रविवार, सितंबर 25, 2011

ब्यूरोक्रैट कानून को कैसे मरोड़ते हैं – एक अध्ययन


राजनीतिज्ञों के साथ मिलकर ब्यूरोक्रैटों ने संविधान में किए गए राजभाषा संबंधी प्रावधानों को कैसे असफल बनाया है यह अध्ययन का विषय है। इस बारे में राष्ट्रपति द्वारा जारी 1955 के सांविधिक आदेश का अध्ययन प्रस्तुत है। विश्लेषण को ध्यान से पढ़ने और नए सिरे से सुधारात्मक कार्रवाई की जाने की आवश्यकता है।
राजभाषा अधिनियम, 1963 हिंदी को केवल भारत सरकार के कार्यालयों में उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए नहीं बल्कि भारत संघ की राजभाषा के रूप में, जिस प्रकार हमारा राष्ट्रीय ध्वज है, राष्ट्रीय गान है, उसी प्रकार भारत की अस्मिता की पहचान तथा पूरे भारत के विभिन्न भाषा-भाषी लोगों व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दस्तावेज़ की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए सहायक के रूप में बनाया गया था। लेकिन आज ऐसा लगने लगा है कि हमारा सारा ध्यान एकांगी हो गया है और हम राज्यों में हिंदी के प्रयोग, इसकी शिक्षा, शिक्षा के माध्यम के रूप में इसे विकसित करने की बात ही नहीं करते हैं।    
हम जानते हैं कि हिंदी को राजभाषा घोषित करते समय और संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों में इसके बारे में प्रावधान करते समय संविधान के निर्माताओं के मन में कोई संकुचित भावना नहीं थी। तभी तो संविधान अनुच्छेद 351 में संघ सरकार को विशेष निदेश दिया गया है कि "हिंदी भाषा की प्रसारवृद्धि करना, उसकी विकास करना ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम हो सके तथा उसका आत्मीयता में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी और अष्टम् अनुसूची में उल्लिखित अन्य भाषाओं के रूप, शैली और पदावली को आत्मसात करते हुए तथा जहाँ तक आवश्यक और वांछनीय हो वहाँ उसके भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से तथा गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करना संघ का कर्तव्य होगा।"
संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। स्वतंत्र भारत द्वारा चुनी गई पहली लोक सभा ने 17 अप्रैल 1952 को अपना कार्यभार ग्रहण किया। इससे पूर्व 25 अक्तूबर 1951 से 21 फ़रवरी 1952 के बीच देश पहले चुनाव में व्यस्त था। महात्मा गांधी ने 1917 में भरूच में गुजरात शैक्षिक सम्मेलन में अपने अध्यक्षीय भाषण में राष्ट्रभाषा की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा था कि भारतीय भाषाओं में केवल हिंदी ही एक ऐसी भाषा है जिसे राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाया जा सकता है क्योंकि यह अधिकांश भारतीयों द्वारा बोली जाती है, यह समस्त भारत में आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक सम्पर्क माध्यम के रूप में प्रयोग के लिए सक्षम है तथा इसे सारे देश के लिए सीखना आवश्यक है। संविधान निर्माताओं ने संविधान के निर्माण के समय राजभाषा विषय पर विचार-विमर्श किया था और यह निर्णय लिया कि देवनागरी लिपि में हिंदी को संघ की राजभाषा के रूप में अंगीकृत किया जाए। इसी आधार पर संविधान के अनुच्छेद 343(1) में देवनागरी लिपि में हिंदी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया।  किन्तु, संविधान के निर्माण तथा अंगीकरण के समय यह परिकल्पना की गई थी कि संघ के कार्यकारी, न्यायिक और वैधानिक प्रयोजनों के लिए प्रारम्भिक 15 वर्षों तक अर्थात 1965 तक अंग्रेज़ी का प्रयोग जारी रहे । तथापि यह प्रावधान किया गया था कि उक्त अवधि के दौरान भी राष्ट्रपति कतिपय विशिष्ट प्रयोजनों के लिए हिंदी के प्रयोग का प्राधिकार दे सकते हैं। अतः राष्ट्रपति ने पहली संघ सरकार के गठन के बाद अगले ही महीने, 27 मई 1952 को, राजभाषा के प्रयोग के बारे में अपना पहला आदेश जारी करके, राज्यों के राज्यपालों, उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के नियुक्ति पत्र अंग्रेज़ी भाषा के अलावा हिंदी भाषा में भी जारी करने के लिए निदेश दिया। ये सारे आदेश केंद्र सरकार द्वारा जारी किए जाते हैं परंतु इन पर अनुवर्ती कार्रवाई राज्य सरकारों को भी करनी होती है। अतः अपने इस आदेश द्वारा केंद्र सरकार ने स्पष्ट संदेश दिया था कि हम राजभाषा के कार्यान्वयन के मामले में गंभीर और सचेत हैं।
इस संदर्भ में राष्ट्रपति ने दूसरा आदेश 3 दिसंबर 1955 को जारी किया जिसे गृह मंत्रालय ने 8 दिसंबर 1955 को कार्यालय ज्ञापन संख्या 59/2/54 पीयूबी-1 के अंतर्गत आम जानकारी और कार्रवाई के लिए प्रकाशित किया। 
हिंदी को पीछे रखने और अंग्रेज़ी को आगे बढ़ाने का खेल यहाँ से प्रारंभ हुआ। जानकारी और विश्लेषण के लिए राष्ट्रपति के आदेश और गृह मंत्रालय के आदेश की भाषा उद्धृत कर रहा हूं।
 

