मंगलवार, मार्च 01, 2011

हिंदी विरोध अब बेमानी लगता है

दुनिया के छोटे-से-देश का अंतरराष्ट्रीकरण हो रहा है और लोगों को अब भाषा तथा धर्म के नाम पर भेद करना संगत नहीं लग रहा है। तमिल नाडु के नेताओं ने जब से केंद्र सरकार में सक्रिय सहभागिता का स्वाद चखा है और अकूत धन कमाने का रास्ता दिल्ली में तलाश लिया है तब से तमिल नाडु में हिंदी का विरोध कुछ कम हुआ है और अब गैर तमिल भाषियों को तमिल नाडु में घूमने और हिंदी माध्यम से बात चीत करने में कठिनाई नहीं आ रही है। परंतु अभी भी कुछ कट्टर पंथी हिंदी के विरोध का झंडा उठाकर अपना भविष्य तो कूपमंडूक जैसा बना ही रहे हैं अन्य निरीह और गंदी राजनीति से परे लोगों को गुमराह कर रहे हैं। अब तमिल नाडु के नेताओं को हिंदी विरोध का मुद्दा त्यागकर भ्रष्टाचार विरोध का झंडा उठाना चाहिए।
 कांग्रेस जैसी अखिल भारतीय और धर्म निरपेक्ष पार्टी से उम्मीद की जाती है कि तमिलनाडु के नेताओं से कहा जाए कि बदलते परिवेश में भाषा विरोध को मुद्दा बनाने के बजाय राज्य की जनता के रोज़गार को ध्यान में रखते हुए लोगों को बाहर निकलने का रास्ता बनाएं। इस बारे में मैंने कांग्रेस के महासचिव श्री राहुल गांधी को भी पत्र लिखा है कि आने वाले चुनाव के मद्दे नज़र तमिल नाडु सरकार आपकी सरकार के साथ गठबंधन करने जा रही है। आपसे करबद्ध निवेदन है कि तमिल नाडु सरकार से केवल इतना कहें कि आपके साथ तभी गठबंधन होगा जब आप हिंदी का विरोध छोड़ने की घोषणा करें। उत्तर भारत की सभी पार्टियाँ आपका अनुसरण करेंगी। दक्षिण में हिंदी विरोध खत्म होने पर पूरे देश में सही संदेश तो जाएगा ही विघटन की प्रक्रिया रुकेगी और संवाद निर्बाध रूप से हो सकेगा। आम जनता को हिंदी भाषा से कोई विरोध नहीं है। यह मेरा स्वयं का अनुभव है। मैंने दक्षिण के गांवों का भ्रमण किया है और लोगों से बात की है। क्षुद्र राजनीति करने वाले नेता ही ऐसा कार्य करते हैं जिससे विघटन को बढ़ावा मिलता है। यदि आप हिंदी को साथ लेकर चलने की अपील करेंगे तो तमिल के युवा और महत्वाकांक्षी नेता आपके साथ सहज रूप से जुड़ेंगे क्योंकि उन लोगों को अंग्रेज़ी सचमुच नहीं आती है। इसीलिए तो दक्षिण से नेता नहीं प्रोफ़ेशनल व्यवसायी राजनीति में आ रहे हैं।
 
 

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