मंगलवार, जुलाई 01, 2014

हिंदी आंदोलन - अपने उद्देश्यों के लिए जनमत का दुरुपयोग



जनमत यानि कि आम जनता की राय। किसी भी जनतांत्रिक प्रक्रिया में आम जनता का कितना समर्थन हासिल है या किसी मुद्दे पर आम आदमी का समर्थन जुटाने के लिए जनमत तैयार किया जाता है। इसे ऐसे कहें कि किसी भी सामाजिक और राजनैतिक मुद्दे पर कितने लोग पक्ष में हैं यह जानने के लिए जनतांत्रिक तरीके से जनता की प्रतिक्रिया जुटाई जाती है और उसके आधार पर यह धारणा बनाई जाती है कि आम आदमी की बहुमत राय क्या है। हिंदी के मामले में जनमत का उपयोग कैसे किया किया गया यह अपने आप में एक घातक अपराध से कम नहीं है। जब कोई नेता चुनाव के दौरान झूठा वादा करता है या प्रलोभन देता है और चुनाव के बाद ठीक उसके विपरीत आचरण करता है तब उसकी मंशा की पोल खुलती है। फिर भी वह अपने बचाव में तरह तरह के तर्क देकर अपने आप को जनता का हितैषी साबित करने की कोशिश करता रहता है।
हिंदी के समर्थन और विरोध में खड़े किए गए सामाजिक आंदोलन का खामियाजा भारत बहुत दिनों तक भुगतने के लिए अभिशप्त है। आम आदमी यह नहीं समझ पाता है कि उसकी भलाई किस बात में है। उसकी दूरदर्शी सोच न होने के कारण स्वघोषित समाज हितैषी चालाक नेता आंदोलन की आड़ में लोगों को भ्रमित करके एक क्षेत्र में संकुचित करने की साज़िश करता है ताकि उसका वोट बैंक सुरक्षित रहे और उनके जनमत का बहाना बनाकर वह अपना हित साधता रहे। जनता ग़रीब, अशिक्षित और लाचार बन कर पड़ी रहती है और नेता अमीर तथा साधन संपन्न बनता जाता है। परंतु जनता को और अधिक दिनों तक बेवकूफ़ बना कर नहीं रखा जा सकता है। तभी तो मद्रास उच्च न्यायालय में हिंदी के पक्ष में दायर याचिका इस बात का प्रमाण है कि तमिल नाडु की आम जनता अब हिंदी का विरोध छोड़ कर आगे बढ़ना चाहती है और करुणानिधि जैसे चालाक, खुदगर्ज़ नेता तथा उनके कुनबे के लोगों की चाल को समझ गई है। अब भाषा की छुद्र राजनीति में उनका और साथ नहीं देना चाहती है।
दक्षिण भारत का हिंदी आंदोलन मात्र चार-पाँच लोगों की साजिश का नतीज़ा है जिसकी नींव 1937 में डाली गई थी। उस साजिश में दक्षिण के दो-तीन लोग तथा उत्तर व मध्य भारत को दो प्रमुख लोग शामिल थे। दक्षिण के लोगों के नाम तो खूब उछले और उन्हें हिंदी के खलनायक के रूप में पेश किया गया था परंतु उत्तर व मध्य भारत के दो लोगों के नाम कभी नहीं लिए गए। 1935 गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट, 1935 लागू होने के फलस्वरूप प्रेसीडेंसी राज्यों में अपनी सरकारें बनने का दौर शुरू हुआ था। उसी सिलसिले में मद्रास में 14 जुलाई 1937 को चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के नेतृत्व में कांग्रेसी सरकार बनी। वे दक्षिण में हिंदी का प्रचार करने के समर्थक थे। चुनाव से पहले भी उन्होंने 6 मई 1937 को सुदेशमित्र नामक अखबार में एक लेख लिखा था कि सरकारी नौकरियाँ सीमित हैं। ये हर किसी को नहीं मिल सकती हैं। अतः दूसरी नौकरियों की तलाश करनी होगी। उसके लिए और कारोबार के लिए हिंदी का ज्ञान आवश्यक है। हम दक्षिण भारतीय हिंदी सीखकर दूसरों के बीच अपना सम्मान बढ़ा सकते हैं। ग्यारह अगस्त 1937 राजगोपालाचारी ने, मुख्य मंत्री बनने के एक माह के भीतर ही अपनी मंशा के अनुरूप माध्यमिक शिक्षा में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य करने की नीति का दस्तावेज़ जारी करने का बयान दे दिया।
उसके बाद हिंदी विरोध की राजनीति करने वाले ई. वी. रामास्वामी (पेरियार) और जस्टिस पार्टी के मुखिया ए. टी. पनीरसेलवम ने राजगोपालाचारी के उस प्रस्ताव का विरोध किया तथा 4 अक्तूबर 1937 को हिंदी विरोधियों का सम्मेलन आयोजित करके हिंदी का विरोध शुरू कर दिया। विरोध के उस कार्य में भारत के संविधान के निर्माता डॉ. बी. आर. अंबेडकर तथा पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना भी साथ हो लिए। फ़रवरी 1940 मे बंबई में डॉ. बी. आर. अंबेडकर के निवास पर बैठक हुई जिसमें पेरियार, पनीरसेलवम, जिन्ना शामिल हुए थे। इस प्रकार वह आंदोलन फ़रवरी 1940 तक चला क्योंकि 1939 में विश्व युद्ध छिड़ गया और उसमें ब्रिटिश इंडिया द्वारा भारतीय सैनिकों को भेजे जाने के विरोध में राजगोपालाचारी ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। राज्य में कांग्रेसी सरकार नहीं रही तथा ब्रिटिश गवर्नर लॉर्ड एर्सकिन ने राजगोपालाचारी के आदेश को वापस ले लिया और हिंदी की पढ़ाई पर रोक लग गई लेकिन पेरियार के सेल्फ़ रेस्पेक्ट मूवमेंट तथा पीस पार्टी के पुराने नेताओं, जैसे, कुमार वेंकट रेड्डी और ए. टी. पनीरसेलवम के नेतृत्व में हिंदी विरोध जारी रहा। इन नेताओं की ख्याति हिंदी के आंदोलनकर्ताओं के रूप में नहीं थी फिर भी इन्हें ऊपर से संरक्षण प्राप्त था।

हिंदी विरोध का यह आंदोलन दक्षिण में अब दम तोड़ रहा है और अब वहाँ की जनता ही इसे वैसे ही छोड़ने के लिए मजबूर कर देगी जैसे कि 1962 में चीन युद्ध के दौरान स्वतंत्र तमिल नाडु देश बनाने की मुहिम छोड़ना पड़ा। जनमत को बहुत दिनों तक भटकाना संभव नहीं है। भारत सरकार को भाषा के नाम में छुद्र राजनीति करने वालों की मंशा अब और आगे चलाते रहने की छूट न दे। इससे केवल हिंदी भाषी ही नहीं बल्कि अन्य भाषा भाषी भी बराबर के शिकार हैं। उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय भी तो यही चाहते हैं कि अंग्रेज़ी के कारण न्यायाधीशों और कानून की प्रैक्टिस करने वालों का वर्चस्व बना रहे। उसी प्रकार कार्यालयों में कार्यरत कर्मचारी और कार्यालय प्रमुखों की नीयत भी साफ नहीं है। उनके मन में हिंदी के प्रति प्रच्छन्न विद्वेष की भावना है जिसे ज़ाहिर नहीं करते हैं और मौका पाते ही हिंदी की जड़ पर कुठाराघात कर देते हैं।
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