राष्ट्रपति के आदेश का मूल पाठ
गृह मंत्रालय द्वारा जारी किया गया पाठ
भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 के खंड (2) के परंतुक द्वारा दी गई शक्तियों का प्रयोग करते हुए राष्ट्रपति ने निम्नलिखित आदेश दिया है –
  1. यह आदेश संविधान (राजकीय प्रयोजनों के लिए हिंदी भाषा) आदेश, 1955 कहलाएगा-
  2. संघ के जिन राजकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेज़ी भाषा के अतिरिक्त हिंदी भाषा का प्रयोग किया जाएगा, वे इससे संलग्न सूची में दिए गए हैं।
अनुसूची
मुझे यह कहने का निदेश हुआ है कि संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार अंग्रेज़ी भाषा के स्थान पर धीरे-धीरे हिंदी भाषा का प्रयोग करने के लिए जो सुझाव दे गए थे उन पर अप्रैल 1954 में एक अंतरविभागीय बैठक में विचार किया गया। भारत सरकार के मंत्रालयों में हिंदी में काम शुरू करने के लिए जो प्रबंध तत्काल करने का विचार है उसका ब्योरा संक्षेप में इस प्रकार है –
 
(1)   जनता के साथ पत्र-व्यवहार,
1.         जनता से हिंदी में जो भी पत्रादि मिले उनके उत्तर भरसक हिंदी में ही दिए जाने चाहिए।
टिप्पणी – (क) राष्ट्रपति के 3 दिसंबर 1955 के आदेश को तोड़मरोड़ कर, विभागों को भेजा गया और यह संदेश दिया गया कि केवल हिंदी में प्राप्त पत्रों के ही उत्तर भरसक हिंदी में दिए जाने चाहिए और वह भी यदि आप चाहें।
(ख) राष्ट्रपति के आदेश में विनिर्दिष्ट रूप से संविधान के अनुच्छेद 343 (2) का उल्लेख किया गया है जिसमें (2) खंड (1) में किसी बात के होते हुए इस संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की कालावधि के लिए संघ के उन सब राजकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेज़ी भाषा प्रयोग की जाती रहेगी जिनके लिए ऐसे प्रारंभ के ठीक पहले वह प्रयोग की जाती थी,
परंतु राष्ट्रपति उस कालावधि में, आदेश द्वारा, संघ के राजकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेज़ी भाषा के साथ-साथ हिंदी भाषा का तथा भारतीय अंकों के अंतरराष्ट्रीय रूप के साथ-साथ देवनागरी रूप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा।
(ग) राष्ट्रपति के आदेश में "राजकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए" में से जनता के साथ, चाहे वह कहीं से भी हो, पत्रव्यवहार हिंदी में करने का निदेश दिया गया है न कि हिंदी में प्राप्त और वह भी भरसक उत्तर देने का विकल्प हो।
(घ) "ये उत्तर सरल हिंदी में दिए जाने चाहिए" – मतलब हिंदी लिखा जाना शुरू करने से पहले ही भ्रम फैलाना कि हिंदी कठिन होगी।              
  1. प्रशासनिक रिपोर्टें, राजकीय पत्रिकाएँ और संसद को दी जाने वाली रिपोर्टें।
  1. प्रशासनिक रिपोर्टें, राजकीय पत्रिकाएँ और संसद को दी जाने वाली रिपोर्टें, आदि जहाँ तक संभव हो अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी में भी प्रकाशित की जानी चाहिए।
टिप्पणी – (क) राष्ट्रपति के 3 दिसंबर 1955 के आदेश में "जहाँ तक संभव हो अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी में भी प्रकाशित की जानी चाहिए"। का उल्लेख नहीं है बल्कि वह अनिवार्य है क्योंकि अंग्रेज़ी में "shall be" का उपयोग किया गया जो अनिवार्य के लिए प्रयुक्त होता है। अतः यहाँ भी  राष्ट्रपति के आदेश को तोड़मरोड़ कर पेश किया गया है।
  1. सरकारी संकल्प और विधायी अधिनियमितियाँ।
  1. सरकारी संकल्पों और विधायी अधिनियमों में धीर-धीरे अंग्रेज़ी के स्थान पर हिंदी का प्रयोग करने और जनता की सहायता करने के विचार से जहाँ तक संभव हो उन्हें अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी में भी निकाला जाए किंतु इन पर स्पष्ट रूप से लिख दिया जाना चाहिए कि अंग्रेज़ी पाठ ही प्रामाणिक माना जाएगा।
