पहला
विश्व हिंदी सम्मेलन नागपुर में 10जनवरी 2006 को आयोजित किया गया था और तब से हर साल 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है।
विदेश मंत्रालय ने भारतीय मिशन/पोस्ट के माध्यम से विदेशों में भाषा के रूप में
हिंदी का प्रचार करने के लिए प्रयास कर रहा है। वर्तमान में, हिंदी भाषा दुनिया भर
के 20 से अधिक देशों में बोली जाती है और दुनिया के 150 विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही है। भारत में हिंदी
का प्रचार-प्रसार टेलिविज़न, हिंदी सिनेमा और हिंदी मीडिया के माध्यम से निर्बाध रूप
से हो रहा है परंतु स्कूलों में हिंदी भाषा का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। हिंदी
अध्यापकों को हिंदी का भाषा वैज्ञानिक एवँ व्याकरणिक प्रशिक्षण आवश्यक है। हिंदी
वर्तनी में मानकता व एक रूपता का अभाव है। इस पर भी ध्यान देना ज़रूरी है। इस बारे
में परिषद के इसी ब्लॉग पर विस्तृत लेख छापे जा चुके हैं उनको पढ़ा जा सकता है।
शनिवार, जनवरी 10, 2015
मंगलवार, नवंबर 11, 2014
उच्च पदस्थ मंत्रियों ने हिंदी में शपथ ली - सुप्रियो बाबुल दास व आंध्र प्रदेश के चौधरी ने अंग्रेज़ी में शपथ ली?
केंद्र सरकार में मंंत्री पद की पद व गोपनीयता की शपथ सुप्रियो बाबुल दास व आंध्र प्रदेश के चौधरी ने अंग्रेज़ी में ली, सुरुचिपूर्ण व्यंजनों के बीच बैंगन जैसा लगा। इससे क्या साबित करना चाहते हैं ये दोनों मंत्री। क्या ये लोग मुख्य धारा के विपरीत बहने का प्रयास कर रहे हैं? चौधरी को हिंदी नहीं आती तो अपनी मातृभााषा में शपथ ले सकते थे। सुप्रियो बाबुल दास तो हिंदी में गाते हैं और लोगों की वाहवाही बटोरते हैं। क्या अब हिंदी के प्रयोग को तिलांजलि देने वाले हैं?
शुक्रवार, सितंबर 12, 2014
हिंदी दिवस 2014
नई सरकार, नई सोच परंतु ब्यूरोक्रेसी की वही पुरानी सोच और चाल। लेकिन हिंदी को सफर करना है और करती रहेगी क्योकि चलना ही ज़िंदगी है। दो दिन बाद हिंदी दिवस है और कहीं कोई समाचार, झंडे पताके दिखावे के लिए भी नहीं दिखाई दे रहे हैं। लगता है कार्यालयों में कार्यरत हिंदी कर्मी भी आश्वस्त हो गए हैं कि हिंदी को जब अपने आप ही आना है तो क्यों घबड़ाना। कम से कम मोदी जी तो हिंदी में बोलते ही हैं।
शुक्रवार, जुलाई 18, 2014
जनता के बारे में सकारात्मक सोचने की ज़रूरत
हिंदी की राजनीति करने के बजाय देश
और जनता के बारे में सकारात्मक सोचने की ज़रूरत है। हम बहुत समझदार होंगे परंतु महात्मा
गांधी की बराबरी न तो कर पाएंगे और न ही किसी में इतनी आत्मिक शक्ति है न ही देश
के लिए त्याग की उतनी क्षमता है। भाषा की क्षुद्र राजनीति करने वाले राजभाषा
अधिनियम की उन धाराओं को अपनी ढाल बनाते हैं जो असंवैधानिक प्रतीत होती हैं और ऐसे
ही हिंदी के घोर विरोधियों (विद्वेषवश विरोधी) के कारण आवेश में आकर, गांधी के आदेशों के बावज़ूद, संसद में पास
करा दी गई थी। दक्षिण में हिंदी का विरोध नहीं है बल्कि उस मानसिकता से विरोध है
जो हिंदी का नाम लेकर उत्तर और दक्षिण को बाँटना चाहते हैं।
मैं पहले भी लिख चुका हूँ कि अपनी
दक्षिण भारत की सड़क मार्ग से यात्रा के दौरान मुझे लोगों से हिंदी में सहायता
माँगने में कोई कठिनाई नहीं आई। यही बात आज तमिल नाडु के पूर्व राज्यपाल माननीय भीष्म
