हिंदी के अंतरराष्ट्रीय स्वरूप और यूनीकोड प्रणाली पर संगोष्ठी – पर एकरूपता का अभाव
विश्वेश्वरैया राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, नागपुर ने 25 मार्च को अपने परिसर में हिंदी के अंतरराष्ट्रीय स्वरूप और यूनीकोड प्रणाली पर संगोष्ठी आयोजित की थी और मुझे उसमें यूनीकोड पर जानकारी देने के लिए आमंत्रित किया था। उन्होंने इसी विषय पर चर्चा के लिए भारतीय स्टेट बैंक के मुख्य अधिकारी श्री मनमोहन सोलंकी को भी आमंत्रित किया था जिसके बारे में कार्यक्रम में उल्लेख नहीं था। बाद में पता चला कि श्री सोलंकी भी चर्चा करेंगे। मुझे क्या ऐतराज हो सकता था? परंतु बाद में एहसास हुआ कि बिना गहन अध्ययन और पल्लव ज्ञान में क्या फ़र्क़ होता है?
संगोष्ठी का उद्घाटन दत्ता और मेघे चिकित्सा संस्थान, वर्धा के कुलगुरु डॉ. वेदप्रकाश मिश्र ने किया और अपने धारा प्रवाह, मंत्रमुग्ध कर देने वाले भाषण में कहा कि हिंदी राष्ट्रीय एकता की, सभी भाषाओं में संवाद और सहचारिता की भाषा है। उन्होंने बताया कि हिंदी विश्व के 26 देशों में पढ़ाई जाती है और उन देशों में हिंदी बोलने वालों की संख्या एक-एक लाख से भी अधिक है। दुनिया के छह ऐसे देश हैं जहाँ हिंदी प्रमुख भाषा है। नवीनतम जन गणना के अनुसार देश में 65.9 करोड़ लोग हिंदी का प्रयोग करते हैं। विश्व में इसका स्थान तीसरे से उठकर दूसरा हो गया है। तो क्या अब भी बताने की ज़रूरत है कि हिंदी का क्या महत्व है? मेरे विचार से हिंदी का मूल्यांकन संख्या से नहीं बल्कि इसके विस्तार और इसकी उपयोगिता के मानदंड से करना चाहिए। आज विदेशों में रह रहे भारतीयों की समस्या यह हो गई है कि अपनी अगली पीढ़ी को अपनी संस्कृति की वाहिका हिंदी कैसे सिखाई जाए? लोग उन्हें हिंदी सिखाना चाहते हैं परंतु सुविधा की कितनी कमी है।
इस संबंध में दि नांक 11,12,और 13 मार्च को क्रमश: बर्मिंघम ,नॉटिंघम और लंदन में आयोजित किए गए अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मलेन का उल्लेख करना चाहता हूं। सम्मलेन में, हिंदी के अंतरराष्ट्रीय स्वरूप और उसके शिक्षण की कार्य प्रणाली और और उसके मकसद को लेकर सार्थक सवाल उठाए गए, जैसे, विदेशों में हिंदी किस मकसद से पढ़ाई जा रही है? उसका मकसद सिर्फ अपनी जड़ों से जुड़े रहने के लिइ थोड़ा बहुत बोल समझ लेना है या उससे आगे भी कुछ है? क्या हिंदी को देवनागरी छोड़कर सुविधा के लिए रोमन के माध्यम से सिखाना चाहिए? नए मानकों के साथ हिंदी पढ़ाने का तरीका क्या होना चाहिए क्योंकि विदेशों में हिंदी के अध्यापन का कार्य ज़्यादातर अनट्रेंड अध्यापकों द्वारा स्वयंसेवक के तौर पर किया जाता है।
इसका उल्लेख करने का मक़्सद यह है कि विदेशों में रह रहे छात्रों को हिंदी भाषा सिखाने के लिए किन कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, जैसे, बदलते हिंदी के मानकों को सुलझाने का प्रयास करना, हिंदी किताबों में ही इन मानकों को लेकर विरोधाभास को समाप्त करना। वहाँ पर, छात्रों में व्याप्त भ्रम को दूर करने के लिए हिंदी की वर्तनी के मानकीकृत रूप को प्रचलित करने की आवश्यकता पर बल दिया जा रहा है और यहाँ, कैसा विरोधाभास है कि जिन बातों के बारे में विदेशों में लोग चिंतित हैं हम उन्हीं को बढ़ाने में