टिप्पणी – (क) सरकारी संकल्प और विधायी अधिनियमितियाँ के हिंदी संस्करण स्थान पर संकल्प और अधिनियम "जहाँ तक संभव हो उन्हें अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी में भी निकाला जाए किंतु इन पर स्पष्ट रूप से लिख दिया जाना चाहिए कि अंग्रेज़ी पाठ ही प्रामाणिक माना जाएगा।" जबकि राष्ट्रपति के आदेश में ऐसा उल्लिखित नहीं है और न ही जनता के लिए सुविधा की बात की गई थी। अधिनियमों व कानून का उपयोग न्यायालय तथा न्याय प्रशासन से जुड़े लोगों द्वारा किया जाता है और न्यायालयों में हिंदी का प्रयोग सुनिश्चित करने के लिए हिंदी में कानून उपलब्ध होना चाहिए।
(ख) कानून का अंग्रेज़ी संस्करण को प्रामाणिक माना जाएगा यह लिखकर हिंदी में काम करने का विश्वास ही समाप्त कर दिया गया।   
  1. जिन राज्य सरकारों ने अपनी भाषा के रूप में हिंदी को अपना लिया है उनसे पत्र-व्यवहार - अंग्रेज़ी भाषा के अतिरिक्त हिंदी भाषा का प्रयोग किया जाएगा।
  1. जिन राज्य सरकारों ने हिंदी को अपनी राज भाषा के रूप में अपना लिया है उनके साथ पत्र-व्यवहार अंग्रेज़ी में होना चाहिए किंतु यदि हो सके तो भारत सरकार द्वारा भेजे गए सभी पत्रादि के साथ उनका हिंदी अनुवाद भी भेजा जाना चाहिए ताकि सांविधानिक कठिनाइयों और का सामना न करना पड़े।
टिप्पणी – (क) राष्ट्रपति का आदेश हिंदी को अंग्रेज़ी का स्थान लेने के लिए इसको विकसित करना था और उसके लिए प्रयास करना था। परंतु यह तो एकदम उलटी बात कर दी गई।
(ख) अंग्रेज़ी भाषा के अतिरिक्त हिंदी भाषा का प्रयोग किया जाना था परंतु यहाँ स्पष्ट रूप से लिखा गया कि पत्र-व्यवहार अंग्रेज़ी में होना चाहिए किंतु यदि हो सके तो भारत सरकार द्वारा भेजे गए सभी पत्रादि के साथ उनका हिंदी अनुवाद भी भेजा जाना चाहिए ताकि सांविधानिक कठिनाइयों और का सामना न करना पड़े। सांविधानिक कठिनाइयों के नाम पर हिंदी का प्रयोग ही रोक दिया गया।       
  1. संधियाँ और करार। (6) अन्य देशों की सरकारों और उनके दूतों तथा अंतरराष्ट्रीय संगठनों से पत्र-व्यवहार, (7) राजनयिक और कौंसलीय प्राधिकारियों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों में भारतीय प्रतिनिधियों के नाम जारी के जाने वाले औपचारिक दस्तावेज़ - अंग्रेज़ी भाषा के अतिरिक्त हिंदी भाषा का प्रयोग किया जाएगा।      
  1. संविधान के उपबंधों का पालन करने के लिए ऊपर बताए गए तरीके के अनुसार काम शुरू करने से पहले राष्ट्रपति का आदेश लेना उचित होगा।
टिप्पणी – (क) इन प्रावधानों को लागू करने से पहले राष्ट्रपति से दुबारा आदेश क्यों प्राप्त करना चाहिए।
(ख) दिनांक 3 दिसंबर 1955 को जारी आदेश पर भारत सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा पुनर्विचार करने के लिए अंतरविभागीय बैठक की बात की गई है और उस बैठक में किए गए निर्णयों के अनुसार गृह मंत्रालय ने 8 दिसंबर 1955 को कार्यालय ज्ञापन भी जारी कर दिया। मात्र पाँच दिन में बैठक की नोटिस भेजने, बैठक आयोजित करने और उसका कार्यवृत्त तैयार करने, कार्यवृत्त के अनुमोदित होने और उसके बाद कार्यालय ज्ञापन तैयार करने और जारी करने की संपूर्ण कार्रवाई पूरी कर ली गई। यह इतने कम समय में संभव नहीं लगता है। 3 दिसंबर 1955 को शनिवार था। उसके बाद अगले दिन रविवार। आगे मात्र तीन दिन में अंतरविभागीय बैठक की नोटिस भेजी गई, बैठक भी हो गई। यह तो भारतीय ब्यूरोक्रेसी के लिए प्रशंसनीय कार्य होगा।       