नारायण सिंह ने भी कही है कि मैं “अन्नई वरकुम
वणक्कम” बोलने के बाद हिंदी में बोलता था और हिंदी
का कोई विरोध नहीं होता था बल्कि उनके काम की बात पर वे तालियाँ भी बजाते थे। यही
बात लोक सभा चुनाव 2014 के दौरान नरेंद्र मोदी द्वारा दक्षिण भारत के राज्यों में
हिंदी में दिए गए भाषणों से भी स्पष्ट होती है।
कुछ साल पहले तक कर्नाटक में भी हिंदी का विरोध मुखर
होता दिख रहा था। परंतु आज कर्नाटक के लोग केंद्रीय मंत्रिपरिषद में शामिल होकर
हिंदी में बोलते हैं। कर्नाटक के मुख्य मंत्री को भी हिंदी में जवाब देने में कोई
कठिनाई नहीं होती है। मैंने कर्नाटक हाई कोर्ट के वकीलों को हिंदी में अच्छी तरह बात
करते देखा है। हमें ऐसी सोच अपनानी और विकसित करनी चाहिए जिससे ग्रामीण और अंग्रेज़ी
का कम ज्ञान रखने वाले प्रतिभाशाली लोगों के साथ अन्याय न हो। केंद्रीय नियोक्ता संस्थाओं
को ऐसा तंत्र विकसित करना चाहिए जिससे संविधान द्वारा मान्य किसी भी भाषा भाषी
व्यक्ति को आगे बढ़ने में कोई रुकावट पैदा न हो।
मंगलवार, जुलाई 01, 2014
हिंदी आंदोलन - अपने उद्देश्यों के लिए जनमत का दुरुपयोग
जनमत यानि कि आम
जनता की राय। किसी भी जनतांत्रिक प्रक्रिया में आम जनता का कितना समर्थन हासिल है या
किसी मुद्दे पर आम आदमी का समर्थन जुटाने के लिए जनमत तैयार किया जाता है। इसे ऐसे
कहें कि किसी भी सामाजिक और राजनैतिक मुद्दे पर कितने लोग पक्ष में हैं यह जानने
के लिए जनतांत्रिक तरीके से जनता की प्रतिक्रिया जुटाई जाती है और उसके आधार पर यह
धारणा बनाई जाती है कि आम आदमी की बहुमत राय क्या है। हिंदी के मामले में जनमत का
उपयोग कैसे किया किया गया यह अपने आप में एक घातक अपराध से कम नहीं है। जब कोई
नेता चुनाव के दौरान झूठा वादा करता है या प्रलोभन देता है और चुनाव के बाद ठीक
उसके विपरीत आचरण करता है तब उसकी मंशा की पोल खुलती है। फिर भी वह अपने बचाव में
तरह तरह के तर्क देकर अपने आप को जनता का हितैषी साबित करने की कोशिश करता रहता
है।
हिंदी के समर्थन और
विरोध में खड़े किए गए सामाजिक आंदोलन का खामियाजा भारत बहुत दिनों तक भुगतने के
लिए अभिशप्त है। आम आदमी यह नहीं समझ पाता है कि उसकी भलाई किस बात में है। उसकी दूरदर्शी
सोच न होने के कारण स्वघोषित समाज हितैषी चालाक नेता आंदोलन की आड़ में लोगों को
भ्रमित करके एक क्षेत्र में संकुचित करने की साज़िश करता है ताकि उसका वोट बैंक
सुरक्षित रहे और उनके जनमत का बहाना बनाकर वह अपना हित साधता रहे। जनता ग़रीब,
अशिक्षित और लाचार बन कर पड़ी रहती है और नेता अमीर तथा साधन संपन्न बनता जाता है।
परंतु जनता को और अधिक दिनों तक बेवकूफ़ बना कर नहीं रखा जा सकता है। तभी तो
मद्रास उच्च न्यायालय में हिंदी के पक्ष में दायर याचिका इस बात का प्रमाण है कि तमिल
नाडु की आम जनता अब हिंदी का विरोध छोड़ कर आगे बढ़ना चाहती है और करुणानिधि जैसे चालाक,
खुदगर्ज़ नेता तथा उनके कुनबे के लोगों की चाल को समझ गई है। अब भाषा की छुद्र
राजनीति में उनका और साथ नहीं देना चाहती है।
दक्षिण भारत का
हिंदी आंदोलन मात्र चार-पाँच लोगों की साजिश का नतीज़ा है जिसकी नींव 1937 में
