बुधवार, फ़रवरी 17, 2010

राजभाषा हिंदी - सांविधिक स्थिति

देश की स्‍वतंत्रता के न‍िर्णय के साथ ही भारत के नेताओं ने हिंदी को देश की राष्‍ट्रभाषा के रूप में स्‍वीकार कर लिया था परंतु संवि‍धान में इसे राष्‍ट्रभाषा न कहकर राजभाषा नाम दे दिया गया और आज यह दुष्‍प्रचार किया जा रहा है कि हिंदी भारत की राष्‍ट्रभाषा नहीं है बल्कि यह अन्‍य भारतीय भाषाओं की ही भांति एक भाषा है और यह केंद्र सरकार के राजकाज की भाषा है।

2. भारत सरकार ने भी इसके साथ अच्‍छा व्‍यवहार नहीं किया और 1967 में भारत के संविधान में संशोधन करके हिंदी को 1965 के बाद अंग्रेज़ी का पर्याय बनने से रोक दिया और ऐसी परिस्थिति का निर्माण कर दिया है कि हिंदी वास्‍तविक रूप में राष्‍ट्रभाषा बन ही नहीं सकती है।

3. सांवि‍धानिक प्रावधानों के अनुसार जब तक देश के सभी राज्‍यों के दोनों सदनों में इस आशय का संकल्‍प न पारित कर दिया जाए कि हिंदी भारत संघ की राजभाषा होगी और उसके बाद भारतीय संसद के दोनों सदनों में भी ऐसा ही संकल्‍प नहीं पारित कर दिया जाता तब तक देश के काम काज से अंग्रेज़ी का संपूर्ण रूप से समापन नहीं हो पाएगा। चूंकि संविधान का अनुच्‍छेद 345 अभी नागालैंड को अंग्रेज़ी के उपयोग की शक्ति देता है इसलिए नागालैंड हिंदी को नहीं स्‍वीकार कर पाएगा। अतः यह असंभव जैसी स्थिति बन गई है। हम संसदीय समिति और समयबद्ध कार्यक्रमों के माध्‍यम से अनंत काल तक प्रयास करने और हिंदी के प्रगामी प्रयोग का दिखावा करते रहेंगे और हरसाल करोड़ों रुपए खर्च करते रहेंगे लेकिन हिंदी को राष्‍ट्रभाषा नहीं बना पाएंगे।

4. राजभाषा विकास परिषद ने इसके लिए संवैधानिक लड़ाई प्रारंभ की है। नागपुर हाईकोर्ट में याचिका दायर की है। इसमें हिंदी सेवकों तथा संगठनों का सहयोग आवश्‍यक और वांछनीय है।

डॉ. दलसिंगार यादव
निदेशक
राजभाषा विकास परिषद
नागपुर
17.02.2010

2 टिप्‍पणियां:

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