंगिकता है और प्रशिक्षण की विधि में कुछ परिवर्तन की आवश्यकता है? अतः अब कार्यशाला आयोजित करने के स्वरूप के बारे में चर्चा करना और उसे बदलने के लिए प्रयास करना आवश्यक है।
नवोन्मेषी तरीके की शुरुआत - दोनों समस्यओं का समाधान
मेरे विचार में इन दोनों समस्याओं का समाधान नवोन्मेषी मॉडल अपनाकर किया जा सकता है। कार्यशालाओं के आयोजन में नवोन्मेषी मॉडल लाना अनिवार्य हो गया है क्योंकि हमारे कार्य करने का माध्यम सूचना प्रौद्यागिकी और कंप्यूटर हो गया है। हमारे सभी काम अब कंप्यूटर आधारित ही होंगे। हम पूर्ण कंप्यूटरीकरण और ऑपरेशन क्रिटिकल प्रणाली की ओर बढ़ रहे हैं। अतः सूचना प्रौद्योगिकी के आधुनिक युग में पुरातन पद्धति तथा पाठ्यक्रम एकदम कालबाह्य (Obsolete) हो गए हैं। कार्यशालाएँ इंटरैक्टिव और कंप्यूटर आधारित बनाई जा सकती हैं।
यदि कार्यालयों में इन्फ़्रास्ट्रक्चर की व्यवस्था करना संभव न हो तो स्थानीय आधार पर किसी हिंदी सेवी संस्था की मदद से इस काम को पूरा किया जा सकता है। गैर सरकारी हिंदी सेवी संस्थाएं कम खर्च में, कार्यालयों की आवश्यकता के अनुसार स्ट्रक्चर्ड प्रशिक्षण मॉड्यूल तैयार करके कम से कम तीन दिन की कार्यशाला का आयोजन कर सकती हैं। अतः कार्यालयों के स्तर पर इस प्रकार की जा सकती है। हर विभाग तथा कार्यालय स्थनीय नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति (नराकास) के माध्यम से व्यवस्था कर सकते हैं। इस प्रकार एकरूप, मानक और वांछित कार्यक्रम को लागू किया जा सकेगा तथा नराकास के माध्यम से अनुवर्तन करना भी संभव होगा। इस प्रकार हर कार्यालय द्वारा कार्यों की पुनरावृत्ति और क्लास रूम की आवश्यकता से बचा जा सकता है। हर विभाग के कार्यालय में अलग-अलग कार्यशालाएं आयोजित करना ज़रूरी नहीं होगा।
राजभाषा कार्यान्वयन समिति (नराकास) की वेबसाइट
हम सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से, नराकास की वेबसाइट के माध्यम से एक-एक विभाग के लिए, विभाग स्पेस्फिक कार्यशालाएं आयोजित कर सकते हैं। एक घंटा रोज, दस दिन तक ऑनलाइन अभ्यास हो और केंद्रीकृत ढंग से हिंदी में कंप्यूटर पर टाइपिंग करना, पत्रलेखन के टेंप्लेट (शैली) के प्रयोग से पत्र तैयार कराना तथा विभागीय टिप्पणियाँ लिखाना, कंप्यूटर द्वारा वर्तनी संशोधन करना, अंग्रेजी टेक्स्ट का हिंदी में शब्दानुवाद करके वाक्य रचना सिखाया जाए तो ज़्यादा उपयोगी होगा और छह माह के भीतर सभी विभागों, क्षेत्रीय कार्यलयों के सभी अधिकारियों / कर्मचारियों को प्रशिक्षित किया जा सकता है। प्रशिक्षण के लिए अभ्यास पुस्तिका भी दी जा सकती है जिसे प्रशिक्षणोपरांत उपयोग में लाया जा सकता है। कार्यशालाओं के बाद हमारे पास प्रशिक्षित स्टाफ सदस्यों का डाटाबेस भी तैयार हो जाएगा जिसके बाद अनुवर्तन करना तथा हिंदी पत्राचार में वृद्धि सुनिश्चित करना संभव हो जाएगा।
2. सभी प्रकार की कार्यशालाओं को समन्वित करके एक ही पाठ्यक्रम बनाया जाए।
3. विभाग स्पेसिफिक क कार्यशलाएँ आयोजित की जाएँ।
4. प्रशिक्षणोपरांत अनुवर्तन ज़रूरी है। प्रशिक्षण से लौटने के बाद अभ्यास न करने से प्रशिक्षण व्यर्थ हो जाता है।
************