डाली गई थी। उस साजिश में दक्षिण के दो-तीन लोग तथा उत्तर व मध्य भारत को दो
प्रमुख लोग शामिल थे। दक्षिण के लोगों के नाम तो खूब उछले और उन्हें हिंदी के
खलनायक के रूप में पेश किया गया था परंतु उत्तर व मध्य भारत के दो लोगों के नाम
कभी नहीं लिए गए। 1935 गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट, 1935 लागू होने के फलस्वरूप प्रेसीडेंसी
राज्यों में अपनी सरकारें बनने का दौर शुरू हुआ था। उसी सिलसिले में मद्रास में 14
जुलाई 1937 को चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के नेतृत्व में कांग्रेसी सरकार बनी। वे दक्षिण
में हिंदी का प्रचार करने के समर्थक थे। चुनाव से पहले भी उन्होंने 6 मई 1937 को ₹सुदेशमित्र
नामक अखबार में एक लेख लिखा था कि सरकारी नौकरियाँ सीमित हैं। ये हर किसी को नहीं
मिल सकती हैं। अतः दूसरी नौकरियों की तलाश करनी होगी। उसके लिए और कारोबार के लिए
हिंदी का ज्ञान आवश्यक है। हम दक्षिण भारतीय हिंदी सीखकर दूसरों के बीच अपना सम्मान
बढ़ा सकते हैं। ग्यारह
अगस्त 1937 राजगोपालाचारी ने, मुख्य मंत्री बनने के एक माह के भीतर ही अपनी मंशा
के अनुरूप माध्यमिक शिक्षा में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य करने की नीति का दस्तावेज़
जारी करने का बयान दे दिया।
उसके बाद
हिंदी विरोध की राजनीति करने वाले ई. वी. रामास्वामी (पेरियार) और जस्टिस पार्टी के मुखिया ए.
टी. पनीरसेलवम ने राजगोपालाचारी के उस प्रस्ताव का विरोध किया तथा 4 अक्तूबर 1937
को हिंदी विरोधियों का सम्मेलन आयोजित करके हिंदी का विरोध शुरू कर दिया। विरोध के
उस कार्य में भारत के संविधान के निर्माता डॉ. बी. आर. अंबेडकर तथा पाकिस्तान के
संस्थापक जिन्ना भी साथ हो लिए। फ़रवरी 1940 मे बंबई में डॉ. बी. आर. अंबेडकर के
निवास पर बैठक हुई जिसमें पेरियार, पनीरसेलवम, जिन्ना शामिल हुए थे। इस प्रकार वह
आंदोलन फ़रवरी 1940 तक चला क्योंकि 1939 में विश्व युद्ध छिड़ गया और उसमें
ब्रिटिश इंडिया द्वारा भारतीय सैनिकों को भेजे जाने के विरोध में राजगोपालाचारी ने
अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। राज्य में कांग्रेसी सरकार नहीं रही तथा ब्रिटिश
गवर्नर लॉर्ड एर्सकिन ने राजगोपालाचारी के आदेश को वापस ले लिया और हिंदी की पढ़ाई
पर रोक लग गई लेकिन पेरियार के सेल्फ़ रेस्पेक्ट मूवमेंट तथा पीस पार्टी के पुराने
नेताओं, जैसे, कुमार वेंकट रेड्डी और ए. टी. पनीरसेलवम के नेतृत्व में हिंदी विरोध
जारी रहा। इन नेताओं की ख्याति हिंदी के आंदोलनकर्ताओं के
रूप में नहीं थी फिर भी इन्हें ऊपर से संरक्षण प्राप्त था।
*******
रविवार, जून 29, 2014
लिखी पाती जवाब नहिं आयो
राविप.01/1.3/2014-15 दिनांक 06 जून 014 08 आषाढ़ 1936 (शक)
डॉ. दलसिंगार यादव
अध्यक्ष
माननीय
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी,
राजभाषा हिंदी की सांविधिक स्थिति और
वास्तविक दुर्दशा
प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में स्थायी समिति के रूप में केंद्रीय
हिंदी समिति वर्ष 1967
में
गठित हुई है। यह
शीर्ष
समिति है जो संघ की राजभाषा के रूप में हिंदी के प्रगामी प्रयोग के लिए दिशानिदेश
व नीति निर्धारित करती है। आप पदेन इसके वर्तमान अध्यक्ष हैं। संभवतः राजभाषा
