राजभाष विकास परिषद द्वारा अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (आठ मार्च) के अवसर पर दो दिवसीय सेमिनार आयोजित किया था। इसमें बैंकों और सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं की महिला अधिकारियों ने भाग लिया। विभागों के प्रमुखों ने इस कार्यक्रम में कार्यरत पुरुषों को भेजना उचित नहीं समझा। इसके तो आयोजक पुरुष थे परंतु सहभागी महिलाएं ही रहीं। ऐसा करके पुरुष वर्ग ने यह संदेश दिया है कि महिलाओं को अपनी लड़ाई स्वयं ही लड़नी है। इसलिए वे अपने अधिकारों के बारे में जान लें और समाज में लैंगिक भेदभाव या उनपर हो रहे अन्याय के प्रति अपनी आवाज़ उठाएं।
इस दो दिवसीय कार्यक्रम में 'सेक्सुअल हरैसमेंट ऑफ़ वीमेन ऐट वर्क प्लेस' विषय के विवधि पहलुओं पर चर्चा की गई। इन विषयों पर चर्चा करने के लिए कानून के जानकार, शिक्षण और न्यायालयों में कानून की प्रैक्टिस करने वाले न्याय विदों को आमंत्रित किया गया था। सहभागियों ने अपनी सक्रिय सहभागिता द्वारा कार्यक्रम को उपयोगी बनाया और अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि इस प्रकार के कार्यक्रम में महिलाओं को तो आना ही चाहिए साथ ही पुरुषों को भी आना चाहिए ताकि उन्हें ज्ञात हो सके कि महिलों की स्थिति क्या है और उन पर किस प्रकार से ज़्यादतियाँ हो रही हैं? चर्चा में कहा गया कि यद्यपि संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1910 से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कार्य करने के लिए अनेक कॉन्वेंशन आयोजित की और 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की घोषणा की थी उसके 36 वर्ष बाद 1946 में 'महिलाओं के अधिकार' विषय पर विचार किया था और 'कॉमिशन ऑन स्टेटस ऑफ़ वीमेन' गठित किया था। परंतु बहुत वर्षों तक इस पर गंभीरता से कार्रवाई नज़र नहीं आती है। लेकिन ह्यूमन राइट को विश्व के अनेक देशों में महत्वपूर्ण माना गया और इस पर गंभीरता से अमल जारी रखा। विशेष और गंभीर प्रयासों की शुरुआत 1975 के बाद ही देखने में आती है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1975 को अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित किया और 1975 (मैक्सिको), 1980 (कोपेनहेगेन), 1985 (नैरोबी) तथा 1995 (बीजिंग) में सम्मेलन आयोजित किए। इसमें लिंग के आधार पर भेदभाव समाप्त करने तथा महिलाओं के सशक्तीकरण के मामले पर वचनबद्धता को पूरा करने का संकल्प लिया गया था। भारत में भी महिलाओं के अधिकार और उनके प्रति होने वाले अनैतिक व्यवहारों से निपटने के लिए कई कानून बनाए गए परंतु महिलाओं के कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के निवारण के लिए अलग से अधिनियम अथवा कानूनी प्रावधान नहीं बनाए गए ।
वर्षों से इससे संबंधित अपराधों को भारतीय दंड संहिता (इंडियन पीनल कोड) के अंतर्गत किए गए प्रावधानों के अनुसार कार्रवाई होती रही है। परंतु इस बारे में अलग से व्यवस्था की आवश्यकता और मामले की गंभीरता को महसूस करके उच्चतम न्यायालय ने 1997 में पहली बार 'विशाखा और अन्य बनाम राजस्थान सरकार' मामले में कुछ मार्गदर्शी सिद्धांत सुझाए और सरकार को निदेश दिया कि जब तक कि भारत के संसद द्वारा इस बारे में कोई उपयुक्त कानून नहीं बनाया जाता तब तक उच्चतम न्यायालय के इस मार्गदर्शी सिद्धांत को, संविधान के अनुच्छेद 141 के अनुसार कानून माना जाए और किसी भी कार्यस्थल पर चाहे वह सरकरी या निजी हो, इसका अनुसरण किया जाए।
भारत सरकार ने 'सेक्सुअल हरैसमेंट ऑफ़ वीमेन ऐट वर्क प्लेस (प्रिवेंशन, प्रॉहिवशिन ऐंड रिड्रेसल, 2006) नामक विधेयक तैयार किया था। उस बिल में पुनः संशोधन किया गया और उसे ''दि प्रोटेक्शन ऑफ़ वीमेन अगेंस्ट सेक्सुअल हैरेसमेंट ऐट वर्क प्लेस बिल, 2007'' नाम से वेबसाइट के पब्लिक डोमेन में रखा और अनुरोध किया कि इसमें सुझाव दिया जाए। चूंकि वह बिल अभी भी संसद द्वारा पारित करने के लिए संसद के समक्ष लंबित है और इस बीच मीडिया में, हरियाण के भूतपूर्व डी. जी. पी. का मामला बहुत उछाला गया इसलिए सरकार ने इसमें कुछ और संशोधन करने के विचार से पुनः विचार आमंत्रित किया है तथा इस वर्ष इसे पास करने का मन बना लिया है। इसमें छह अध्याय, 40 धाराएं और तीन अनुसूचियां थीं। अब इसमें पांच अध्याय, 22 धाराएं और एक अनुसूची है जिसमें विभिन्न कार्यस्थलों का विवरण दिया गया है। यह व्यापक व सरल भाषा में बनाया गया विधेयक है जो पास होने पर उपयोगी सिद्ध्ा होगा।