आज स्थिति यह है कि आम व्यक्ति अंग्रेज़ी के मोह में अपनी मातृ भाषा को सही ढंग से नहीं लिख पा रहा है और न ही उसकी शब्दावली को समझ पा रहा है। अंग्रेज़ी कितना समझता है या जानता है इसका आभास तो संसद में हिंदी के अंग्रेज़ी अनुवाद के हंगामे से हो जाता है। अंग्रेज़ी तमिल नाडु की मातृ भाषा तो है नहीं। अतः तमिल भाषी सांसदों की समझ में नहीं आती है तो इस पर इतना हंगामा मचाने की क्या आवश्यकता है? इससे कम प्रयास और समय में हिंदी का प्रयोग सीखा जा सकता है या तमिल अनुवाद उपलब्ध कराया जा सकता है। परंतु वे तो ऐसे व्यवहार कर रहे हैं जैसे हिंदुस्तान की संसद में नहीं इंग्लैंड की पार्लियामेंट में भाग ले रहे हों। उनकी नज़र में देश अंग्रेज़ी की बदौलत चल रहा है जिसे कितने लोग समझते हैं? लगता है सांसदों ने तो संसद में जो शपथ ली थी वह अंग्रेज़ी में ली थी इसीलिए वह भी समझ में नहीं आई होगी। तभी तो अंग्रेज़ी में ही कमी बता दी और उस समय तमिल की भी याद नहीं आई अन्यथा अंग्रज़ी के बजाय तमिल अनुवाद की मांग करते तो तमिल भाषा के विकास के साथ तमिल भाषियों के लिए रोज़गार के अवसर भी बढ़ते। सांसद जनता के मार्गदर्शक होते हैं जनता के पथभ्रष्टक नहीं। तमिल नाडु की जनता को कब तक भ्रम में रखेंगे? एस. रामकृष्णसाई जैसे ही अनेक तमिल भाषी लोग भी ऐसा ही सोचते हैं परंतु अपने विचार व्यक्त करने की ज़हमत नहीं उठाते हैं या फिर जानबूझकर टी आर बालू जैसों की संकुचित सोच पर ध्यान देना व्यर्थ समझते होंगे।
मैंने भी तमिल नाडु के भीतरी इलाकों की यात्रा की है और आम लोगों से हिंदी के बारे में बात भी की है। उनके विचार सुनकर तो मुझे तो लगा कि राजनीतिज्ञ अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए किसी के भी हितों की बलि चढ़ाने में न तो शर्म करते हैं और न ही हिचकते हैं। अब समय आ गया है जब जनता को नेताओं का पल्लू छोड़कर आगे आना होगा।
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