बुधवार, जून 01, 2011

इलेक्ट्रॉनिक युग में भुगतान प्रणाली व जुड़े जोखिम

दैनिक कार्य व्यापार के सिलसिले में समाज का हर व्यक्ति किसी न किसी पर निर्भर है और अपनी ज़रूरत के अनुसार वह दूसरों से माल या सेवाएं लेता है। सामाजिक व्यवस्था के विकास के साथ-साथ परस्पर निर्भरता तथा आपसी लेनदेन बढ़ते गए। हर व्यक्ति हर काम में कुशल बनने का प्रयास करने के बजाय आपसी सहयोग तथा सह अस्तित्व के सिद्धांत को अपनाने लगा और ऐसी प्रणाली विकसित करते रहने की ओर सतत प्रयासशील रहा कि उसका जीवन सुकर बने, उसका कारोबार बढ़े तथा उसकी देनदारियों एवं लेनदारियों का समाधान होता रहे। उसके लिए ही 'भुगतान प्रणाली' का विकास हुआ। अतः भुगतान प्रणाली भी समय के साथ तथा आवश्यकतानुसार विकसित होती रही। आज के परिप्रेक्ष्य में भुगतान प्रणाली का मतलब संस्थागत भुगतान प्रणाली से है, चाहे वह नकद भुगतान हो या किसी लिखत या इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से हो। दूसरे, जब भुगतान की प्रणाली विकसित होती है तो साथ ही उसकी खामियाँ भी विकसित होती हैं जिसका ज्ञान हमें समय के साथ-साथ ही होता है। हम इस लेख में भुगतान प्रणाली तथा इससे जुड़े जोखिमों पर चर्चा करेंगे।
भुगतान प्रणाली का उद्देश्य
जब बैंकिंग व्यवस्था विकसित हुई तो भुगतान प्रणाली की संस्थागत व्यवस्थाएँ अस्तित्व में आईं। उसके परिणामस्वरूप समाशोधन प्रणाली प्रचलन में आई जिसमें कोई चेक, ड्राफ़्ट अथवा परक्राम्य लिखत बैंकिंग क्रियाविधि के माध्यम से प्रस्तुत किए जाने लगे। आजकल भुगतान की कई प्रणालियाँ प्रचलित हैं। परंतु उन सबका एक ही उद्देश्य है - एक पक्ष के खाते से दूसरे पक्ष के खाते में धन का अंतरण। भुगतान करने वाला पक्ष यदि चाहे तो नकद भुगतान कर सकता है या विनिमय प्रणाली द्वारा भी भुगतान कर सकता है। बैंक भी अपनी निधियों का अंतरण करने के लिए भुगतान प्रणाली का उपयोग करते हैं। उनके निधि अंतरण करने का स्वरूप ग्राहकों के निधि अंतरण से भिन्न होता है। भुगतान प्रणाली का स्वरूप चाहे जो भी हो उसका उद्देश्य है दो संबंधित पार्टियों के बीच आपसी देयताओं या देनदारियों को पूरा करना। उसके लिए लिखतों, नियमों तथा क्रियाविधियों का संग्रहण किया जाता है जिसके द्वारा लेनदेनकर्ता आपस में अपनी देनदारियों तथा लेनदारियों का समाधान करते हैं।

भुगतान प्रणाली के तीन प्रमुख तत्व हैं :

1. भुगतान करने वाले व्यक्ति द्वारा अपने खाते से धन का अंतरण करने के लिए बैंक को प्राधिकृत करना । बैंक को दिया जाने वाला प्राधिकार किसी न किसी लिखत के रूप में जैसे, चेक, पे आर्डर आदि हो सकता है।

2. भुगतान अनुदेश को संबंधित बैंक को भेजना तथा उनका आदान प्रदान - सामान्यतया समाशोधन।

3. संबंधित बैंकों के बीच देनदारियों/लेनदारियों का समाधान, अर्थात्, अदाकर्ता को बैंक द्वारा प्राप्तकर्ता के बैंक को या तो आपस में या किसी अन्य पक्ष के पास रखे गए खातों के माध्यम से (रिज़र्व बैंक या कोई अन्य बैंक) देनदारियों
लेनदारियों का समाधान।

प्रस्तुतकर्ता बैंक आहर्ता बैंक से उस लिखत का मूल्य समाशोधन गृह के माध्यम से प्राप्त करने लगे। यह प्रणाली बहुत दिनों तक देश विदेश में प्रचलित रही। जैसे-जैसे बैंकिंग का विस्तार होता गया भुगतान प्रणाली का भी विविधीकरण होता गया। पहले भुगतान के तरीके सीमित होते थे। परंतु आज नकद के अलावा चेक, ड्रॉफ़्ट, हुंडी, क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड, यात्री चेक, डाक अंतरण, तार अंतरण, ए.टी.एम, ऑनलाइन अंतरण, चिप कार्डों आदि के माध्यम से भुगतान होने लगे हैं। उसमें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और कंप्यूटर की नेटवर्किंग का महत्व बहुत बढ़ गया है। बैंकिंग के संदर्भ में भुगतान प्रणाली ऐसी व्यवस्था है जिसमें कई संस्थाएँ शामिल होती हैं और एक संस्था उनमें समन्वय का कार्य करती है।