विभाग आपके सामने बैठक का प्रस्ताव भेजे। परंतु मुझे नहीं लगता है कि आपके सामने
राजभाषा हिंदी का असली मुद्दा रखा जाएग। मैं उस असली मुद्दे की बात कर रहा हूं जिसे
राजभाषा अधिनियम, 1963 द्वारा अनंत काल के लिए टाल दिया गया था और अब वह समय बीतने
के साथ भुला दिया गया है। राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा 3(5) ने राजभाषा हिंदी की
स्थिति को वास्तविक रूप में, देश की राजभाषा के दर्जे को अनंत काल तक के लिए टाल
दिया है और अनंत काल काल का मतलब राजभाषा के रूप में हिंदी को नकारना है। किसी भी
एक राज्य को वीटो पावर दे दी गई है कि जब तक एक भी राज्य विरोध करेगा हिंदी को
वास्तविक राजभाषा का दर्ज़ा नहीं मिलेगा। अंग्रेज़ी अनंतकाल तक राजकाज का माध्यम
रहेगी।
2. हिंदी के प्रश्न को संवविधान में अनंत काल तक के लिए टालने
का फ़ैसला जनता द्वारा
नहीं
किया गया है और न ही किसी समित द्वारा सुझाया गया था। आज तक जितनी भी समितियां, आयोग बने
किसी ने भी हिंदी के प्रश्न को समय सीमा (पंद्रह साल) से परे रखने की
सिफ़ारिश नहीं की है। राजभाषा आयोग, विश्व विद्यालय अनुदान आयोग, केंद्रीय
शिक्षा सलाहकार बोर्ड,
सभी
ने हिंदी व क्षेत्रीय भाषाओं में ही शिक्षा दीक्षा देने की सिफ़ारिश की है। तब संविधान में हिंदी को
अनिश्चित काल के लिए टालने की बात कहां से आई? यह निश्चित रूप से कोई सोची समझी चाल
तथा प्रच्छन्न विद्वेष की भावना लगती है। इसे समझने और गलती को सुधारने की आवश्यकता
है।
3. कार्यालयों में हिंदी को प्रचलित करने तथा स्टाफ़ सदस्यों
को सक्षम बनाने के लिए
सारी
व्यवस्था में सत्यनिष्ठा का अभाव है। राजभाषा संसदीय समिति व राजभाषा विभाग के निरीक्षण,
बैठकों के आयोजन सब महज खाना पूर्ति लगते हैं। यदि ऐसा नहीं है तो राजभाषा संसदीय समिति ने अब तक नागालैंड सरकार द्वारा
राज्य की राजभाषा के बारे में कोई निर्णय करने की सिफ़ारिश क्यों नहीं की? अब तक
राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा 3(5) के प्रावधान में संशोधन की सिफ़रिश क्यों नहीं
की?
अतः राजभाषा संसदीय समिति की भूमिका और राजभाषा विभाग की कार्यपद्धति पर
पुनर्विचार की ज़रूरत है।
4. आपने पूरे भारत में हिंदी में व्याख्यान दिए। कहीं से भी
हिंदी में व्याख्यान देने का विरोधी स्वर नहीं सुना गया। आपने प्रधान मंत्री का कार्यभार संभालते ही जिस
प्रकार से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी में कार्य करने की शुरुआत की है, हिंदी की
संस्थाओं को आप जैसे कर्मठ, निष्पक्ष और देशप्रेमी व्यक्ति से इस विषय में पहल की उम्मीद
की आस बंधी है। देश की राजभाषा का गौरव तभी बढ़ेगा जब देश के राजनेता इसे गौरव
प्रदान करेंगे। आशा है, आप अंग्रेज़ी की वजह से करोड़ों लोगों को होने वाली क्षति
और असुविधा को दूर करने का प्रयास अवश्य करेंगे। अंग्रेज़ी से केवल हिंदी भाषी ही
नहीं नुकसान उठा रहे हैं बल्कि इसकी वजह से देश का उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम
भाग भी नुकसान उठा रहा है।
5. इस बारे में सभी सोचते हैं परंतु आप को लिखने में हिचकते हैं।
अनुरोध है कि आप इस बारे में सार्थक पहल करेंगे और परिषद के इस पत्र की पावती देने
का आदेश करेंगे।
