बुधवार, दिसंबर 29, 2010

हिंदुस्तानी की हिपॉक्रेसी


मेरे एक मित्र का मेल आया कि "आज लगभग सारी जनता अंग्रेज़ी का Happy New Year मनाने में अपनी शान समझ रही रही है और बड़े उत्साह से मना रही है परंतु वही जनता सन् की जगह संवत् में अपना भारतीय नव वर्ष नहीं मनाती है।" मैंने उन्हें जवाब में लिखा कि विचार बहुत अच्छे हैं और सराहनीय भी। परंतु यह हिंदुस्तानी की मुहिम चलाने वालों की हिपॉक्रेसी है। केवल इतना ही कर देने से हम अपनी संस्कृति छोड़ देंगे या इसका अनुसरण करते रहने से हम अभारतीय नहीं हो जाएंगे। क्या अब गार्गियन कैलेंडर को छोड़ा जा सकता है? भारतीयता तो हमारे जीवन में रची-बसी है। अंग्रेज़ बहुत कुछ छोड़ गए हैं, क्या हमने उन सब का त्याग कर दिया है? क्या हमने उन समस्त बातों और उत्पादों को त्याग दिया है जिसे अंग्रेजों ने विरासत में हमें दी थी? मैं क्या उदाहरण दूं आप स्वयं इस पर ग़ौर करें और सोचें कि मात्र नव वर्ष न मनाने से हमारे परिवार में खुशी की लहर दौड़ जाएगी? मेरा विचार तो है कि जहाँ तक हो सके उन बुराइयों को छोड़ने की कोशिश करें जोकि हमें अंग्रेज़ों ने दी है। सार-सार को गहि रखैं, थोथा देंय उड़ाय। हमारा समाज अंग्रेज़ों की सबसे बड़ी खामी अंग्रेज़ी भाषा ही नहीं छोड़ रहा है जिसकी वजह से समाज में खांई बन गई है। पढ़ा लिखा इंसान गांव वालों को कमतर आंकता है और पढ़ लिखकर गांव से निकलता है तो फिर वापस गांव जाता ही नहीं। आप और मैं गांव के हैं। हमारा मन तो आज भी गांव में बसता है। अपनी बचत का तीन चौथाई गांव में खर्च कर रहे हैं। अतः न संस्कृति भूलेगी न छूटेगी। अब तो ऐसा दौर आ गया है कि गांव के लोग भी अपने बच्चे को गांव में नहीं रहने देना चाहते हैं और अपनी भाषा के बजाय अंगेरज़ी के मोहजाल में उलझा हुआ है।

1 टिप्पणी:

  1. यादव साहब !
    ठीक कहा!
    परन्तु ग्लानी का युग है. क्या करेंगे?
    हम भी क्या कर रहे हैं आज की खबर देखिये जो अंग्रेजी नववर्ष नहीं मना रहे वे क्या कर रहे हैं. जगनाथ मंदिर में जिस प्रकार एक बिदेशी महिला का अपमान हुआ उसे हम क्या कहें? कहाँ से करें सुधार ?
    बस ग्लानी है.

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