भुगतान से जुड़े संभावित जोखिम

समाशोधन प्रणाली ऐसी व्यवस्था है जिसके तहत अलग-अलग लिखतों का भुगतान अलग-अलग नहीं किया जाता है बल्कि एक बैंक की संपूर्ण देयता का एक मुश्त रकम द्वारा भुगतान कर दिया जाता है। ऐसे में यदि भुगतान करने के बाद कोई बैंक किसी एक लिखत की देयता का भुगतान करने से मना कर दे या जब भुगतान देय हो उसके बहुत दिन बाद भुगतान करे तो ऐसी स्थिति में जोखिम की गुंजाइश रहती है। इसमें कुछ प्रणालीगत जोखिम भी है। यदि कोई बैंक अपने दायित्वों से मुकर जाए तो उसकी देयता अन्य बैंकों को उठानी पड़ेगी। चूँकि वित्तीय लेनदेनों में बहुत अधिक वृद्धि हो चुकी है और दिनों दिन उसकी मात्रा व संख्या बढ़ती जा रही है इसलिए समय समय पर प्रणाली में परिवर्तन परिवर्द्धन होते रहना चाहिए। नई तकनीकों के आगमन से उनके अनुरूप प्रणाली में यथावश्यक संशोधन किया जाना चाहिए। संचार माध्यमों और इलेक्ट्रॉनिक प्रौद्योगिकी में आई क्रांति के कारण जहाँ बहुत त्वरित गति से परिवर्तन हुए हैं, सुविधाएँ बढ़ी हैं वहीं जोखिम की संभावनाएँ भी बढ़ी हैं क्योंकि जितनी जटिल व उच्च तकनीकी प्रणाली, जोखिम की संभावना भी उतनी ही बढ़ी। अतः प्रणाली में निहित भुगतान जोखिमों को निम्नलिखित दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है :

प्रणालीगत जोखिम

इस प्रकार का जोखिम उस समय उत्पन्न होती है जबकि प्रणाली में शामिल कोई पक्ष अपनी देनदारियों से मुकर जाता है।
ऐसी स्थिति में उसका शृंखलात्मक प्रभाव होता है और प्रणाली ही छिन्न भिन्न हो जाती है।

समाधान जोखिम

इस प्रकार का जोखिम प्रायः समाधान में अनिश्चितता के कारण होता है। किसी भी भुगतान में इस प्रकार की गुंजाइश होती है कि देनदार पक्ष समय पर भुगतान करने में चूक कर दे। इसे साख जोखिम कहा जाता है। इससे तरलता (नकदी) जोखिम उत्पन्न हो सकती है क्योंकि जब समाधान में नकदी नहीं प्राप्त होगी तो उससे नकदी की स्थिति प्रभावित होगी। अतः उस पक्ष को धन की आवश्यकता की पूर्ति के लिए मजबूरन बाज़ार से धन जुटाना होगा। यदि आस्ति बेचकर धन जुटाना होगा तो उसे तत्कालीन बाज़ार जोखिम का सामना करना होगा।
इधर हाल में अंतरराष्ट्रीय भुगतानों की संख्या और मात्रा में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। फिलहाल पूरे विश्व में एकरूप भुगतान प्रणाली नहीं प्रचलित है। इसलिए ऐसे भुगतान जिसमें दो या अधिक देश शामिल होते हैं भुगतान समाधान से पूर्व उन्हें कई प्रक्रिया और प्रणालियों से गुज़रना पड़ता है। ऐसी प्रणालियों की सुदृढ़ता कई घटकों पर निर्भर होती है, जैसे, प्रणाली की गति, उसकी दक्षता, सहयोगियों या ग्राहकों की निष्ठा, प्रणाली विषयक तकनीक की उन्नति इत्यादि। अंतरराष्ट्रीय भुगतानों की सबसे बड़ी कठिनाई अधिकारिता क्षेत्र (जूरिसडिक्शन) की होती है क्योंकि उनमें भिन्न-भिन्न देश होते हैं और अंतरराष्ट्रीय कानूनों को लागू करने के बारे में बड़ी पेचीदगी का सामना करना पड़ सकता है।