सादर और सविनय,
भवदीय,
(दलसिंगार यादव)
श्री नरेंद्र मोदी
प्रधान मंत्री
भारत सरकार
प्रधान मंत्री का कार्यालय
साउथ
ब्लॉक, रायसीना हिल्स
नई दिल्ली-110 101
नई दिल्ली-110 101
शुक्रवार, जनवरी 17, 2014
देश की राजभाषा – कब तक इंतज़ार
देश की राजभाषा की स्थिति आज भी उतनी
ही निरीह हालत में है जितनी कि 65 साल पहले थी। कारण यह है कि राजनीतिज्ञ और
ब्यूरोक्रेट दोनों मिलकर सुनियोजित ढंग से हिंदी को पीछे रखने और अंग्रेज़ी को आगे
बढ़ाने में लगे हुए हैं। नवीनतम उदाहरण है राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की सिफ़ारिशें जिनके आधार पर अंग्रेज़ी का स्तर सुधारने
के लिए पहली कक्षा से अंग्रेज़ी की पढ़ाई कराने का आदेश जारी किया गया है।
राष्ट्रीय ज्ञान आयोग का गठन
इस आयोग के अध्यक्ष सैम पित्रोदा
थे। इसके सदस्य थे, डॉ. अशोक गांगुली, रिज़र्व बैंक के
बोर्ड में निदेशक और कई प्राइवेट कंपनियों के बोर्डों में सदस्य हैं, डॉ. जयति घोष, जवाहर लाल नेहरू
विश्व विद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं, डॉ. दीपक नैयर, जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय में अर्थशास्त्र के
प्रोफ़ेसर हैं, डॉ. पी. बलराम, भारतीय विज्ञान
संस्थान, बंगलौर के
निदेशक हैं, डॉ. नंदन निलेकनी, कंप्यूटर विज्ञानी
हैं, डॉ. शुजाता रामदोई, टाटा इंस्टीट्यूट
ऑफ़ फ़ंडामेंटल रिसर्च में गणित के प्रोऱेसर हैं, डॉ. अमिताभ मट्टू, जम्मू विश्व विद्यालय के उप कुलपति हैं। राष्ट्रीय ज्ञान
आयोग ने अपनी अंतिम रिपोर्ट 2009 में प्रस्तुत कर दी है और उसके कार्यान्वयन का काम शुरू हो
गया है।
राष्ट्रीय ज्ञान आयोग का उद्देश्य ज्ञान के क्षेत्र
में देश को 21 वीं
शताब्दी में सबसे आगे ले जाने के लिए शिक्षा और अनुसंधान हेतु आधारभूत और मज़बूत
ढांचा तैयार करना है। आयोग ने अपनी सिफ़रिश में कहा है कि देश में अंग्रेज़ी की
पढ़ाई पहली कक्षा से शुरू की जाए और दो भाषाएं, अर्थात, अंग्रेज़ी तथा क्षेत्रीय भाषा पढ़ाई जाए। आयोग ने
हिंदी की सिफ़ारिश नहीं की है और न ही त्रिभाषा सूत्र को लागू करने View blogकी बात की है।
प्रधान मंत्री ने भी इसे स्वीकार कर ली है और राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की सिफ़रिशों
को लागू कराने की प्रक्रिया शुरू करा दी है।
"राष्ट्रीय ज्ञान आयोग का मानना है कि
अब समय आ गया है कि हम देश के लोगों, आम लोगों को
स्कूलों में भाषा के रूप में अंग्रेज़ी पढ़ाएँ। इसलिए एक केंद्र
प्रायोजित योजना चलाई जानी चाहिए, जो अंग्रेज़ी भाषा सिखाने के लिए ज़रूरी
शिक्षकों और सामग्री के विकास के लिए वित्तीय सहायता दे सके। राज्य सरकारों
को इस योजना पर अमल के काम में बराबर की साझीदारी करनी होगी। अतः राष्ट्रीय
ज्ञान आयोग का सुझाव है कि प्रधानमंत्री राष्ट्रीय विकास परिषद की
अगली बैठक में सभी मुख्यमंत्रियों के साथ इस मामले पर चर्चा करें और अंग्रेज़ी
को पहली कक्षा से क्षेत्रीय भाषा के अलावा एक दूसरी भाषा के रूप में
सिखाने के लिए राष्ट्रीय योजना तैयार करें। इससे यह तय हो सकेगा कि स्कूल
में बारह वर्ष की पढ़ाई पूरी करने के बाद हर विद्यार्थी कम-से-कम दो भाषाओं
में प्रवीण हो जाएगा।"
सदस्यता लें
संदेश (Atom)