लगे हैं। इस संगोष्ठी में, हिंदी की वर्तनी के मानकीकृत रूप को ताक पर रखकर व्यक्तिगत पसंद को लागू रखने की सिफ़ारिश की जा रही थी। इतना ही नहीं, कंप्यूटर पर यूनीकोड (यूनीवर्सल) में टाइपिंग की बात की जाती है परंतु यूनीफ़ॉर्म कीबोर्ड की बात को नज़र अंदाज़ किया जा रहा था। मुझे तो बड़ा आश्चर्य होता है जब हिंदी अधिकारी भी ट्रांसलिटरेशन पद्धति द्वारा हिंदी टाइप करने की सलाह देते हैं। वे यह भलीभाँति जानते हैं कि ट्रांसलिटरेशन पद्धति द्वारा हिंदी टाइप करने में 50 % तक अधिक स्ट्रोक मारने पड़ते हैं जिससे टाइपिंग की गति कितनी बाधित होती है। अतः ऐसी भ्रम सर्जक संगोष्ठियाँ आयोजित करने से तो अच्छा है कि संगोष्ठी न ही आयोजित की जाए। यह महज औपचारिकता है। इससे हिंदी का भला होने के बजाय अहित हो रहा है। हिंदी लिखने के लिए देवनागरी लिपि के बजाय रोमन लिपि के दुष्प्रभाव के बारे में मेरा विचार है कि रोमन वर्णमाला और रोमन लिपि अत्यंत दोषपूर्ण हैं। जिन ध्वनियों का हम उपयोग कर सकते हैं उन्हें लिखने में नितांत असमर्थ है। जो लोग रोमन लिपि का इस्तेमाल करके हिंदी लिख रहे हैं या हिंदी लिखने के लिए रोमन प्रणाली का उपयोग करने की सलाह देते हैं वे जाने अनजाने हिंदी भाषा व संस्कृति का अहित कर रहे हैं। मैं इस बात का सख्त हिमायती हूं कि हिंदी की लिपि और लेखन में एकरूपता होनी ही चाहिए। इस विषय पर व्यापक और गंभीरता से वैज्ञानिक चर्चा की ज़रूरत है। कंप्यूटर पर हिंदी टाइपिंग के लिए केवल एक ही लेआउट का उपयोग किया जाए और इसीका प्रशिक्षण दिया जाए। इससे इस लेआउट में भी सुधार के सुझाव मिलेंगे और विश्व स्तर पर एकरूपता का सृजन होगा।
इस पर चिंतन और इसका अनुशीलन किया जाना चाहिए।
इस संबंध में दि नांक 11,12,और 13 मार्च को क्रमश: बर्मिंघम ,नॉटिंघम और लंदन में आयोजित किए गए अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मलेन का उल्लेख करना चाहता हूं। सम्मलेन में, हिंदी के अंतरराष्ट्रीय स्वरूप और उसके शिक्षण की कार्य प्रणाली और और उसके मकसद को लेकर सार्थक सवाल उठाए गए, जैसे, विदेशों में हिंदी किस मकसद से पढ़ाई जा रही है? उसका मकसद सिर्फ अपनी जड़ों से जुड़े रहने के लिइ थोड़ा बहुत बोल समझ लेना है या उससे आगे भी कुछ है? क्या हिंदी को देवनागरी छोड़कर सुविधा के लिए रोमन के माध्यम से सिखाना चाहिए? नए मानकों के साथ हिंदी पढ़ाने का तरीका क्या होना चाहिए क्योंकि विदेशों में हिंदी के अध्यापन का कार्य ज़्यादातर अनट्रेंड अध्यापकों द्वारा स्वयंसेवक के तौर पर किया जाता है।
जवाब देंहटाएंये पंक्तियाँ शिखा वार्ष्णेय की पोस्ट पर पढ़ी थी . शायद वही से ली है आपने इन्हें . खैर आभार इस जानकारी के लिए
आपके विचारों से सहमत।
जवाब देंहटाएंआज प्रयोजनमूलक हिन्दी की ज़रूरत है।
यूनीकोड फॉन्ट से कई समस्याएं हल हुई हैं।
जहां तक बात रोमन की बोर्ड से टाइप करने की है तो मैं पहले गोदरेज, रेमिंगटन आदि की बोर्ड से टाइप किया करता था। जब से बरह फॉन्ट अपनाया है, रोमन की बोर्ड से टाइप करने से स्पीड भी बढ गई है, और सुविधा भी काफ़ी होती है।
1. इंस्क्रिप्ट की-बोर्ड से स्पीड अच्छी बनती है. भारत सरकार भी इसे प्रोत्साहित कर रही है. यही तरीका ठीक लग रहा है हिंदी के समुचित विकास के लिए.
