चौदह सितंबर को हिंदी दिवस है। एक बार स्वर्गीय शरद जोशी ने लिखा था कि आज हिंदी दिवस है आज तो हिंदी होगी ही। वैसे भी इकसठ साल तो बीत गए, आस लगाए बैठे हैं कि हिंदी आएगी परंतु अभी भी नहीं आई। इतनी देर क्यों लगा दी? कहीं रास्ता तो नहीं भूल गई। संविधान सभा ने 14 सितंबर 1949 को घोषित किया था कि यह भारत की राजभाषा होगी और 26 जनवरी 1950 को आ जाएगी। तभी से आस लगाए बैठा हूं कि हिंदी आती ही होगी। परंतु अब तो बहुत ही देर हो गई है। कहीं हिंदी की चलने की क्षमता तो समाप्त नहीं हो गई है? वैसे यही तो महीना है जब सभी कार्यालयों में, संसद में, विज्ञान भवन में, कॉलेजों में, स्कूलों में, रेडियो पर, टी.वी. चैनलों पर गोष्ठियां आयोजित की जाती हैं, हिंदी अखबारों में लेख छापे जाते हैं और आश्वासन दिए जाते हैं, शुभकामनाएं व्यक्त की जाती हैं कि हिंदी का भविष्य बहुत उज्ज्वल, यह बहुत सशक्त भाषा है, यह सरल और आसानी से सीखी जा सकने वाली भाषा है जो भारत के हिंदीतर भाषी क्षेत्रों और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहज संपर्क सूत्र का काम करती है। इसमें कोई भी संकल्पना व्यक्त की जा सकती है। अभी हाल ही में श्री शेरबहादुर सिंह जी.. अंतराष्ट्रीय हिंदीं समिति.के पूर्व अध्यक्ष... ने भी कहा,"यह एक स्वर्ण युग है हिंदी भाषा के लिए। इतने हिंदी सेवी निष्ठा से इस प्रचार प्रसार के आंदोलन में जुटे हुए हैं, अब हिंदी के प्रवाह को कोई नहीं रोक सकता। अब अपने संगठित प्रयासों से भाषा जी जड़ों को और मज़बूत करना है।" परंतु मुझे तो अब शक होने लगा है कि इतनी खूबियों वाली सशक्त भाषा को कार्यालयों, संसद, कॉलेजों, स्कूलों, रेडियो, टी.वी. चैनलों तक का सफ़र तय करने में इतना समय क्यों लग रहा है?
मुझे लगता है कि हिंदी को हमारी मदद की ज़रूरत है। लेकिन हिंदी मदद तो मांग नहीं रही है। फिर मैं इसकी मदद क्यो करूं? मैं कोई देवता तो हूं नहीं कि बिन बुलाए ही आकर बलि की हविषा ग्रहण कर लूं। देवता अयाचमानाय बलिं हरंति। मेरे अलावा अन्य लोगों के पास तो शंकर की भांति तीसरा नेत्र भी है जिसे ज़रूरत पड़ने पर खोल भी सकेंगे। अब अगर हिंदी आने की ज़ुर्रत भी कर ले तो ऐसे त्रयंबक लोगों के डर से नहीं आएगी। अब सचमुच ऐसा लगता है कि हिंदी ऐसे लोगों से डरती है जिनके पास त्रिनेत्र है। इसीलिए तो नहीं आ रही है वरना अब तक आ नहीं जाती। अतः त्रिनेत्र के समाप्त होने और हिंदी की धाविका गति बढ़ने की प्रतीक्षा की जाए। हिंदी आएगी ज़रूर, यह मेरा आश्वासन है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तो बहुत तेज़ प्रयास हो रहे हैं। विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा जी इसे यू.एन.ओ. में स्थापित करने जा रहे हैं। कर्नाटक में तो कर ही चुके थे। वाजपेयी जी तो केवल भाषण ही देकर छोड़ दिए थे असली प्रयास तो अब होंगे।
दीपक स्वयं अपने नीचे उजाला कभी नहीं कर सकता। इसके लिए किसी टार्च की आवश्यकता पड़ती है।
जवाब देंहटाएंआपके अनुगामियों (followers) में तीन- चार तो आप स्वयं ही हैं। परिवार के बाहर का भी कोई साथ चले तो कितना अच्छा हो??
हिंदीवाले बंधु...
जवाब देंहटाएंअनुगामियों की सूची बढ़ाने के लिए तो ऐसा नहीं किया गया था। मैं लोगों को ब्लॉग बनाने की ट्रेनिंग भी देता हूं। उसी सिलसिले में अनुगामी जुड़ गए थे। आप जैसे टार्च के अनुगामी होने पर किसी और अनुगामी की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। मेरे पोस्ट पर अवश्य टिप्पणी लिखा करें। आपकी टिप्पणी का तो मुझे बेसब्री से इंतज़ार रहता है।
आपने अपने ब्लॉग (hindiwale)को पुनर्जीवित किया, बधाई। परंतु मेरी मेल का जवाब नहीं दिया। बेरुखी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है।