गुरुवार, मार्च 03, 2011

वर्ष 1963 व 1967 के हिंदी आंदोलन तथा हिंदी आज भी अस्तित्व की तलाश में


हिंदी के बारे में पुनर्विचार की आवश्यकता है। हालाँकि नेहरू जी अंग्रेज़ी समर्थक थे और उनका प्रारंभिक जीवन ऐसे वातावरण में बीता था जिसमें अंग्रेज़ी का प्रभुत्व था परंतु वे अंग्रज़ी के अंध भक्त नहीं थे। उनके पिता जी हिंदी के विरोधी नहीं थे परंतु इसके प्रति उदासीन ज़रूर थे। चूंकि नेहरू जी की ज़िंदगी में अंग्रेज़ी का अहम स्थान था और उनके अच्छे दोस्तों में अंग्रेज़ शामिल थे इसलिए उनकी नज़र में अंग्रेज़ी के लिए विशेष अनुराग होना स्वाभाविक था। इसके अलावा, हिंदुस्तान में अंग्रेज़ों की वर्ण संकर संतानें, ऐंग्लो-इंडियन जिनकी संख्या 1947 में लगभग 3,00,000 थी और स्वतंत्रता के बाद देश में अपने भविष्य के बारे में उनको भरोसा नहीं था इसीलिए अंग्रेज़ों के जाने के साथ ही देश छोड़कर यू.के., अमरीका, आस्ट्रेलिया तथा कनाडा जाने लगे थे, उनके प्रति भी विशेष अनुराग था। अब यह संख्या 1,50,000 से भी कम हो गया है। ऐंग्लो-इंडियनों के प्रति इसी अनुराग के कारण ही संभवतः वे फ़्रैंक एंथोनी के खिलाफ़ नहीं गए और उन पर बहुत विश्वास भी करते थे। अतः उन्हीं के दबाव में आकर ऐंग्लो-इंडियनों के लिए देश में न केवल विशेष स्थान दिलाया बल्कि उन्हीं के दबाव में आकर 1965 के बाद भी हिंदी को राजभाषा का असली दर्ज़ा अनंत काल तक के लिए टल गया और अंग्रेज़ी उसी तरह बरकरार रही।

फ़्रैंक एंथोनी का जन्म जबलपुर में हुआ था और वे वहीं पर वकालत करते थे। बोलने में बहुत ही मुखर थे और ऐंग्लो-इंडियन होने के कारण अपनी मातृभाषा अंग्रेज़ी मानते थे। ऐसा किसी देश में नहीं होगा कि वहाँ की स्थानीय भाषा समृद्ध होने के बावज़ूद दूसरे दर्ज़े की भाषा हो। एक सौ दस करोड़ की जनसंख्या वाले देश में केवल 1.5 लाख लोगों की मातृभाषा को प्रथम भाषा का दर्ज़ा और लगभग 60 प्रतिशत से ज़्यादा हिंदी बोलने वालों के साथ सौतेला व्यवहार।

मेरी समझ में एक बात और आई है। वर्ष 1963 व 1967 के हिंदी आंदोलन में दक्षिण भारतीयों को नाहक मोहरा बनाकर लड़ाई लड़ी गई। जबकि संसद में हिंदी के विरोध में और अंग्रेज़ी के पक्ष में सबसे ज़्यादा शोर मचाने तथा नेहरू जी से आश्वासन लेने वाले ऐंग्लो-इंडियन फ़्रैंक एंथोनी थे। आज मैकाले की नीति के धर्मध्वजी ऐंथोनी नहीं हैं परंतु उनके द्वारा बनाई गई राह को बदलना असंभव तो नहीं पर आसान भी नहीं दिखती है।

राजभाषा अधिनियम, 1963 पर, लोक सभा में 23 अप्रैल 1963 को बोलते हुए बंगाल के श्री हीरेंद्रनाथ मुखर्जी ने कहा था कि मुझे यक़ीन है कि "उस अवसर पर प्रधान मंत्री ने जो वक्तव्य दिया वह उन जैसे राजनेता की सूझबूझ के अनुरूप था। मुझे आशा है कि वे उससे कभी नहीं मुकरेंगे। परंतु मुझे यह भी उम्मीद है कि वे इस बात को स्पष्ट कर देंगे कि हम अपने क़ानून में ऐसी व्यवस्था नहीं रखेंगे जिससे हिंदी या दूसरी राष्ट्रीय भाषाओं के विषय में क़ानून बनाना असंभव हो जाए। जनतांत्रिक पद्धति से लिए गए निर्णयों को वीटो करने का अधिकार किसी भी अल्प संख्यक वर्ग को, चाहे वह कितना ही मुखर और शोर मचाने वाला क्यों न हो, नहीं देना चाहिए।"

अब जब हम राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा 5(5) पर नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि श्री हीरेंद्रनाथ मुखर्जी का डर सही साबित हुआ और केंद्र सरकार ने "असंभव निष्पादन" का नियम चरितार्थ कर दिया है। "देश में अंग्रेज़ी को राजकाज के लिए तब तक नहीं रोका जा सकता है और हिंदी को राजभाषा का वास्तविक दर्ज़ा नहीं मिल सकता है जब तक कि अंग्रेज़ी भाषा का प्रयोग समाप्त कर देने के लिए ऐसे सभी विधान मंडलों द्वारा, जिन्होंने हिंदी को राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया है, संकल्प पारित नहीं कर दिए जाते और जब तक पूर्वोक्त संकल्पों पर विचार कर लेने के पश्चात ऐसी समाप्ति के लिए संसद के हर एक सदन द्वारा संकल्प पारित नहीं कर दिया जाता।"  क्या यह संभव है? कोई संविधान संशोधन के लिए दो तिहाई राज्यों का समर्थन आवश्यक है। परंतु राजभाषा हिंदी के मामले में यह शर्त 100 प्रतिशत रख दी गई है। असंभव की स्थिति। यह साजिश है। इस पर फिर से विचार किया जाना चाहिए।           

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