जवाब देंहटाएं2. मैं समझता हूँ कि स्वतंत्रतापूर्व सेना के कामकाज में हिंदी रोमन स्क्रिप्ट में लिखी जाती थी वही तरीका अच्छा था. उसमें कुछ संकेत जोड़ कर सभी ध्वनियों को रूप दिया जा सकता था. इससे विदेशियों को हिंदी सीखने में और भारतीय बच्चों को अंग्रेज़ी सीखने में मदद मिल जाती. देखने योग्य है कि रोमन लिपि में कुल 26 वर्ण और मात्राएँ हैं. यह लिखने में भी आसान है. फ्लो बना रहता है, शीर्ष रेखा नहीं लगानी पड़ती.
हिंदी टंकण के लिए translitration का प्रयोग करना मजबूरी है क्यूंकि इसके लिए के बोर्ड ही उपलब्ध नहीं है दूसरी बात कार्यालयों में सारा काम अंग्रेजी में होता है इसलिए भी उन्ही के बोर्ड का प्रयोग करना पड़ता है
जवाब देंहटाएंखंकरियाल जी,
जवाब देंहटाएंआपने जिस मजबूरी की बात की है वह केवल उन्हीं लोगों की मजबूरी है जो अपने को मजबूर समझ रहे हैं। जो लोग हिंदी में काम करना चाहते हैं वे इसे चुनौती के रूप में स्वीकार करके बखूबी कार्य व संघर्षरत हैं। कार्यालयों में तो भेड़चाल, उदासीनता और हाँ में हाँ मिलाने की प्रवृत्ति है। वहाँ आंकड़ेबाज़ी भी है। वहाँ राजभाषा के कार्यान्वयन का दायित्व उठाने वाला व्यक्ति या तो लक्ष्योन्मुखी है या फिर उदासीन। इसलिए पहल (इनीशिएटिव) करने से कतराता है।
दूसरी बात, कीबोर्ड को सरल और हिंदी भाषा के अनुरूप बनाने का प्रयास कहाँ किया गया? जिन लोगों ने कीबोर्ड बनाया उन्होंने हिंदी का व्याकरणिक और ध्वनि वैज्ञानिक अध्ययन करके नहीं बनाया। मात्र चलताऊ सहूलियत को ही ध्यान में रखा। ट्रांसलिटरेशन या ट्रेडिशनल/इंस्क्रिप्ट का सर्वाधिक उपयोग हो रहा है। परंतु इनमें जो कमियाँ हैं उनके सुधार का प्रयास नहीं किया जा रहा है या ज़रूरत ही महसूस नहीं की जा रही है। उदाहरण स्वरूप शृंगार शब्द को वांछित, पहले से प्रचलित तरीक़े से नहीं लिखा जा सकता है। लोग इसे 'श्रृंगार' लिख रहे हैं। अवग्रह का प्रयोग भी आवश्यक है। श को य के साथ संयुक्त करके परंपरागत तरीके से लिखने की व्यवस्था तो है परंतु व के साथ नहीं जबकि लोग ऐसा चाहते हैं। ऐसे ही और भी कमियाँ हैं जिन पर सोचने और कार्य की ज़रूरत है।
राजभाषा विकास परिषद कार्यरत है और जल्दी ही आपकी सेवा में कीबोर्ड उपलब्ध करा देगी। सहयोग और सुहृदता की कामना सहित।