शनिवार, जुलाई 09, 2011

परिवर्तन क्या है?

परिवर्तन क्या है?
व्यक्ति (माइक्रो) समाज (मैक्रो) का हिस्सा है। आज जो समाज है वह कल नहीं था। इसका मतलब है कि कल के समाज में और आज के समाज में अंतर है। इसी अंतर को सामान्य अर्थ में परिवर्तन कहा जाता है। परिवर्तन को अनेक रूप से व्यक्त किया जा सकता है। सामान्य रूप से यह भी कहा जा सकता है कि नेमी जीवन से विचलन परिवर्तन है। सुरक्षा को किसी भी प्रकार का ख़तरा उत्पन्न होना भी परिवर्तन है। हमारी वर्तमान जीवन शैली में कोई भी बदलाव परिवर्तन है। यदि जीवन में अनायास रूप से कोई नुकसान उठाने के कारण कोई द्विविधा उत्पन्न हो जाए, कोई अनिश्चितता पैदा हो जाए तो उसके परिणाम स्वरूप उत्पन्न परिस्थिति परिवर्तन है। नुकसान उठाने के कारण प्राचीन विश्वास, प्रवृत्ति और मूल्यों के प्रति आस्था को चुनौती दिया जाना परिवर्तन है। आज यह आवाज़ उठ रही है कि हमारा कानून पुराना पड़ गया है। सामाजिक रूप से किए जा रहे सामूहिक व्यवहार (सोच) में बदलाव आना और उस सोच के परिणाम स्वरूप ढलने का प्रयास परिवर्तन कहलाता है। लीक से हटना परिवर्तन है। पहले से स्थापित मूल्यों में हलचल और बदलाव ही परिवर्तन कहलाता है। कोई भी नुकसान हो जाए तो उसके प्रति व्यक्त की गई प्रतिक्रिया के ढंग में आए बदलाव को परिवर्तन कहा जाता है। इस बदलते परिवेश में नई परिस्थितियों के कारण आए बदलाव में ढल जाने की प्रक्रिया परिवर्तन है। निरंतर उथल पुथल या स्थान परिवर्तन के कारण भी घरेलू जीवन में आने वाले अप्रत्याशित बदलाव से व्यक्ति के जीवन में अवांछित वास्तविकता का सामना करने के लिए तैयार होना परिवर्तन है। जीवन में जो नेमी नियम हम अपना रहे हैं उसके क्रम में बदलाव परिवर्तन है। परिवर्तन के परिणाम स्वरूप प्राथमिकताओं और सोच में बदलाव परिवर्तन है। असंतुलन जिसमें हम अपने बारे में अथवा बदले हुए हालात में ढलने के बारे में आश्वस्त न हों परिवर्तन है। परिणाम के साथ तारतम्यता बिठाने के लिए अपनी अंतरात्मा को पुकारना, अनप्रयुक्त संसाधनों को उपयोग में लाना परिवर्तन है।
जब जीवन में बदलाव की संभावना होती है तो लोग कैसा महसूस करने लग जाते हैं?
परिवर्तन की आशंका से मन में भय, निरुत्साह, चिंता, रोष, संभ्रम, कयास, प्रच्छन्न निरुत्साह, अवसाद, एकांत की इच्छा, आकुलता, उत्साह उत्पन्न होते हैं।
लोग बदलाव से कैसे बचना चाहते हैं?
जो लोग जीवन के हर मामले में परिवर्तन को टालना चाहते हैं वे किसी भी परिवर्तन को बिना कुछ सोचे समझे आवेशपूर्ण ढंग से उसे अस्वीकृत (indignant rejection) कर देते हैं। जब उस परिवर्तन और उसके लाभ के बारे में तर्क पूर्ण ढंग से उन्हें बताया जाता है तो वे तर्कपूर्ण आपत्ति (reasoned objection) उठाएंगे, चर्चा में भाग लेने से कतरेंगे और आपत्तियाँ उठाएंगे तथा परिवर्तन को टालने की हर संभव कोशिश करेंगे। उसके बाद भी जब उनकी आपत्तियों का निराकरण किया जाएगा तो वे तब भी उसे स्वीकार तो नहीं करेंगे परंतु उसका सशर्त विरोध (qualified oppostion) ज़रूर करेंगे। अस्थायी स्वीकृति (tentative acceptance) की स्थिति तब आती है जब पुनः परिवर्तन से होने वाले लाभ के बारे में बताया जाता है। सशर्त सहमति/स्वीकृति (qualified endorsement) की स्थिति तक पहुंचाने में बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। जब परिवर्तन को स्वीकार करने की इस स्थिति तक पहुंच जाते हैं तो परिवर्तन से अधिकतम लाभ मिल सके इसके लिए परिवर्तन में तर्कसंगत संशोधन (judicious modification) को सुझाव मिलने लग जाते हैं। उसके बाद असुरक्षा की भावना कम होने लगती है और आत्म विश्वास में वृद्धि होने लगती है। यह बात बैंकिंग में कंप्यूटरी करण की प्रक्रिया से साबित हो जाती है। प्रारंभ में कर्मचारी यूनियनों के प्रतिनिधियों द्वारा बहुत विरोध किया गया परंतु उसके बाद निरंतर प्रयास और चर्चा के माध्यम से कंप्यूटरीकरण को लागू किया गया और आज कोई भी व्यक्ति अपने बैंक खाते से किसी भी कोने में रहते हुए धन निकाल सकता है।