2.      ऊपर के पैरा 1(5) में बताए गए निर्णय के अनुसार राष्ट्रपति ने एक संविधान (राजकीय प्रयोजनों के लिए हिंदी भाषा) आदेश जारी किया है। जानकारी के लिए इस आदेश की प्रतिलिपि संलग्न है।  

3.      विदेश मंत्रालय की वांछानुसार इस आदेश में संधियों और करारों में तथा दूसरे देशों की सरकारों आदि तथा अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ पत्र-व्यवहार में तथा राजनयिक धिकारियों आदि को भेजे जाने वाले औपचारिक काग़ज़ पत्रों में हिंदी का प्रयोग करने के लिए कहा गया है।
टिप्पणी – राष्ट्रपति के आदेश में यह प्रमुख मद के रूप में लिखा गया है। परंतु यहाँ गृह मंत्रालय ने इसकी गंभीरता समाप्त कर दी।      

राजनीतिज्ञों के साथ मिलकर ब्यूरोक्रैटों ने हिंदी के प्रश्न को संवविधान में अनंत काल तक के लिए टालने की साजिश की है क्योंकि इसे अनंत काल तक के लिए टालने का फ़ैसला जनता द्वारा नहीं किया गया है और न ही किसी समित द्वारा सुझाया गया था। आज तक जितनी भी समितियां, आयोग बने किसी ने भी हिंदी के प्रश्न को समय सीमा (पंद्रह साल) से परे रखने की सिफ़ारि‍श नहीं की है। राजभाषा आयोग, विश्‍व विद्यालय अनुदान आयोग, केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड, सभी ने हिंदी व क्षेत्रीय भाषाओं में ही शिक्षा-दीक्षा देने की सिफ़ारिश की है। तब संविधान में हिंदी को अनिश्चित काल के लिए टालने की बात कहां से आई? इसे धीरे-धीरे लागू किया जाए यह बात भी किसी आदेश में नहीं कही गई है। यह निश्चित रूप से कोई सोची समझी चाल तथा प्रच्छन्न विद्वेष की भावना लगती है। इसे समझने और गलती को सुधारने की आवश्‍यकता है।
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6 टिप्‍पणियां:

  1. अपनी भाषा को पीछे करने में उनका क्या फायदा है यह समझ में नहीं आता बहुत अच्छा आलेख बधाई

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  2. हिंदी की व्यथा कथा को कुलदीप नैयर जी ने भी अपनी किताब between the lines में बखूबी उजागर किया है|

    उत्तम जानकारी!
    आभार

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  3. आपके इस महत्वपूर्ण विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारे स्वतंत्र देश के लोकतंत्र पर आज भी अंग्रेजी मानसिकता वाली अफसरशाही हावी है.सप्रमाण और तथ्यात्मक जानकारी के साथ ब्लॉग पर प्रस्तुत आपके इस आलेख का प्रकाशन हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में भी होना चाहिए ,ताकि देशवासी अपनी राष्ट्रभाषा के साथ अपने ही देश के कुछ विदेशी मनोवृत्ति वाले लोगों द्वारा की जा रही बदसलूकी से परिचित हो सकें और हिन्दी को दोयम दर्जे पर रखने की उनकी साजिश का पर्दाफ़ाश हो सके. इस ज्ञानवर्धक आलेख के लिए बधाई और आभार.

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  4. हिन्दी में चाहें वाली बात: अगर मंत्रालय ने ऐसा किया, तो सरकार और उसके सारे अंग कहाँ थे? किसी को दिखा नहीं ये सब? जवाब होगा कि राजभाषा है ही गृह मंत्रालय के कब्जे में। लेकिन राष्ट्रपति का काम क्या केवल आदेश देना ही है?

    अंग्रेजी को प्रामाणिक मानने की बात: संविधान से लेकर कानूनों का यही हाल है। अंग्रेजी प्रति को प्रामाणिक मानने की बात संविधान सभा तक में लादी गयी है।

    हम अधीनस्थ मंत्रालयों या कार्यालयों को दोष नहीं देते। ये राष्ट्रपति महोदय लोग खुद ईमानदा नहीं रहे हैं इन मामलों में।

    संविधान निर्माताओं के मन में तो खूब दुर्भावना रही है, हमारे खयाल से। संविधान सभा वाली हिन्दी की बहस पढ़ने से तो यही लगा।

    बात रही अंग्रेजी को लागू करने की तो धीरे धीरे मीठे जहर की तरह योजनाबद्ध(ऐसी योजनाएँ, जो दिखती नहीं या दिखाई-बताई नहीं जाती) तरीके से अंग्रेजी को आगे बढ़ाया गया। और इस राजभाषा विभाग को तो बन्द कर ही देना चाहिए अब। यह तमाशे सा लगता है।

    कुछ कड़े शब्द लगें तो माफ़ कीजिएगा। लेकि ये सब गलत नहीं हैं।

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