जोखिम कम करने के उपाय

भारत के बैंक जोखिमों से चिंतित नहीं दिखते हैं क्योंकि इधर बहुत दिनों से सार्वजनिक क्षेत्र का कोई बैंक फेल नहीं हुआ है। भारतीय रिज़र्व बैंक, बैंकिंग उद्योग का नियामक होने के कारण समाशोधन गृह के कार्यों में महत्वपूर्ण या निर्णायक दखल रखता है। समाशोधन गृह को चलाने में रिज़र्व बैंक की निर्धारक भूमिका होती है। वह समाशोधन गृह के लिए मानक नियम व शर्तें निर्धारित करता है। वह समाशोधन गृह की सदस्यता लेने तथा किसी बैंक द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले चेकों की रकम को सीमित कर सकता है।
भुगतान प्रणाली में निहित जोखिमों को कम करने के लिए आवश्यक है कि `जोखिम नियंत्रण प्रणाली' विकसित की जाए।

राजभाषा हिंदी: उड़ते चेहरे फिसलते पाँव

राजभाषा हिंदी: उड़ते चेहरे फिसलते पाँव

रविवार, मई 29, 2011

प्रयोजनशील भाषा और नई शब्दावली

अपने शब्द भंडार की कमी या शब्द की जटिलता

हम जब किसी लेख में नए शब्द पाते हैं जिनका अर्थ नहीं जानते हैं तब उनका अर्थ सीखने के बजाय यह कोशिश करते हैं कि अपने पुराने और सीमित शब्द भंडार से ही काम चला लें। अतः हम लेखक पर ही जटिल शब्दों के प्रयोग का आरोप लगाकर अपनी अज्ञानता प्रकट तो करते ही हैं साथ ही यह भी संदेश देते हैं कि हमें व्यंजना शब्द शक्ति के प्रयोग का ज्ञान ही नहीं होता है।

नए शब्द सीखने की परंपरा

जब हम बच्चे होते हैं तो हमारे अंदर सीखने की प्रबल इच्छा होती है। शैक्षणिक अनुसंधानों से ज्ञात होता है कि एक पढ़े लिखे के बच्चे दस वर्ष की उम्र तक सामान्यतया बीस हज़ार शब्द सीख लेते हैं और चार साल की आयु के बाद हर साल कई सौ नए शब्द की दर से शब्द भंडार में वृद्धि करते रहते हैं। यह एक चौंकाने वाला तथ्य है सामने आया है कि प्रौढ़ लोग जो स्कूल नहीं जाते हैं उनके शब्द भंडार में बीस-पचीस शब्दों की वृद्धि होती है जब कि स्कूल जाने वाले प्रौढ़ लोगों के शब्द भंडार में सौ से ज़्यादा की दर से शब्दों की वृद्धि होती है। यदि बड़े होने पर पढ़ने की आदत छोड़ दें और कुछ नए शब्दों से परहेज़ करते हुए पुराने और अपने सीमित भंडार से ही काम चलाने का प्रयास करते रहें तो शब्द ज्ञान नहीं बढ़ेगा और ज्ञान विज्ञान के नए ज्ञान से अपरिचित रह जाएंगे। अतः नए शब्दों के प्रति उत्सुकता बनाए रखें और उनके अर्थ एवं प्रयोग को ज़िंदगी का हिस्सा बनाने की आदत डाली जाए।

हिंदी में भाषा सिखाने के साहित्य का अभाव

अंग्रेज़ी में तो अनेक पुस्तकें और अभ्यास पुस्तिकाएं उपलब्ध हैं जिनके उपयोग से लोग अंग्रेज़ी के नए शब्द सीख सकते हैं और उनका अभ्यास कर सकते हैं। साथ ही अंग्रेज़ी सीखने में समय भी लगाते हैं परंतु हिंदी या भारतीय भाषाओं में कुछ लिखा जाता है तो उसे पढ़ने में रुचि दिखाने के बजाय शब्दों की जटिलता का आरोप लगाकर पढ़ने से विमुख हो जाते हैं।
प्रयोजनशील विषयों पर लेखन की आवश्यकता

हिंदी में ज्ञान विज्ञान के विषयों पर अनुसंधान के प्रपत्र लिखने की परंपरा नहीं बन पाई है। हिंदी भाषा सशक्त तभी बनेगी जब इसमें हर विषय के साहित्य और शब्दावली प्रयोग में आएगी। 28 मई 2011 को नागपुर में ऑथर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया की संगोष्ठी में डॉ. बाला सुब्रमन्यम में अपने संबोधन में कहा कि आज के लेखक केवल कविता और उपन्यास तक ही सीमित न रहें बल्कि समाज से सरोकार रखने वाले विषयों पर अपनी लेखनी चलाएं।
*******

क्या रुपए का नया प्रतीक क्षेत्रीयता का परिचायक है?