परिवर्तन के बारे में अनौचित्यपूर्ण धारणा
परिवर्तन अच्छा नहीं होता है क्योंकि मानव स्वाभावतः परिवर्तन विरोधी होता है। परिवर्तन अहितकर है। मेरी ज़िंदग़ी में कोई भी परिवर्तन मेरे नियंत्रण को मेरे हाथ से निकाल देगा। हालाँकि मैं यह मैं जानता हूं कि परिवर्तन हितकर है फिर भी मैं अपनी जीवन शैली में परिवर्तन नहीं चाहता हूं। प्रकृति परिवर्तनशील होती है। जो प्रकृति के विपरीत जाने का प्रयास करते हैं उन्हें अंततः का कोप भाजन बनना पड़ता है। अतः परिवर्तन शाश्वत है और अपरिहार्य है।
परिवर्तन से तालमेल रखकर स्वीकार करने का लाभ
परिवर्तन के अनुकूल ढल जाने से वैयक्तिक, सामाजिक और भावनात्मक विकास होता है। इससे निजी, पारिवारिक उत्पादकता बढ़ती है, जीवन की उपयोगिता के बार में दृष्टिकोण में बदलाव आता है, परिवर्तन के कारण खुलने वाले नए संसाधनों से समग्र रूप से विकास की संभावना में वृद्धि, हमारी आंतरिक शक्ति और ऊर्जा में वृद्धि होती है, मानसिक रूप से संतुष्टि आने से स्वास्थ्य में सुधार आता है जिसका राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव पड़ता है। जब समृद्धि आती है तो समाज में स्थिरता आती है, आत्म निर्भर्ता आती है, सोच में सकारात्मकता तथा दृष्टिकोण में व्यापकता आती है।
परिवर्तन स्वीकार करने के लिए उपाय
चरण 1 – उच्च स्तर पर नीतिगत निर्धारण करना होगा कि परिवर्तन क्या होगा? उसका स्वरूप क्या होगा? उससे क्या बदलाव आने वाला है? बदलाव की प्रक्रिया कैसी होगी? उसका अंततोगत्वा परिणाम क्या होगा? आदि का निर्धारण किया जाए और यह तय किया जाए कि परिवर्तन को स्वीकार करने के लिए निजी धारणा, मत, मनोवृत्ति अथवा व्यवहार में किस प्रकार के बदलाव की ज़रूरत होगी? इसमें वरिष्ठ कार्यपालकों के साथ गंभीर और गहन चर्चा की जानी चाहिए।
चरण 2 – जब नीतिगत निर्धारण के बाद वांछित परिवर्तन को लागू करने की योजना या चरण दर चरण कार्यान्वयन का कार्यक्रम बनाया जाए। एक समन्वयक नामित किया जाए और या चरण दर चरण कार्यान्वयन के कार्यक्रम को अंजाम देने के लिए उप समितियाँ बनाई जाएँ जो उपयुक्त निगरानी रखते हुए दैनिक समस्याओं का समाधान करेंगी तथा उसकी रिपोर्ट समन्वय समिति को देगी।
चरण 3 – अब परिवर्तन का पूरा खाका तैयार हो गया है। इसके बाद उसकी छवि बनाएं कि वांछित परिवर्तन के बाद अगला छह माह में विभाग/संस्था का स्वरूप ऐसा होगा। उस छवि में सभी कर्मियों की भूमिका, उनकी बदली हुई मनोवृत्ति की छवि का सफल अक्स नज़र आना चाहिए। उसका मूल्यांकन किया जाए, लोगों की प्रतिक्रिया प्राप्त की जाए और नज़र आई कमियों को दूर किया जाए। उसके बाद परिवर्तन को नियमित किया जाए और उस परिवर्तन के साथ आगे बढ़ जाए। समितियों को स्थायी रूप से आवधिक समीक्षा करते रहना सुनिश्चित करने लिए नियमित रूप से बैठक करते रहने की व्यवस्था की जाए।
चरण 5 – यदि इसके बाद भी परिवर्तन नहीं होता है तो इसका मतलब है कि आपने परिवर्तन को स्वीकार नहीं किया है इसलिए मनोवृत्ति में वांछित बदलाव नहीं आया है। अतः नए सिरे से समाक्षा की जाए और पुनः प्रयास किया जाए।
वास्तविक उदाहरण
इस संदर्भ में हम देश की राजभाषा हिंदी को लागू करने को परिवर्तन मान कर समीक्षा करें तो हम पाते हैं कि नीति निर्धारण किया गया, कार्यान्वयन की योजना बनाई गई परंतु कार्यान्वयन की प्रणाली ठीक ढंग से या निष्ठापूर्वक काम नहीं की। अतः पुनरीक्षण की आवश्यकता है।
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4 टिप्‍पणियां:

  1. राजभाषा हिंदी के प्रति प्रतिबद्धता का सुन्दर उदाहरण है यह ब्लॉग..बधाई.
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    शब्द-शिखर / विश्व जनसंख्या दिवस : बेटियों की टूटती 'आस्था'

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  2. परिवर्तन पर आधारित यह लेख पूर्णत: प्रासंगिक है एवं अमल में लाने योग्‍य है। अपने व्‍यव‍हारिक जीवन में भी हम परिवर्तन से कतराते हैं क्‍योंकि हम परिवर्तन के केवल एक पहलू को ही देखते हैं और दु:खी होते हैं। परिवर्तन सदैव विकास का ही सूचक होता है, आवश्‍यकता है इसे सकारात्‍मक सोंच के साथ स्‍वीकार करने की। राजभाषा हिंदी से जोडने के पश्‍चात यह लेख और भी अधिक प्रासंगिक हो गया है परंतु और कुछ भी आगे लिखें, कुछ अधूरापन सा लग रहा है। विनम्र सुझाव स्‍वीकार करें।

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  3. परिवर्तन प्रकृति का नियम है। अच्छा है।

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  4. रजनीश जी!

    कमी को टिप्पणी के माध्यम से पूरा किया जा सकता है। आप कमी को इंगित करने की कृपा करें। कोई भी लेख स्वयंपूर्ण नहीं होता है। सुझाव विनम्रता पूर्वक स्वीकार करें।

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